अगर ये शरीर उसी मिटटी का बना है, जिसपर हम चलते हैं, तो फिर हमें ऐसा अनुभव क्यों नहीं होता? हम पूरी धरती को अपने हिस्से के रूप में कैसे अनुभव कर सकते हैं?
जब आपका जन्म हुआ था, आप का कद कितना था? अब कितना है? इस बीच उसके बढक़र विकसित होने के लिए आपने क्या किया? आप कहेंगे, ‘उसे खाना दिया’। लेकिन आपको भोजन कहां से मिला? इसी माटी से। आपकी खाई हरेक चीज - साग-सब्जी और अनाज इसी माटी से ही तो तैयार हुए।
अगर आप सामिष खाने वाले हैं तो आपकी खाई हरेक बकरी और मुर्गी भी तो इसी माटी से उपजी वस्तुओं को खाकर बड़ी हुई थी, और फिर आपकी भूख बुझाई थी। जैसे भी हो, कुल मिलाकर मूल रूप से इसी माटी से आपका शरीर बना है। ज्यों-ज्यों आपके शरीर में माटी जुड़ती गई आपने उसे ‘मैं’ कहकर अपना लिया।
मैं’ की पहचान बनने का तरीका
एक लोटे में जल रखा है। क्या वह जल और आप एक हैं? आप कहेंगे ‘नहीं’। उस जल को लेकर पी लीजिए। जब वह आपके शरीर में मिल गया उसे क्या कहेंगे? अब वह ‘आप’ बन गया न?
मतलब यह है कि आपके अनुभव की सीमा में जो आ जाता है उसी को आप ‘मैं’ के रूप में महसूस करेंगे। जब तक वह बाहर है आप समझते हैं, वह अलग है और आप अलग हैं। क्या आप महसूस करते हैं कि बाहर वाले पानी, माटी, हवा और ताप से ही आपका निर्माण हुआ है? जब वे आपका एक हिस्सा बन गए उन्हें अलग-अलग करके देखना संभव नहीं रहा। कुल मिलाकर उसे ‘मैं’ की पहचान दे दी आपने।
आपके पुरखे कहां गए? चाहे उन्हें दफनाया गया हो या जलाया गया हो, वे इसी माटी में समा गए हैं। इस बात को न भूलें कि उन्हीं के ऊपर आप रोज कदम रखते हुए चलते हैं। आप भी आखिर में कहां जाने वाले हैं? आपके मूल तत्व रूपी इसी माटी के ही अंदर।
हर चीज़ में आप हैं
थोड़ी-सी माटी आपका स्वरूप बनकर सांस ले रही है। और कुछ माटी आपके बाग में ऊंचे पेड़ के रूप में बढक़र खड़ी है और थोड़ी माटी कुर्सी बन गई है जिस पर आप बैठे हैं। इसी माटी-चक्र की प्रक्रिया में आम, नीम, इमली, फूल, केंचुआ, मनुष्य अनेक और भिन्न-भिन्न अवतार ले रही है, और लेने वाली है। घड़े में रखें या छोटे कलश में, उसे आप पानी ही तो कहेंगे? यही दलील आप पर भी लागू होती है न?
माना कि इकठ्ठा किए गए बरतन अलग-अलग हैं, लेकिन उनकी बनावट का मूल तत्व यही माटी है न? यही पानी, यही वायु और यही ताप है न? इसलिए हरेक चीज में आप हैं।
वास्तविक आध्यात्मिक अनुभव
इसका दूसरा पक्ष भी सच है। आपने जिस गुब्बारे को फूंककर फुलाया उसमें आप की ही सांस है, आपके प्राणों की वायु है। जब वह गुब्बारा हवा में फूट जाता है, तो आपका एक हिस्सा भी उसमें मिल गया न?
संक्षेप में कहें तो जिस तरह आप इस विश्व का एक हिस्सा हैं, उसी तरह यह विश्व भी आपका एक हिस्सा है, क्या आप इस तथ्य को समझ रहे हैं? इस बात को दिमाग से समझें तो चकित हो सकते हैं बस। यदि यह बात आपकी चेतना में खिल जाए तो आपके अंदर भारी परिवर्तन फूटेगा। यही है वास्तविक अध्यात्म। नहीं तो अध्यात्म का अर्थ मंदिर में जाकर नारियल फोड़ना नहीं है, मोमबत्ती जलाना नहीं है, घुटने टेककर इबादत करना नहीं है।
यदि आप इसे समझ लें तो ईश्वर की प्रतीक्षा किए बिना अपने स्वर्ग का निर्माण खुद कर सकते हैं। एक योगी मृत्यु शय्या पर थे। अपने शिष्यों से उन्होंने कहा कि मैंने स्वर्ग जाने का निर्णय ले लिया है। ‘गुरुजी, आपको स्वर्ग मिलेगा या नरक, पता नहीं ईश्वर के मन में क्या है? आप कैसे जानते हैं?’ एक चेले ने पूछा। ‘मैं नहीं जानता कि ईश्वर के मन में क्या है? लेकिन मैं यह तो जानता हूं कि मेरे मन में क्या है। दूसरे लोग जिसे नरक कहते हैं भले ही उस जगह पर मुझे भेज दें, उसे भी स्वर्ग मानकर खुशी मनाना मुझे आता है।’ गुरुजी ने कहा।
सच्ची बात है। अपनी चेतना के अनुभव में आप किसी को भी स्वर्ग बना सकते हैं, या नरक बना सकते हैं। वह बाहरी परिस्थितियों का परिणाम नहीं है। यदि आपने महसूस कर लिया कि आप और सामने वाला व्यक्ति एक ही हैं तो आप किसे देखकर जलेंगे? किसके साथ झगड़ा करेंगे? किसके साथ होड़ लगाएंगे? किससे दुश्मनी पालेंगे? इस अनुभव के आने पर, बाहरी परिस्थितियां जैसी भी हों, आपके लिए हमेशा स्वर्ग ही स्वर्ग है।