भारत की भूलों का खामियाजा भुगतता कश्मीर

- भारत की भूलों का खामियाजा भुगतता कश्मीर




भारत की भूलों का खामियाजा भुगतता कश्मीर

भानु प्रताप शुक्ल 

कश्मीर विवाद के मूल कारणो को रेखांकित कर रहे लेखक कह रहे हैं कि कश्मीर में समस्या इसीलिए उत्पन्न हुई है क्योकि शुरू से ही स्वयं भारत के नीति नियंताओं ने कश्मीर को मजहबी राजनीति के जााल में उलझा दिया गया और अमेरिका पकिस्तान के कुत्सित इरादों की इनदेखी कर दी गई

यदि कश्मीर को मजहबी राजनीति के जाल में न फंसाया गया तो कश्मीर समस्या नाम की कोई चीज पैदा ही नहीं हुई होती और यदि वहां कोई समस्या उत्पन्न होती या कोई कश्मीर में समस्या पैदा करने का प्रयस करता, उसे समस्या न बनाया गया होता तो अब तक वह समस्या कभी की सुलझ गई होती। यदि भारत की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में मुस्लिम तुष्टीकरण की फिरकापरस्ती का जहर न घोला गया होता तो कश्मीर जैसी समस्याएं या तो पैदा ही न हुई होतीं और यदि पैदा होत भी तो देश की राष्ट्रीय जीवनधारा उसे डुबा देती। यदि देश के साम्यवादियों और संप्रदायवादियों के बीच सांठगांठ न हुई होती तो पाकिस्तान बन जाने के बाद मुस्लिम फिरकापरस्ती ने कश्मीर को अपनी खुराक बनाने की हिम्मत न की होती।। यदि देश की सेकुलरी राजनीति के झंडावाहक राजनीतिज्ञों और देश को अलग-अलग संस्कृतियों और कई राष्ट्रों का जमघट मानकर राष्ट्रीय एकता के लिए देशघातियों की मनुहार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन छद्म बुद्धि जीवियों ने न किया होता तो शेख अब्दुल्ला ने स्वतंत्र कश्मीर का सपना न देखा होता। यदि राष्ट्र और राज्य विषयक हमारी अवधारणा भ्रष्ट न की गई होती, यदि हम राष्ट्र और राज्य का अंतर समझते होते, यदि हमें भारत का अनेक राज्यों वाले राष्ट्रसत्य का ज्ञान होता तो कश्मीर समस्या न बना होता; यदि हमने भारत देश का यह राष्ट्रसत्य स्वीकार कर लिया होता कि इसका जन्म पंद्रह अगस्त 1947 को नहीं हुआ है, बल्कि यह एक अति प्राचीन राष्ट्र है इतना प्राचीन - कि जब इसका जन्म हुआ था तब दुनिया केदूसरे देशों में रह रहे लोगों को आंख भी नहीं खुली थी, कि जब हम भारत के लोग लोक संस्कार द्वारा विश्वमंगल के लिए जीवनदर्शन और संस्कृति का निर्माण कर रहे थे, जब भारत का अभौतिक और भौतिक विकास और यहां की संस्कृति शिखर पर थी तब आज के तथाकथित सभ्य देशों के लोग अपने शरीर पर गुदना गुदाएं और गुप्तांगों को पत्ती-छालों से ढककर कंदराओं में रह रहे थे, जब हम अपने "गणदेवता" को छप्पन प्रकार का व्यंजन भोग लगाकर प्रसाद बांट और प्राप्त कर कर रहे थे तब वे लोग कच्चा मांस खाकर अपना उदर भरण कर रहे थे, तो न भारत का विभाजन हुआ होता और न ही कश्मीर और उसके जैसी दूसरी समस्याओं का जन्म हुआ होता। यदि देश के आजाद होने के साथ ही यहां के सभी संप्रदायों और विचारधारा वालों ने एक साथ मिलकर अयोध्या, काशी और मथुरा में आक्रमणकारियों द्वारा तोड़े गए मंदिरों का पुनः निर्माण करके भारत को अतीत और वर्तमान के अपमान और पराजय के कलंक से मुक्त कर दिया होता तो देश में सांप्रदायिक शत्रुता का अभी अंत हो गया होता और नवनिर्मित इन मंदिरों ने भारतमाता का बड़ा मंदिर तोड़े जाने का दुःख भी भुला दिया होता। यदि यह कार्य हो गया होता तो भारत में पनपाई गई और पनप रही समानांतर राष्ट्रीयता दुर्बोध का अंत हो गया होता और तब कश्मीर को समस्या बनाने वाला कहीं कोई दिखाई ही नहीं देता क्योंकि यह सब नहीं हुआ, इसे नहीं होने दिया गया और सुनियोजित ढंग से भारत की सनातन जीवनधारा में विभाजक विष घोला गया इसलिए कश्मीर को तो समस्या बनना ही था, बना भी और इसी कारण उसे समस्या बनाकर रखा भी जा रहा है।

