ललद्यद
डा क्षमा कौल
छिल कर तलवों का मांस
मिल गया है सड़कों की रोड़ी से
परोसते शरणागतों को उपहास
चबाते हैं जंगली पशुओं की
आंतों की मानिंद
आविष्कार-हीन जगत् की
मुसीबतों की यात्रा में
ढूंढते हैं रस।
मानते हैं रस॥
तुम्हारे वाख को जो
लिख दिया अंदर
इंच-इंच दीवार पर
फिर बारीकी से बदल लिया धर्म
छिल गया है तलवों का मांस
मिल गया है सड़कों की रोड़ी से,
इस हिसाब से हमने
देश को कर दिया है एक।
आशाओं की कार्यशालाओं से
रोज भरते हैं कच्ची मिट्टी के
कटोरे मन
डूबते-उतराते
इधर कम है आशाओं का उत्पादन॥
बचेगी डोर दृढ़तम??
दे रहे हैं नाविक को शुल्क
सो छील तो लेगा वह
पूरा मांस
पर उतर जाएंगे समुद्र के उस तट
तुम्हारी गोद में
मां रहना
बनी रहना
बस....बस.... अभी बस
आ रहे हैं हम।
साभार:- डा क्षमा कौल एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य