चिंतन - आओ सांझा घोषणा पत्र बनाएं

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चिंतन - आओ सांझा घोषणा पत्र बनाएं

महाराज शाह

 

कश्मीर चुनाव संपन्न हो चुके हैं। नतीजे आने के बाद सरकार भी तय हो गई है। हम उमर अब्दुल्ला की अगुआई में गठित नैशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की मिली जुली सरकार का मन की गहराईयों से स्वागत करते हैं और आशा करते हैं कि सरकार न केवल अपना कार्यकाल शातिपूर्वक संपन्न करेगी अपितु विकास के जिस मुद्दे की दोनों दल पैरवी करते आयें हैं, इसे वास्तव में जम्मू कश्मीर में सरअजाम देकर लोगों की तकलीफें कम करने में सफल भी होंगें।

इस के साथ ही यह कहना भी गलत न होगा कि जम्मू-कश्मीर विधान सभा में पहली बार कोई कश्मीरी पंडित प्रतिनिधि चुनकर नहीं आया। आता भी कैसे! हालत एक अनार सौ बीमार की जो थी। आपस में कोई तालमेल बनाये बिना न केवल इलेक्शन अपितु अपने सारे कानूनी अधिकारों से वंचित हो कर अपने घरों में बैठ कर डींगें मारने और चीखने-चिल्लाने को राजनीति कह कर काम करने वालों का इस से अच्छा अंजाम और क्या हो सकता है।

कितने अफसोस की बात है कि अपने आप को बहुत बुद्धिमान समझने वाली कौम को अपने लिए राज्य की विधान सभा में एक-आध सीट सुरक्षित करवानी नहीं आती। कोई कुछ सुझाता है तो कोई कुछ और में ही अपनी भलाई देखता है। यह नहीं कि सारे जने मिल बैठ कर कम से कम किसी ऐसे कार्यक्रम पर सहमत हों जिस में हम सब की भलाई नज़र आती हो। क्या ऐसा करना वास्तव में कोई मुश्किल या जटिल कार्य है? अगर हम सब की एक जैसी समस्या है तो क्या निवारण अलग अलग हो सकते हैं? वास्तव में वर्तमान चुनावों ने यह साबित कर दिया कि बिना किसी सामयिक दृष्टिकोण के बावलों की तरह चुनावों में कूदना राजनीतिक अपरिपक्वता के सिवा और कुछ नहीं कहलायेगा। इस में अपनी छवि खराब करने के सिवा और क्या हासिल होना था।

44 उम्मीदवारों की सोच पर तरस आता है जिन्होंने साधरण से चुनावी गणित पर भी ध्यान नहीं दिया और रेस में कूद पडे। खैर! यह तब होना ही है जब सारी कौम नेतृत्वविहीन हो जाती है। जब सोच का दायरा या तो सिकुड़ जाता है अथवा छिन्न-भिन्न हो कर भटक जाता है। इस में किसी बाहरी आदमी या सियासी दल को दोष देना उतना ही गलत होगा जितना कि इन उम्मीदवारों को जिन्होंने इलेक्शन में भाग लिया। किसी हद तक इस के लिए वो परस्थितियां अधिक जिम्मेदार हैं जिन में हमारी सारी अस्मिता धकेली गई है। यह लगातार की अनिश्चता को कोई निश्चित रूप देने का एक हड़बड़ाया और छटपटाया स्वर देने की कोशिश है। हमारे नवजवान भी देश की राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए उसी प्रकार उत्सुक और बेकरार हैं जिस तरह से राज्य के बाकी लोग हैं। पर हमारी भूमि ढह गई है और हमको कहीं पैर टिकानी जितनी स्पेस भी अपने राज्य में प्राप्त नहीं हो पा रही है। कश्मीरी पंडित की राजनीतिक उपस्थिति जताने का यह तरीका यद्यपि सफल नहीं रहा पर यह इस बात की अनिवार्यता की और इशारा अवश्य करता है। कि इस पर सोचने की अत्यन्त आवश्यक्ता है। एक साथ मिलबैठ कर अपने भाग्य पर विचार विमर्श की अत्यन्त आवश्यक्ता है। व्यक्तिगत अहं और हित से ऊपर उठ कर समूहगत स्वरूप पर नजर डाल कर एक नीतिगत एवं व्यावहारिक सोच को दिशा देने की आवश्यक्ता पर बल देने का समय । हमारे सामने एक ठोस कार्यक्रम पर सहमति पैदा करने की चुनौती का समय है। सारे संगठनों को न्यूनतम कार्यक्रम पर सहमत हो कर अपनी दिशा तय करने का प्रबल समय सामने है।