 

दुर्योधनी प्रवृत्ति

ऐसा नहीं है कि कश्मीर समस्या का कारण और उसके निराकरण का उपाय किसी को पता नहीं है। इसका पता उन सभी को है, जिन्होंने इस समस्या को जन्म दिया उन्हें भी, जो इसको समस्या बनाकर रखना चाहते हैं उन्हें भी और जो इस समस्या को समाप्त करने के लिए इसके जन्म होने की आशंका के समय से ही जूझ रहे हैं उन्हें भी, इसका पूरा ज्ञान है, फिर भी यह समस्या सुलझने की बजाय हर दिन उलझती जा रही है तो केवल इसलिए कि हमारे देश के नेता उस दुर्योधनी प्रवृत्ति का शिकार है जिसकी कोख से "जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्ति, जानामि अधर्मम् न च मे निवृत्ति"

सुभाषित का जन्म हुआ था। प्रश्न कश्मीर समस्या के समाधान का कम, प्रवृत्ति और निवृत्ति का अधिक है। मजहबी वोट राजनीति की जो कील देश की छाती में ठोक दी गई है उसे अब उखाड़े कौन? निश्चित ही उसे वे नहीं उखाड़ेंगे, जिन्होंने उसे गाड़ा है और हम हैं कि उन्हीं से यह आशा किए बैठे हैं कि वे ही इस कील को उखाड़ेंगे। देशवासी खुश हैं और खुश होने की बात भी है कि भारतीय संसद में उनके गृहमंत्री श्री चव्हाण ने कश्मीर की एक दुः खती रग पर अंगुली रख दी कि "कश्मीर को अराजकता और आतंक की आग में झोंकने एवं बनाए रखने में अमेरिका का निहित स्वार्थ है, इसके पीछे उसका हाथ और समर्थन है।" यह एक ऐसा सच है जिसे देशवासी गत अड़तालीस वर्षों से सुनते- जानते आए हैं, जिसे बताने और सिद्ध करने के लिए हजारों लोग अपनी जान जोखिम में डाल चुके हैं और सैकड़ों लोग अपनी जान से हाथ धो चुके हैं। यह ऐसी सच्चाई है जिसको स्वयं अमेरिका भी कई बार उजागर कर चुका है तो भी भारत सरकार अब तक चुप रहती आई थी तो क्यों? और अब क्यों बोले उसके गृहमंत्री? सोवियत रूस के बिखराव के बाद जब विश्व राजनीति में अमेरिका एक ध्रुवीय महाशक्ति बना तो पहले से चली आ रहीं उसकी गतिविधियों का तीव्र होना स्वाभाविक था। न पाकिस्तान को अमेरिकी सामरिक सहायता नई बात है और न भारत को सदा अरदब में रखने के लिए पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध उकसाते रहने की रणनीति। अमेरिकी विदेश विभाग की सहायक मंत्री राबिन राफेल जो कुछ कह और बोल रही हैं, शब्द अलग थे, किंतु पचास के दशक में अमेरिकी विदेश मंत्री रहे जान फास्टर डलेस भी भारत पाकिस्तान संबंधों के संदर्भ में कश्मीर को बार-बार खींचते और इसी प्रकार बोला करते थे। तब डलेस को नेहरू प्रणीत कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का हथियार मिला था तो अब राफेल को नरसिंहराव की निष्क्रिय और भयातंकित राजनीति का बल मिला हुआ है। कश्मीर समस्या जिस मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का परिपाक है, वहीं मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति समस्या के समाधान में बाधक बनी हुई है। हमारे गृहमंत्री ने जो कहा वह सच कहा है और सरकारी स्तर पर देश के सर्वोच्च मंच से कहा, किंतु संदेह है तो केवल देश का जनमत जानने के लिए उन्होंने यह तथाकथित रहस्योद्घाटन किया है? क्योंकि इस वक्तव्य के अतिरिक्त भारत की सरकार से ऐसा कोई और संकेत नहीं मिला है। कि देश की इस गंभीर समस्या का समाधान करने के लिए वह कोई संतोषजनक कदम उठाने की सोच रही है।

