कश्मीर में चुनाव प्रक्रिया -2

- कश्मीर में चुनाव प्रक्रिया -2




कश्मीर में चुनाव प्रक्रिया -2  

शंभू नाथ भट्ट हलीम  

अब तक की सूचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जम्मू व कश्मीर राज्य में भारत सरकार यद्यपि चुनाव प्रक्रिया सम्बंधी निश्चित तिथिया निर्धारित नहीं कर पाई है तथापि इस बात के संकेत स्पष्ट है कि 18 जुलाई, 1995 को राज्य में राष्ट्रपति शासन की अवधि समाप्त होने से पूर्व केन्द्र सरकार राज्य में आम चुनाव कराने पर कटिबद्ध है। कुछ समय पूर्व तक और अब भी अधिकारिक सूत्रों द्वारा ये घोषणाएं की जाती रही है कि राज्य में स्थिति दिनोंदिन सामान्य होती जा रही है अतः चुनाव का कार्यक्रम अब और ज्यादा देर तक रोका नहीं जा सकता।

 (मगर ईद के ही मौके पर कश्मीर घाटी में चार शरीफ की आतंकवादियों द्वारा जलाए जाने की दुर्घटना के कारण परिस्थितियों में बदलाव आ गया है। स्थिति किन असामान्य हो गई है। लेकिन सरकारी सूत्रों का मानना है कि पाकिस्तानी प्रेरित उग्रवादियों और भाड़े के विदेशी आतंकवादियों द्वारा की गई यह बीभत्स एवं निन्दनीय कार्यवाही इसी उद्देश्य से की गई कि कश्मीर में राजनैतिक एवं चुनावी प्रक्रिया में बाधा डाली जाये। ऐसी दशा मे अगर सरकार अपने निश्चय से डगमगा गई तो यह आतंकवादियों की पाल सफल होने का संकेत दे देगी। कदाचित यही मानकर केन्द्र सरकार राज्य शासन तत्र तथा चुनाव आयोग अभी तक इसी निर्णय पर अडिग है कि राज्य में चुनाव हर सूरत में कराए जाएंगे।

यह सही है कि भारत के बहुत से सू, जिनमें अनेक राजनैतिक संगठन भी सम्मिलित है, अभी राज्य में चुनाव कराने के पक्ष में नहीं है। उनका मानना है कि जब तक राज्य में आतंकवाद का उन्मूलन नहीं किया जाता, चुनाव तब तक न संभव है और न ही उचित ।

ऐसा प्रतीत होता है कि अब हालात ने ऐसा रूख धारण किया है कि यह कहना एक पहेली बन गया है कि चुनाव प्रक्रिया के योग्य कभी होगा भी? इसके पक्ष और विपक्ष की सम्मति लगभग हमला हो गई है। अनिश्चितता को हटाने के लिए भी चुनावी प्रक्रिया अनिवार्य है और निश्चित पथ-गमन के लिए भी निर्वाचन को सदा के लिए टाला नहीं जा सकता।

ऐसी दशा में यदि चुनाव कराने का केन्द्र सरकार का निश्चय मूर्त रूप धारण कर पाए तो हम सबको क्या करना होगा, इस पर विचार करना जरूरी है। इधर अनेक विचारकों ने राज्य में चुनाव सम्बंधी प्रश्न पर अपने-अपने विचार व्यक्त किए हैं। हम भी चाहेंगे कि इस सदर्भ में हम अपनी सोच प्रस्तुत करें जो जरूरी नहीं कि सबको मान्य हो। अपना दृष्टिकोण व्यक्त करना कदाचित उपयुक्त रहे ताकि जनमानस को इस संदर्भ में सोचने की कोई नई दिशा मिले।

हमारा मानना है कि जम्मू-कश्मीर राज्य की संरचना एवं शासन प्रणाली में एक मूलभूत भूल एवं बात धारणा का समावेश कश्मीर राज्य के संकट को बढ़ाने का मुख्य कारण बन गया है। और वह भूल यह है कि राज्य तीन प्रांतीय इकाइयों जम्मू, कश्मीर और लद्दाख पर आधारित होते हुए भी सदैव कश्मीर घाटी को ही राज्य भर के एकल प्रतिनिधित्व के रूप में न केवल मान्यता दी गई, अपितु शासनतंत्र में भी इसी को केन्द्रीय बिन्दु मानकर अन्य इकाइयों की निरंतर अनदेखी की गई। माना कि घाटी में राज्य की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा आबाद है लेकिन कश्मीर घाटी ही संपूर्ण राज्य है यह मानना न तो युक्तिसंगत है और न ही यथार्थ

