गुरु व्येज़ि ओम ओम स्वरह स्यीत परदह वथ्य ।
येछि पछि दरदई बरनह स्यीत परदह वथ्य ।।
पोंपूर वोथ तथ न्यत करने गथ.।
सतगुरु ध्यानय धरनह स्यीत परदह वथ्य ।।
प्राणबई स्यीत ग्यव प्राणवई कन थव ।
अमृत चव प्राणह परनह स्यीत परदह वथ्य ॥
कथह त्राव अथ हाव रात दोह कमाव ।
हृत कमल फोलहनाव करनह स्यीत परदह वथ्य।
तरतहबा गोवन्दह अपोर नादह ब्यन्दह ।
सू छेन्दह नाथह संधि वरनह स्यीत परदह वथ्य ।।
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गङ्गा सागर से निलने जाती है, परन्तु जाती हुई जगत का पाप-ताप निवारण करती है । उसी प्रकार आत्मस्वरूप को प्राप्त जो संत हैं वे अपने सहज कर्मों से संसार में बंधे बन्दियों को छुड़ाते हैं ।