कश्मीर में चुनावी प्रक्रिया -1
शंभू नाथ भट्ट हलीम
कुछ समय से यह बात बहुचर्चित है कि जम्मू कश्मीर राज्य में विधान सभा के चुनाव कराए जाएंगे। सरकारी सूत्रों से भी इसकी पुष्टि की जा रही है और सम्बंधित अधिकारी यद्यपि इसकी निश्चित तिथि निर्धारण के बारे में कुछ कहने से झिझकते हैं तथापि इतना संकेत तो दिया जा रहा है कि संभवत यह चुनाव जुलाई से पहले संपन्न किया जाएगा। इस संभावित तिथि का सम्बंध कदाचित राष्ट्रपति राज की वर्तमान अवधि समाप्त होने के साथ जुड़ा हुआ है। यों तो सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं की ओर से कई ऐसे वक्तव्य दिए जा चुके है, जिनमें कश्मीर के चुनावों का उल्लेख आता रहा है, मगर अभी तक इन वक्तव्यों को अधिक गंभीरता से नहीं लिया गया, क्योंकि जो सूत्र ऐसे वक्तव्य देते. थे, वे ही परिस्थितियों के वशीभूत कालान्तर में यह कहकर बात टालते थे कि राज्य में हालात सामान्य नहीं है अतः निकट भविष्य में चुनाव नहीं कराए जा सकते। मगर कुछ समय से राज्याधिकारियों ने न केवल यह कहकर चुनावी प्रक्रिया को कार्यान्वित करने की घोषणा की है कि राज्य में स्थिति बहुत हद तक सुधर गई है। बल्कि कुछ अधिसूचनाओं के आधारपर यह मानना पड़ रहा है कि अबकी बार सरकार कोई ठोस कदम उठाने का उपक्रम कर रही है। उदाहरण के तौर पर मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner) का सम्बंधित वक्तव्य, मतदाता सूचियों का प्रकाशन एवं नवीनीकरण, राज्य में चुनाव- हल्कों की सीमाओं का नवनिर्धारण आदि-आदि। लगता है, अगर कोई भारी उथल-पुथल न हुई तो सरकार चुनावी प्रक्रिया को अगल में लाने का गंभीरता से प्रयास करेगी।
इस संदर्भ में ऐसे अनेक प्रश्न उभरते हैं, जिनका वास्ता सामान्यतः समस्त राष्ट्र और विशेषतः कश्मीरी विस्थापित जन समुदाय से है, जिनमें बहुलता कश्मीरी पंडितों की है। यह तो सर्वविदित है कि कश्मीर घाटी में आतंकवादी (Termin), अतिवादी (Extremists) एवं पृथक्तवादी (Secessionists) जिनमें घाटी की बहुसंख्या शामिल है, चुनाव के विरुद्ध है। जो इने-गिने लोग नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस अथवा अन्य राष्ट्रवादी संस्थाओं के साथ अपना नाम जोड़ते हैं, वे भी बिना शर्त चुनाव के समर्थक नहीं है। इसका अर्थ यही हुआ कि राज्य भर का एक प्रांत, कश्मीर, जो वस्तुतः इस समय आतंकवाद के बंगुल में है, चुनाव का हिमायती नहीं। प्रशासकीय दृष्टि से भी इसमें अड़चनें आने का अंदेशा है। क्योंकि घाटी के सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारी अनेक बार इस प्रक्रिया से असहयोग करने की धमकी दे चुके है। एक ओर पाकिस्तान और पाकिस्तानी पिन, भाड़े के उग्रवादी (Mercenaries) बंदूकधारी मिलिटेन्टों को उकसाकर चुनावी प्रक्रिया को विफल बनाने में लगे है दूसरी ओर राज्य का वर्तमान शासनतंत्र सक्रिय रूप से चुनाव कार्य को संपन्न करने की स्थिति में आया हुआ दिखाई नहीं देता। ऐसा होता तो तीन लाख से अधिक विस्थापित कश्मीरियों के विषय में चुनाव सम्बंधी अनिवार्यताए