यह बात तो विवादास्पद है ही नहीं कि इन तीन इकाइयों की स्वायत्तता (Autonomy) राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा बहुत पहले से स्वीकृत है, किन्तु इसके कार्यान्वयन में आज तक ढील क्यों बरती गई यह समझ में नहीं आता। स्पष्ट है कि निहित स्वार्थ के तत्त्वों ने इस नुक्ते को कभी उभरने नहीं दिया। दुर्भाग्य से इन प्रांतों के जिम्मेदार राजनीतिज्ञों, समाज-सुधारकों, लोक-प्रतिनिधियों तथा संबंधित हितकांशियों ने भी इस दिशा में ऐसा कोई सुनियोजित आदोलन नहीं किया, जिससे उनकी पहचान (Identity) तथा उनके उद्गारों की अभिव्यक्ति को मुखरता मिलती। कुछ दैवदुर्विपाक से और कुछ अप्यारों की अय्यारी से उनकी जायज आवाज की सुनवाई नहीं हुई। परिणाम यह कि वे कश्मीर के केन्द्रीकृत तंत्र के जुए में जुट गए। प्रश्न शासन तंत्र का हो, योजना के कार्यान्वयन का हो या जन प्रतिनिधित्व का हो, हर क्षेत्र में कश्मीर की इकाई को ही केन्द्र मानकर उसे असंतुलित महत्त्व दिया गया और अन्य दो इकाइयों को उपेक्षित मानकर उनकी अनदेखी की गई। ऐसी दशा में उस प्रतिक्रिया को भी राज्य की समग्र प्रक्रिया माना गया जो मात्र घाटी में बहा के मुट्ठी भर लोगों द्वारा व्यक्त की गई। यही कारण है कि जब पाकिस्तान द्वारा प्रेरित, प्रणीत एवं कार्यान्वित आतंकवाद की तबाही कश्मीर घाटी में शुरू हुई तो यत्र तब यही होहल्ला मचाया गया कि समस्त जम्मू-कश्मीर राज्य उग्रवाद के चंगुल में है और इसका निराकरण ही समय राज्य में शांति स्थापना के लिए अनिवार्य है। जबकि यह सब सच नहीं कश्मीर राज्य की दो प्रमुख इकाइयों, जम्मू व लद्दाख में न शासन तंत्र डोल उठा और न ही व्यवस्था में कोई खलल आया। यदि इन दोनों इकाइयों में स्वायत्त परिषदों (Autonomous Councils) की स्थापना की गई होती और उनको शासन, नियोजन: एवं अन्य प्रबंधों के अधिकार सौंपे गए होते तो न वह बांधली होती, जो इस समय जारी है और न ही यह राग अलापा जाने का अवसर ही आता कि समस्त जम्मू कश्मीर राज्य अफरातफरी अथवा असामान्य स्थिति है। पूरे देश पर दृष्टि डालिए। क्या विभिन्न प्रदेशों (States) में कश्मीर घाटी से अधिक ऐसे प्रांत नहीं, जहां कुछ न कुछ असामान्य परिस्थिति है। आंध प्रदेश में रायल सीमा, असम में बोडोलैण्ड, पश्चिम बंगाल में गोर्खालैण्ड, बिहार में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा तथा उत्तर प्रदेश में उत्तराखंड की समस्या-क्या इन सब प्रदेशों के आंदोलनों से देश के खंडित होने अथवा शासनतंत्र के बिगड़ने की वही बू आती है जो कश्मीर के आतंकवाद से आने का आभास दिया जाता है? नहीं, क्योंकि इन सभी राज्यों में ये समस्याएं स्थानीय मानी गई है और राज्यतंत्र पर इनका प्रभाव न तो लोकतांत्रिक व्यवस्था की दृष्टि से और न शासनतंत्र के रूप में पड़ने दिया गया। कश्मीर के राज्य में यह गलती पहले भी खलते योग्य थी और अब भी बहुत खल रही है, क्योंकि इस गलती के परिणामस्वरूप हमारी सोच एकागीन होकर रह गई है। इतना ही नहीं, पाकिस्तान के हस्तक्षेप के कारण इसका अंतर्राष्ट्रीयकरण हमारे लिए सिरदर्द बनकर रह गया है।