 

अमेरिका-पाकिस्तान

स्थिति यह है कि कश्मीर में अमेरिका-पाकिस्तान का संयुक्त मोर्चा लगा हुआ है और चुनाव आयोग के इस आकलन के बावजूद कि वहां की परिस्थिति शांतिपूर्ण और निष्पक्ष चुनाव कराने लायक नहीं हैं, भारत की कांग्रेसी सरकार कश्मीर में चुनाव कराने पर आमादा है। भारत के गृहमंत्री का चुनाव कराने संबंधी का तर्क यह है कि वहां चुनाव कराकर वह पाकिस्तान के उन षड्यंत्रों को विफल करना चाहते हैं जिनमें कश्मीर में चुनाव न कराने देना एक प्रमुख षड्यंत्र है। लोकतंत्र के प्रति भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि आवश्यक है। वह भारत के कश्मीर के भाग्य का फैसला वहां की चुनी हुई सरकार के हाथों में सौंपना चाहते हैं कि वे ही यह तय करें कि उन्हें मुख्यमंत्री चाहिए कि वजीरे आजम; राज्यपाल चाहिए कि सदरे रियासत । अपनी उस स्वायत्तता की मर्यादा का निर्धारण भी वे ही करें, जिसे आजादी का नाम भले नहीं दिया जाएगा, किंतु वह आजादी से कम नहीं होगा। भारत सरकार जिस अमेरिका को कश्मीर समस्या को उलझाने और उलझाए रखने के लिए दोषी मानती है, उसका इरादा भी तो यही है। अमेरिका और पाकिस्तान दोनों यह चाहते हैं कि कश्मीर में चुनाव अवश्य हों और तत्काल हों। पाकिस्तान कश्मीर में चुनाव इसलिए चाहता है कि उसके प्रतिनिधि एजेंट चुनाव जीतकर वहां सरकार का गठन करें और उनकी गतिविधियों को संवैधानिकता प्राप्त हो जाए कि वहां की जनता की ओर से स्वतंत्र कश्मीर की मांग उठाकर उसे भारत से अलग करने का आंदोलन तेज किया जा सके। इसके कारण विश्व बिरादरी में भी पाकिस्तान के कश्मीर पक्ष को बल मिलेगा। इसी की पुष्टि करता है राबिन राफेल का यह वक्तव्य कि "जम्मू कश्मीर के चुनाव उन लोगों को भी लड़ने देना चाहिए जो भारतीय संविधान को नहीं मानते और जिन्हें आतंकवादियों का और आतंकवादियों को जिनका समर्थन प्राप्त है।' अतएव वस्तुपरक आकलन किए बिना यदि चुनाव कराए गए तो इसके कारण कश्मीर को पाकिस्तान की ओर धकेलने की प्रक्रिया तेज होगी, सरकारी संरक्षण में अराजक, आतंकी और पाकिस्तानपरस्त लोगों को खुलकर खेलने की छूट मिल जाएगी और तब केंद्रीय सरकार कुछ कहना चाहेगी तो उसे कश्मीर राज्य में केंद्र का हस्तक्षेप कहकर दुनिया भर में गुहार की जाएगी कि "भारत कश्मीर को निगल और हड़प जाना चाहता है।"

