मूढ़ो त्रय छ्य न धारून तॅ पारून,
मूढ़ो क्रय छ्य न रछिन्य् काय।
मूढ़ो क्रय छ्य न दही संदारून,
सहज़ व्यच़ारून छुय व्वपदीश।।
अर्थात्
हे मूढ़ ! कर्त्तव्यकर्म व्रत -धारण ओर साज-सज्जा नहीं। न ही मात्र काया की रक्षा कर्तवय कर्म है ।भोले मानव ! देह की सार-संभाल ही कर्त्तव्य कर्म नही ।सहज़-विचार ( आत्मतत्व-चिन्तन) वास्तविक उपदेश है।
Contributed By: अशोक कौल वैशाली