कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर

- कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर




कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर

भारतीय संस्कृति के वैशिष्ट्य में कश्मीर का अपना एक सहभाग रहा है। । बौद्ध दर्शन, शैव दर्शन, वैज्णव दर्शन इत्यादि भारतीय आध्यात्मिक सम्पदा को कश्मीर की भूमि ने पाला-पोसा और फिर इस पुष्पित- पल्लवित अमर-अजर संस्कृति को समस्त मानवता के कल्याण हेतु विश्व में बिना किसी भेदभाव के बिखेर दिया।

सर्वप्रथम कश्मीर में नीलमुनि द्वारा नागपूजा पर आधारित दर्शन का विकास हुआ। सम्राट अशोक के समय (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के मध्य) कश्मीर में बौद्ध मत का प्रवेश हुआ। अशोक के समय में अनेक बौद्ध विहार, मठ-मन्दिरों का निर्माण हुआ। कश्मीर में बौद्ध मत फैला, परन्तु ब्राह्मण उससे अप्रभावित रहे और उन्होंने अपने जटिल कर्मकाण्ड की पवित्रता बनाए रखी। ब्राह्मणों का समर्थन प्राप्त करने के लिए सम्राट अशोक भी प्राचीन शिवालयों में पूजा करने जाता था। (राजतरंगिणी 1102-107) । बौद्ध मत कश्मीर में 638 ई. तक लुप्त हो गया। नौ शताब्दियों तक फैलने के बाद यह अनेक कबीलों में घुल मिल गया, लेकिन इसने सनातन धर्म में कोई परिवर्तन नहीं किया।

 

विभिन्न मतों का आश्रय स्थल

 

नागार्जुन की गणना प्राचीन भारत के महान दार्शनिकों में की जाती है। वह कश्मीर में कनिष्क के शासनकाल में रहता था। कनिष्क ने अश्वघोष और वसुमित्र दो विद्वानों की अध्यक्षता में बौद्ध परिषद आयोजित की। परिषद हारवन (कश्मीर) में हुई इसमें सम्पूर्ण भारत से 500 भिक्षुओं ने भाग लिया। अभिमन्यु (जो कनिष्क के बाद सिंहासन पर बैठा) के शासनकाल में नागार्जुन ने बौद्ध मत अपना लिया और उसने ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में हरा दिया। ब्राह्मणों की ओर से कश्मीर के सुविख्यात वैयाकरण चन्द्राचार्य ने भाग लिया था। इस काल में कश्मीर ने अनेक विद्वान पैदा किए, जिन्होंने बौद्ध धर्म को दूर-दूर तक फैला दिया। चिन साम्राज्य (३८४-४१७ ई.) के दौरान, विख्यात कश्मीरी विद्वान कुमारजीव बुद्ध का संदेश लेकर चीन गया और चीनी सम्राटों द्वारा सम्मानित हुआ। उसे चीन में बुद्ध के चार पुत्रों में से एक माना जाता है।

 

अशोक के बाद उसके पुत्र जलौक के समय शैवमत का प्रवेश हुआ। परन्तु इस परिवर्तन का साधन शास्त्रार्थ ही रहा। किसी बौद्ध विहार को तोड़ा नहीं गया। उनकी पूजा पद्धति में व्यवधान नहीं डाला गया। कश्मीर शैवदर्शन का उद्गम स्थान है। कश्मीर का हिन्दू समाज ८० प्रतिशत शिव का ही उपासक है। शैवदर्शन कश्मीरी जीवन की आत्मा है। कहते हैं वैष्णव भक्त रामानुज भी, शास्त्रार्थ के लिए मद्रास से कश्मीर तक की लम्बी यात्रा करने पर बाध्य हो गए। कश्मीर में शैव साहित्य के विशाल भण्डार, आज भी मिलते हैं। विष्णु और अन्य देवी-देवताओं को भी पूजा जाता था। अनेक लोग तांत्रिक या शाक्त मत के अनुयायी थे। प्रत्येक परिवार शारिका, राज्ञा, ज्वाला और बाला नामक चार देवियों में से एक या दो देवियों का अनन्य भक्त होता था।

