अफगान सेना बीस साल लड़ी साठ हजार जवान खोए, अब इतनी आसानी से क्यों मानी हार ?
प्रमोद जोशी
पिछले महीने 8 जुलाई को एक अमेरिकी रिपोर्टर ने राष्ट्रपति जो बाइडेन से पूछा, क्या तालिबान का आना तय है? इस पर उन्होंने जवाब दिया, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। अफगानिस्तान के पास तीन लाख बहुत अच्छी तरह प्रशिक्षित और हथियारों से लैस सैनिक हैं। उनकी यह बात करीब एक महीने बाद न केवल पूरी तरह गलत साबित हुई, बल्कि इस तरह समर्पण दुनिया के सैनिक इतिहास की विस्मयकारी घटनाओं में से एक के रूप में दर्ज की जाएगी।
अमेरिकी थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के विशेषज्ञ मैक्स बूट ने अपने अपने लेख में सवाल किया है कि अमेरिका सरकार ने करीब 83 अरब डॉलर खर्च करके जिस सेना को खड़ा किया था, वह ताश के पत्तों की तरह बिखर क्यों गई? उसने आगे बढ़ते तालिबानियों को रोका क्यों नहीं, उनसे लड़ाई क्यों नहीं लड़ी?
भारी हतोत्साह
बूट ने लिखा है कि इसका जवाब नेपोलियन बोनापार्ट की इस उक्ति में छिपा है, ‘युद्ध में नैतिक और भौतिक के बीच का मुकाबला दस से एक का होता है।’ पिछले बीस साल में अफगान सेना ने एयर-पावर, इंटेलिजेंस, लॉजिस्टिक्स, प्लानिंग और दूसरे महत्वपूर्ण मामलों में अमेरिकी समर्थन के सहारे काम करना ही सीखा था और अमेरिकी सेना की वापसी के फैसले के कारण वह बुरी तरह हतोत्साहित थी। अफगान स्पेशल फोर्स के एक ऑफिसर ने वॉशिंगटन पोस्ट को बताया कि जब फरवरी 2020 में डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने तालिबान के साथ सेना वापस बुलाने के समझौते पर दस्तखत किए थे, तब अफगानिस्तान के अनेक लोगों के मान लिया कि ‘अब अंत’ हो रहा है और अफगान सेना को विफल होने के लिए अमेरिका हमारे हाथों से अपना दामन छुड़ा रहा है।
जमीनी स्थिति
अमेरिकी सैनिकों की वापसी की तैयारी के बीच जो बाइडन बोले, अफगानिस्तान से कायम रहेगी साझेदारी -
राष्ट्रपति ग़नी को उम्मीद थी कि राष्ट्रपति जो बाइडेन कुछ भरोसा पैदा करेंगे, पर अप्रेल में उन्होंने घोषणा की कि बाकी बचे तीन हजार अमेरिकी सैनिक 11 सितम्बर, 2021 तक अफगानिस्तान से चले जाएंगे। वे सैनिक ही नहीं गए, उनके साथ सहयोगी देशों के सैनिक और अठारह हजार ठेके के कर्मी भी चले गए, जिनसे अफगान सेना हवाई कार्रवाई और दूसरे लॉजिस्टिक्स में मदद लेती थी। हाल के महीनों में अफगान सेना देश के दूर-दराज में फैली चौकियों तक खाद्य सामग्री और गोला-बारूद जैसी जरूरी चीजें भी नहीं पहुँचा पा रही थी। ऐसा नहीं कि उसने लड़ा नहीं। कुछ यूनिटों ने, खासतौर से इलीट कमांडो दस्तों ने अंतिम क्षणों तक लड़ा। पर चूंकि कहानी साफ दिखाई पड़ने लगी थी, इसलिए उन्होंने तालिबान के साथ समझौता करके समर्पण करना उचित समझा और निरुद्देश्य जान देने के बजाय बीच से हट जाने में ही भलाई समझी। अफगान सेना को दोष देने के बजाय देखना यह भी चाहिए कि पिछले बीस साल में 60 हजार से ज्यादा अफगान सैनिकों ने इस लड़ाई में जान गँवाई है।
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सौजन्य: प्रमोद जोशी एवम् आपका अखबार -August 17, 2021