पोत जूनि व्वथिथ मोत बोलनैवुम् ,
दग ललनॉवम दयि सॅज़ि प्रये।
लॅलि-लॅलि करान लाल वुज़नोवुम,
मीलिथ तस मन श्रोच्योस् देह ।।
निशा के अन्तिम प्रहार में जब चन्द्रास्त होने को था, उस घड़ी ज़ागकर मैने इस चंचल मन को बहुत समझा-बुझा कर परमार्थ की ओर प्रवृत्त कर दिया। दर्ह की लगन के कारण मैंने व्यथा-वेदना प्रसन्नभाव से सह ली ।
मैं लल्ला हूँ ! 'हॉ मै लल्ला हूँ !' यही पुकार-पुकार कर मैने अपने प्रिय (इष्ट) को जगाया। उसे मिलकर मेरा मन-युक्त दस इन्द्रियों का देह पावन हो गया।
Contributed By: अशोक कौल वैशाली