 

श्री आनंद कौशल अपनी पुस्तक 'द कश्मीरी पंडित ' में लिखते हैं- 'भारत-भर में पुरातन काल से ही काशी और कश्मीर शिक्षा के लिए विख्यात थे। कश्मीर, काशी से आगे निकल गया। काशी के विद्वानों को अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए, कश्मीर आना पड़ता था। आज भी काशी के लोग बच्चों को अक्षर ज्ञान समारोह के समय, पवित्र जनेऊ सहित कश्मीर दिशा की ओर सात पग चलने को कहते हैं। पवित्र धागा कश्मीर जाने और वहां से लौटने का प्रतीक माना जाता है। कश्मीर की भूमि भारतीय संस्कृति की उद्गमस्थली रही है। पूरे विश्व में फैली भारतीय जीवन-पद्धति के प्रचार-प्रसार में कश्मीर का विशेष योगदान है। इस तथ्य से आंखें नहीं मूंदी जा सकती।

 

संस्कृत शिक्षा का प्रमुख केन्द्र

 

कश्मीर संस्कृत का एक सशक्त केन्द्र रहा है। अनेक विदेशी इतिहास कार एवं विद्वान कश्मीर में शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक समझते थे। यहां आकर रहते थे। जैसा कि ६३१ तथा ७५९ ई. में कश्मीर आकर संस्कृत पढ़ने वाला चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा ओऊकांग की कृतियों में लिखा है। कश्मीर शुरू से ही शिक्षा-दीक्षा का केन्द्र रहा है। कश्मीर के जाने-माने विद्वानों के साथ वर्षों तक पठन-पाठन के बिना, किसी विद्वान को परिपक्व नहीं माना जाता था। ह्वेनसांग लिखता है-'कश्मीर के लोग शिक्षा-प्रेमी और सुसंस्कृत हैं। कश्मीर में शिक्षा के लिए शताब्दियों से आदर और प्रतिष्ठा रही हैं। अल्बेरूनी, जिसने ११०२ ई. में महमूद गजनवी के साथ पंजाब का भ्रमण किया था, लिखता है 'कश्मीरी-विद्वानों की सबसे बड़ी पाठशाला है। दूरूस्थ और निकट देशों के लोग यहां संस्कृत सीखने आते और उनमें से अनेक लोग कश्मीर घाटी की प्रफुल्ल जलवायु व प्राकृतिक छटा से चमत्कृत होकर यहां के हो जाते थे।"

 

कश्मीर घाटी में श्रीनगर से कुछ ही दूरी पर एक विशाल संस्कृत महाविद्यालय पंडित पुरुषोत्तम कौल के मार्गदर्शन एवं प्रधानाचार्यत्व में अनेक वर्षो तक चला। इस विद्यालय में भारत एवं विश्व के कोने-कोने से छात्र संस्कृत पढ़ने आते थे यह विद्यालय पूर्णतया निःशुल्क था। श्री गुरुनानक देव के पुत्र और उदासीन पंथ के संस्थापक बाबा श्रीचंद ने भी इस महाविद्यालय में प्रशिक्षण प्राप्त किया था। मुगल राजकुमार दाराशिकोह भी कश्मीर में संस्कृत पढ़ने आया था।

 

प्रारम्भ से ही कश्मीर विद्वानों की भूमि के नाम से प्रसिद्ध है। ऋषियों, मुनियों, मठों-मन्दिरों, विद्यापीठों और आध्यात्मिक केन्द्रों की इस भूमि ने दिग्विजयी विद्वान उत्पन्न किए हैं ये सब विद्वान पंडित कहलाए। ज्ञान रखने और बांटने वाला 'पंडित' होता है। अतः ज्ञान की भूमि की जातीय पहचान ही 'पंडित' नाम से प्रसिद्ध हो गई। कश्मीर' और 'पंडित' दोनों एकाकार होकर समानार्थी हो गए।

