प्रथॅइ तीर्थन गछ़ान संन्यास,
ग्वारान स्वदरर्शनॅ म्यूल।
च्यता पॅरिथ मो निष्पथ आस,
डेंशख दूरे द्रमुन न्यूल ॥
सन्यासी प्रत्येक तीर्थ को जाता है ताकि कहीं स्वात्म-दर्शन का लाभ हो।
हे चित्त, पढ़-लिखकर भी निष्पथ ( मार्गहीन) न हो। दूर से देखने पर दूब हरी दिखाती है। अर्थात् दूर के ढोल सुहावने होते हैं।
Contributed By: अशोक कौल वैशाली