अवधनाथ, बृजनाथ तुम्हारा, सदा सदा मैं दास रहूँ।
जहाँ जहाँ भी जनमूँ जग में, पद पंकज के पास रहूँ।।
कामद पर्वत या गोवर्धन गिरि के, तृण मूल बना देना।
या प्रमोद बन या वृन्दावन का, फल फूल बना देना।।
या सरिता सरयू कालिन्दी का, कूल बना देना।
अवध भूमि बृज भुमि कहीं के, पथ की धूल बना देना।।
या बन कर सर चाप रहूँ, या बनकर बंशी पास रहूँ।
जहाँ जहाँ भी जनमूँ जग में, पद पंकज के पास रहूँ।।
बृज निकंज की बाट बनूँ, या अवध धाम की हाट बनूँ।
बनूँ सुदामा अश्रु बिन्दु, या केवल सरयू का धाट बनूँ।।
या बृजेश का गुण गायक, या कौशलेश का भाट बनूँ।
शुक्र का हृदय बनूँ मैं, या नारद वीणा का तार बनूँ।।
युगल नाम का जाप सदा, करता प्रतिपाल प्रति स्वास रहूँ।
जहाँ जहाँ भी जनमूँ जग में, पद पंकज के पास रहूँ।।