अब भी यदि हम चले जाए तो कुछ बिगड़ा नहीं है। ऐसा लगता है कि भारत सरकार के कुछ विवेकशील तत्त्व: इस दिशा में कुछ चिंतन करने लग गए हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त का यह वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है कि जम्मू कश्मीर राज्य में चुनाव जम्मू, लद्दाख व घाटी में क्रमश (staggered) कराए जाएंगे। बात भी युक्तिसंगत है। जम्मू और सहाय में कोई अशांति नहीं। अतः चुनाव में कोई विशेष अड़चन नहीं। रहा सवाल घाटी का इसमें सीमावर्ती बकरवाल एवं गोजर सदा ही शांतिप्रिय लोग रहे है। उनका सहयोग निर्वाचन में रहेगा ही। अन्य मतदाताओं में विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के अनुपाई चुनाव में भाग लेने को सत्रद्ध है। सरकारी कर्मचारियों द्वारा चुनाव के बायकाट की समस्या को सुलझाया जा सकता है। इस प्रकार यदि आकड़ों का आकलन किया जाय तो चुनावी प्रक्रिया की असंभावना का हौजा निर्मूल सिद्ध होगा।

हां, एक प्रश्न की ओर यहां विशेष ध्यानाकर्षण की आवश्यकता है। और वह यह कि कश्मीर से खदेड़े गए तीन लाख से अधिक माइग्रट, जिनमें बहु संख्या कश्मीरी पंडितों की है, मताधिकार से वंचित न रखे जाए। इस बात का आश्वासन तो मुख्य चुनाव आयुक्त ने दिया है और हमें उनके इस आश्वासन पर पूर्ण विश्वास है, लेकिन इसके साथ हमारा अनुरोध यह है कि इस संबंध में ऐसी कुछ संवैधानिक व्यवस्था की जाये, जिसमें माइग्रेटों को अपने मतपत्रों का प्रयोग अपनी पसंद के प्रत्याशियों के पक्ष में करने की सुविधा हो। स्पष्ट है कि वे घाटी के अपने उजाड़ों में जाकर ऐसा कर नहीं सकते, क्योंकि वहां न तो उनके ठिकाने सुरक्षित है और न जानें। ऐसी दशा में उनके लिए प्रवासी चुनाव क्षेत्रों (Constituencies) (in exile) की व्यवस्था होनी चाहिए। बेशक अनुपात की दृष्टि से वे थोड़े ही चुनावी क्षेत्र बन सके। इससे उन्हें अपनी पसंद का प्रतिनिधि चुनने का अवसर मिलेगा और विधान सभा में उनकी आवाज की प्रतिध्वनि सुनी जा सकेगी।

चुनाव हर हाल में संपन्न किए जाने का उपक्रम होने जा रहा है। जरूरी नहीं कि सौ प्रतिशत ही मतदाता उसमें भाग लें। विश्व के विकसित देशों तक में मताधिकार का प्रयोग साठ पैसठ प्रतिशत से अधिक नहीं होता। यदि आतंकग्रस्त राज्य में 30 प्रतिशत मताधिकार का भी प्रयोग हो सके तो चुनाव संपन्न माने जाएंगे। परंतु उसके लिए किसी एक इकाई को या जनसंख्या की किसी जाति विशेष को ही असतुलित रूप में महत्त्व देना भारी गलती होगी। इसे प्रायः अनुचित तुष्टीकरण ही कहा जाएगा। जिसका परिणाम न राज्य के लिए और न ही राष्ट्र के लिए हितकर निकलेगा।

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साभार: शंभू नाथ भट्ट हलीम एवम् जून 1995, कोशुर समाचार