लल्थि-ललिथ वदय ब्व वाय ,
च़िता मुहॅच्य् प्ययी माय।
रोज़ी नो पंत लोह-लंगरॅच्च् छ़ाय,
निज़-स्वरूॅप क्या मोठुय हाय।।
अर्थात्
री लल्ला ! धीरे-धीरे बैन-विलाप करती रहूंगी तेरी दशा पर ! हे चित्त ,तुझे मोह-माया ने अभिभूत किया है। लोह-लंगर ( भोतिक वैभव ) की छाया तक मेरा साथ न देंगी। हां हन्त ! तू निज स्वरूप को ही क्यों भुला बैठा।