परान परान ज़्यव ताल फॅजिम,
च्य युग्य् त्रय् तॅजिम न ज़ाँह।
सुमरन फिरान न्योठ तॅ ओंग्- जि गॅजीम
मनाच्य दुई मालि च़जिम न् ज़ाँह।
पढ़ते- पढ़ते मेरी जीभ और तालु जीर्ण-शीर्ण हुए।, मगर तेरे योग्य कर्तव्य-कर्म की विधि कभी मेरी समझ में न आई। सुमरनी ( माला ) फेरतेहौए अंगूठा और अंगुलियां गल गई, पर आह ! मन की दुई फिर भी न मिटी।
Contributed By: अशोक कौल वैशाली