छ़ॉडान लूछ़स पानी पा नस,
छ़यपिथ ग्यानस वोतुम ना कूॅछ।
लय कॅरमस तॅ वॉच़सॅ अल्-थानस,
बॅरि बॅरि बानॅ तॅ च्यवान न कूँह।।
अर्थात्
मैं 'स्व' को ढूॅढते-ढूॅडते थक-हार गई । परन्तु इस प्रकार छिपे हुए ज्ञान (रहस्य) को भला कोई पा सकता है ? जब मैं 'स्व' में विलीन हो गई तब मैं 'अलथान'(ज्ञान-रूपी मधुशाला) में पहुंची जहाँ मधु- चटक भरे पडे है, पर कोई पीता नही।
Contributed By: अशोक कौल वैशाली