 

कश्मीर के जातीय चरित्र में विद्वता और क्षत्रियत्व दोनों हैं। इस भूमि का अतिप्रसिद्ध गोत्र भद्र है। इसमें दोनों भावों का मिश्रण है। भट्ट का अर्थ है: ब्राह्मण, शिक्षक, ज्ञान बांटने वाला और 'भट्ट' का अर्थ है सैनिक, लड़ने वाला रक्षक। अतः यह शब्द ब्राह्मण व क्षत्रिय दोनों के लिए प्रयोग में आने लगा। 'पंडित' शब्द उस कश्मीरियत (भारतीयता) का सम्बोधन मात्र है जिसने लगातार चार हजार वर्षों तक संसार के विद्वानों को आकर्षित, प्रभावित और संस्कारित किया है। 'पंडित' शब्द कश्मीर की विरासत है। यह शब्द कश्मीर के प्राचीन इतिहास, संस्कृत वाङ्मय, पर्वतों, नदियों, हरी वादियों, शीतल घाटियों-इन सबका स्मृति मन्दिर है और कश्मीर के प्राचीन वैभव का प्रतीक है, प्रमाण है।

 

सनातन संस्कृति के अवशेष

 

सुदूर उत्तर में कश्मीर घाटी का सिरमौर है हिन्दुकुश पर्वत । नाम से पता चलता है इसकी धरोहर का। क्रांतिकारी देश भक्त अश्फाकउल्ला खां ने भावुक होकर कहा था मेरा हिन्दु कुश हुआ हिन्दुकश' (हिन्दुकश अर्थात हिन्दू की हत्या करने वाला)। फिर इस हिन्दूकुश से प्रारम्भ होती है कश्मीर की पर्वत श्रृंखला जिनके ब्रह्मा शिखर,

 

हरमुकुट पर्वत, महादेव पर्वत, गोपाहि पर्वत, चंदनवन, नौबन्धन, नागपर्वत आदि (सभी संस्कृत) नाम हैं। कश्मीर को सतीसार का नाम देवताओं ने ही दिया था। सतीसार पर राज्य करने वाला नीलनाग कश्मीर को बसाने वाले कश्यप ऋषि का हो पुत्र था। कलहण अपनी राजतरंगिणी में सिन्यु नदी को उत्तर गंगा का नाम देते हैं, तो नीलमत पुराण में इसी को 'उत्तरमानस' अर्थात गंगबल बताया गया है। इसी के नजदीक पड़ता है प्राचीन तीर्थस्थल नन्दी क्षेत्र। आज यही नदकोट कहलाता है। पास में ही कनकवाहिनी नदी का प्रवाह है जो अब विकृत नाम 'कनकई नदी' धारण कर चुका है। झेलम ही वैदिक वितस्ता है और कृष्ण गंगा के किनारे स्थित है शारदा तीर्थ। अन्य तीर्थों के नाम हैं-अमरेश्वर (प्रसिद्ध अमरनाथ), सुरेश्वर, त्रिपुरेश्वर हर्षेश्वर, शिवभूतेश्वर, शारदा तीर्थ, सरित्शिला। ये नाम किस धर्म-दर्शन से जुड़े हुए हैं? और कश्मीर के ही ये दरें देखिए, जिनके नाम हैं 'सिद्ध पथ (आज का बुडिल या सीडन दर्रा), पंचाल धर (पीर पंजाल), दुग्धधर (दुदुकंत), जोजीला दर्रा, चिन्तापानी आदि। ये नाम किस इतिहास की ओर इशारा करते हैं ? तभी तो अंग्रेज इतिहासकार बनियर ने माना कि कश्मीर का नाम कश्यप ऋषि से जुड़ा है। मुस्लिम लेखक मलिक हैदर ने भी स्पष्ट लिखा है कि कश्मीर को बसाने वाले कश्यप ऋषि ही थे।' कश्मीर में आज जितने भी भवनों के खण्डहर मिलते हैं वे सब देवस्थानों, पाठशालाओं, मठों, विहारों के ही ध्वंसावशेष हैं परन्तु राजाओं के आमोद-प्रमोद और व्यक्तिगत विलास हेतु राजप्रासाद, राजभवन और स्त्रियों के हरम कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते। हिन्दू राजाओं ने अपने सुख के लिए जनता के सुख का कभी अपहरण नहीं किया। कश्मीर के राजाओं, सन्तों, महात्माओं ने क्योंकि इस भूमि को सती देश माना, इसलिए कश्मीरी प्रजा को काट देने का अर्थ भगवती सती को अपमानित करना माना गया।