पूरी की गई होती। यदि मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी. एन. शेषन का यह आश्वासन सही है कि कश्मीरी पंडित मतदाताओं के मताधिकार का प्रयोग हुए बिना राज्य का चुनाव संपन्न नहीं माना जा सकता तो कैसे विश्वास किया जाय कि राज्य की चुनाव प्रक्रिया कार्यान्वित होगी। यह एक हकीकत है कि अभी तक कश्मीरी हिन्दू विस्थापितों में से किसी ने भी अधिकारिक रूप में संभावित चुनाव का साथ देने की घोषणा नहीं की है। हां, बायकाट के मुखर स्वर यत्रतत्र सुनाई दे रहे हैं। इस पर भी अगर सरकार चुनावी प्रक्रिया का कोई ढोंग रचने की दृष्ठता करे तो उसका अंत क्या होगा। यह सहज ही समझ में आने वाली बात है।
सवाल यह है कि वर्तमान स्थिति के स्पष्टता चुनाव विरोधी होने पर भी शासक वर्ग हठधर्मिता से काम लेकर चुनाव कराने पर उतारू क्यों है? ऐसी कौन-सी रणनीति है, जिसको अपनाकर केन्द्र सरकार राज्य में तथाकथित जनराज लाना चाहती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुष्टीकरण की उसी नीति की आड़ में कश्मीर घाटी के अवांछित तत्त्वों के साथ कोई गुप्त गठजोड़ (Accord) किया गया हो जो नीति वर्तमान सरकार पंथनिरपेक्षता (Secularism) के नाम पर अपना बैठी है। ऐसा मुकाम विस्थापितों के लिए गहरी चिन्ता का कारण इसलिए है, क्योंकि ऐसी स्थिति में हम कहीं के नहीं रहेंगे। इस तरह का संदेह उन गतिविधियों से और भी बढ़ जाता है, जिसमें अवैध जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेताओं का भारत भ्रमण, राजनयिक एवं अन्य व्यक्तियों के साथ उनका खुला एवं गुप्त परामर्श, तथा हुरियत के लीडरों के विदेशों बौरे शामिल हैं। माना कि यह सरकार की उदार नीति (Transparzancy) की अभिव्यक्ति है ताकि विस्वसम्मति हमारे हक में हो, किन्तु इस प्रक्रिया में हम कितना कुछ खो रहे हैं, यह हमने कभी सोचा है। चिन्ता का विषय यह है कि इस सब कार्यकलाप में कश्मीर से भगाए गए लाखो शरणार्थियों की कहीं कोई बात ही नहीं की जाती। और तो और, कश्मीरी जिन तीन प्रमुख इकाइयों से जम्मू कश्मीर राज्य निर्मित है, ऐसा आभास दिया जा रहा है कि उसका समग्र रूप पाटी द्वारा ही व्यक्त होता है, जबकि वास्तविकता यह है कि कश्मीर की घाटी जनसंख्या की दृष्टि से कुछ घनी हो, पर विस्तार की दृष्टि से एक नगण्य भूखंड है। यो समझिए कि दिल्ली के विशाल नगर को रोहिणी जैसे एक छोटे भू-भाग ने बंधक (Ranpum) बना कर रख दिया है। विडम्बना यही है कि विश्व भर इस प्रांत धारणा से ग्रस्त है कि कश्मीर घाटी ही संपूर्ण राज्य है जबकि वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। मगर इस भ्रांत धारणा को जन्म देने एवं बढ़ाने वाली यदि कोई सत्ता है तो वह दिल्ली की केन्द्रीय सरकार है, जो न केवल कश्मीरी पंडितों की जान-बूझकर उपेक्षा कर रही है, बल्कि जम्मू और लदाख इकाइयों को भी अधिक महत्व नहीं देती। परिणाम वह जो हमारे सामने है।
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साभार: शंभू नाथ भट्ट हलीम एवम् अप्रैल-मई 1995 कोशुर समाचार