हमारे सामने दो प्रकार की समस्यायें मुख्य रूप से खड़ी हैं। एक हमारे दैनंदिन जीवन से जुड़ी समस्या है जिसका स्वरूप और विस्तार हमारी विस्थापन की दुर्दशा में निहित है और दूसरी समस्या कश्मीर वापसी की है जो कि मूल रूप से कश्मीर की समस्या से जुड़ी है। अब जबकि भारत सरकार ही खुद कह रही है कि कश्मीर समस्या का समाधान होना लाजमी है तो समस्या के चलते कश्मीरी पंडितों की वापसी की बात करना ही बेमायनी है क्यों कि ऐसी अनिश्चित स्थिति जिसमें कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा खतरे में पड़े रहने का भय और संभावना निरंतर बनी रहेगी वापसी के अनुकूल नहीं कहलायेगी और वापसी जब तक सम्मानजनक रूप में नहीं होगी तब तक यह केवल औपचारिकता ही कहलायेगी। इस बीच कश्मीरी पंडितों को सरकारी नौकरियों और पदों पर नियुक्त करने के लिए कश्मीर में पोस्टिंग की शर्त जोड़ कर इन्हें जबरन वहां भेजना एक समस्या को हल करते सौ अन्य समस्यायें खड़ी कर देता है। इस समस्या का हल ढूंढ़ना बेहद लाजमी बन जाता है जहां उन्हें नौकरी के लिए कश्मीर की पोस्टिंग अनिवार्य की जाती है और उन्हें और उनके परिवार को अनेक जोखिम और तकलीफ उठाने पडते हैं। अधिक्तर लोग तब तंग आकर ये सरकारी नौकरिया त्याग कर इस तरह इन पदों का अहित करते हैं। और शायद इसी की ताक में घाटी के कुछ अवसरवादी तत्व इस तरह के बन्दोबस्त को प्रश्रय दे रहे हैं क्यों कि इन खाली पदों को अन्ततः वहीं के लोगों से भरा जाता है।

 

इस लिए आवश्यक्ता है एक संपूर्ण की जो वर्तमान स्थिति से निपटने में सक्षम हो जिस में आवास 'कैंप नानकँप दोनों के लिए स्वास्थ, रोजगार, शिक्षा और अन्य सुविधायें जो पहले से चालू हैं उन में और सुधार। इन बातों के लिए यदि सब एकजुट हो कर अपना एक साझा चुनाव घोषणापत्र ले कर सामने आयेगे तो क्या आपित है। क्यों अलग थलग कोशिशों में समय और शक्ति को जाया करते हैं। कुछ अहम मुद्दों को अपना कर इन्हें ही अपना नेता मान ले और एक स्वर में अपनी बात कहें तो निश्चित रूप से बात बनेगी, बिगडेगी नहीं।

 

चुनाव के बाद की परिस्थितियों को देखते हुए मन में यह विचार आता है कि हमें भी आत्ममथन करना चाहिए और जैसा कि कहते हैं कि दूध का जला हुआ छाछ भी फूक- फूक कर पीता है। हमारे साथ भूतकाल में भी कई बार वायदे किए गए आश्वासन दिए गए. योजनाए बनाई गईं, परंतु सत्य यह है कि हम में से अधिकाश लोग विस्थापन के बाद से करीब 20 वर्ष गुजरने के बावजूद भी अभी तक जीवन में समल नहीं पाए हैं अर्थात् कहीं भी पूरी तरह से बस नहीं पाए हैं।

पूरे समाज में एक बिखराव है। कई लोग विशेष रूप से जम्मू में अभी तक कैंपों में रहकर अमानवीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आज के युग में जहा मानव अधिकारों पर इतना अधिक बल दिया जा रहा है, वहा नई सरकार को भी हम विस्थापितों के मानव अधिकारों के हनन का कोई समाधान ढूंढना चाहिए। 20 साल गुजर चुके हैं। हमारी सुध लेने के लिए पिछले बीस साल में कोई नहीं आया। अब एक आशा इस बात बंध गई है कि नेशनल कांफ्रेंस ने एक कश्मीरी पंडित को मंत्रिमंडल में शामिल करने की घोषणा की है। किसको शामिल किया जाएगा यह तो घोषणा नहीं हुई परंतु समुदाय में यह चर्चा हो रही है कि ऐसे व्यक्ति को कश्मीरी पंडितों का प्रतिनिधि बनाकर मंत्रिमंडल में शामिल किया जाना चाहिए जिसने अपना पूरा जीवन ही समुदाय की सेवा में व्यतीत किया हो।

हमारा तो अनुभव यह है कि कश्मीरी पंडित पहले भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी और जम्मू-कश्मीर राज्य के मंत्रिमंडल में भी रहे हैं, परंतु आज कई लोगों का यह मानना है कि वह अपने समुदाय के लिए कुछ भी नहीं कर सके। नई सरकार से यह उम्मीद है कि वह ऐसा वातावरण प्रदान करेगी जिसमें कश्मीरी पंडितों का प्रतिनिधि इस प्रथा को तोड़ सकेगा।

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साभार:- महाराज शाह एंव जनवरी  2009, कौशुर समाचार