 

कश्मीर ने सम्राट मेषवाहन जैसे दिग्विजयी सम्राट उत्पत्र किए जिसकी सैनिक पाहिनियों ने आधे विणण को विजण कृष्णा और विजित प्रदेशों को एक शर्त पर वापस किया कि प्राणि हिंसा नहीं होगी। वह जीवधारियों को जीवन का अभयदान देकर वापस लौटा । प्राणि रक्षा हेतु स्वयं की बलि को प्रस्तुत होने वाला मेषवाहन अपने आदर्श से कश्मीर को ऊचा उठा गया। गही भारतीयता है और यही कश्मीरियत ।

 

कश्मीरियत अर्थात

 

चौदहवीं शताब्दी के आगमन के साथ कश्मीर को धरती पर सूफी मत का आगमन भी हुआ। हमदान (कारस) के एक सूफी संत सैय्यद अली हमदानी सन् १३७२ में अपने ७०० शिष्यों साथ कश्मीर आए। बाद में अनेक सूफी संत कश्मीर में आए। यद्यपि यह सूफी संत कश्मीर के लोगों को इस्लाम में मतान्तरित करने के एकमात्र उद्देश्य से आए थे और अपने उद्देश्य में सफल भी रहे, तथापि इनके आध्यात्मिक उपदेशों को कश्मीर की जनता ने विशाल फुलवाड़ी में एक और पुष्प के रूप में स्वीकार किया।

 

चौदहवीं शताब्दी के ही मध्य काल में कश्मीर में ऋषि परंपरा' अथवा व्यवस्था का जन्म हुआ। संन्यासिनी लालदे और शेख नूरूहीन के उपदेशों और प्रयासों से यह आध्यात्मिक संगठन बना। इन ऋषियों की संख्या दो हजार के लगभग थी और ये गांव-गाव में फैले हुए थे। अबुलफजल नामक एक मुस्लिम संत, जो बाद में 'ऋषि व्यवस्था के अंग बन गए, ने कहा है-'कश्मीर में सर्वाधिक आदरणीय वर्ग ऋषियों का है। हालांकि उन्होंने पूजा के परम्परागत रीति-रिवाजों को नहीं त्यागा है, फिर भी वे सच्चे भक्त हैं। ये दुनिया की वस्तुओं की इच्छा नहीं रखते। लोगों के फायदे के लिए वे फल वाले वृक्ष लगाते हैं। वे मांस नहीं खाते और विवाह नहीं करते। इन ऋषियों ने कश्मीर की भूमि को वास्तव में स्वर्ग बना दिया। इनके उपदेशों में स्वार्थ का स्थान नहीं व्यवहार में आडम्बर नहीं था और उद्देश्यों में कालिमा नहीं थी।' अतः यह एक ठोस वास्तविकता है कि जिसे आज 'कश्मीरियत' कहा जा रहा है वह भारतीयता से भिन्न कोई तत्व नहीं है। 'कश्मीरियत' का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यह कश्मीरियत उस भारतीय संस्कृति का हिस्सा है जिसके अद्भुत स्वरूप को विश्व के कल्याणार्थ विधाता ने स्वयं अपने हाथों से गढ़ा है।

अस्वीकरण:

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साभारः- नरेन्द्र सहगल एवम्  पाचजन्य नवम्बर 1996