खतरनाक इरादे

अमेरिका और उसके " आर्थिक परिवार" के देश भारत को तोड़ने पर आमादा हैं उन्होंने पाकिस्तान के माध्यम से कश्मीर को इस विघटन का आधार बना रखा है। कश्मीर समस्या के बहाने से भारत की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप करके वे इसकी भौगोलिक अखंडता को टुकड़े-टुकड़े में तोड़ने की अपनी योजना को अमली जामा पहनाना चाहते हैं। ब्राउन संशोधन स्वीकार करके अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को दी जा रही सैन्य सामग्री और भारत को सैन्य सामग्री देने पर अमेरिकी रोक इसी रणनीति का अंग है। भारत के एक बहुत बड़े उद्योगपति ने अमेरिका के वाणिज्य सचिव के साथ अपनी बातचीत का जो विवरण अपने एक मित्र को दिया वह बहुत ही चिंताजनक और खतरनाक है। उक्त भारतीय उद्योगगति ने अमेरिका के वाणिज्य सचिव से पूछा था कि आप लोग दुनिया के भिन्न-भिन्न देशों को किसी न किसी आर्थिक हित समूह के साथ जोड़ रहे हैं, किंतु भारत को किसी ग्रुप में शामिल करते दिखाई नहीं देते?" उनका उत्तर था-" भारत की राष्ट्रीय अस्मिताएं अभी स्पष्ट नहीं हैं। अलग-अलग अस्मिताओं के आधार पर इसके अभी अनेक टुकड़े होने हैं। ऐसा होने तक हम प्रतीक्षा करेंगे और तब यह निश्चित करेंगे कि किस टुकड़े को किस ग्रुप के साथ संबद्ध करना है।" प्रश्न केवल कश्मीर समस्या के समाधान का या कश्मीर में चुनाव न कराने का नहीं है, प्रश्न है भारत के एक और अखंड राष्ट्र बने रहने और बनाए रखने या उसके टूटने और तोड़ दिए जाने की साजिशों के सफल होने या उन्हें असफल कर देने का। अमेरिका जो कार्य अफगानिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में कर और करा रहा है वही कार्य वह भारत में भी करना और कराना चाहता है। जो लोग भारत की कांग्रेसी राजनीति के मूलाधार हैं, अमेरिका के हस्तक भी ये ही हैं।

स्वाधीनता से कम स्वायत्तता या धरती से आकाश तक कश्मीर को आजादी के अतिरिक्त कुछ भी देने की जो घोषणा प्रधानमंत्री जी ने की उसके विषय में अपने सुरक्षा विशेषज्ञों और देश की अखंडता के विषय में बहुत ही गहराई तथा गंभीरता के साथ सोचने वालों की राय लेने वालों की कोशिश नहीं की गई। यदि यह कोशिश की गई होती तो वहां चुनाव कराने की जल्दबाजी न दिखाई जाती। सुरक्षा संबंधी विश्लेषकों और विचारकों का कहना है कि "अमेरिका अफगानिस्तान की तरह ही कश्मीर में भी मजहबी कट्टरपंथियों को उकसा रहा है। यदि कश्मीर को आजादीवत स्वायत्तता प्रदान कर दी गई तो वह सामान्य नहीं, एक ऐसा कट्टरपंथी मजहबी राज्य होगा जहां बाहर के आतंकवादी मनमानी करेंगे और अंदर के कट्टरपंथी शिया-सुन्नी और हिंदुओं के बीच हिंसा-हत्या और दंगा कराकर गृहयुद्ध आरंभ कराएंगे।" इस तथ्य को अमेरिका भली-भांति समझता है, किंतु यह भारत सरकार की समझ में न जाने क्यों नहीं आता और यदि भारत सरकार तथा यहां के सेकुलरिस्ट इस बात को समझते हैं जो जान-बूझकर अनजान क्यों बने हुए हैं। सऊदी अरब और पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के आतंकियों की जा रही सहायता और दिए जा रहे प्रशिक्षण की ओर से अमेरिका द्वारा आंख मूंद लिए जाने के संकेत का अर्थ समझने के लिए बहुत गहराई में उतरने की जरूरत नहीं है तो भी भारत सरकार उस ओर से उदासीन है। इस विषय में बात वक्तव्य से आगे नहीं बढ़ती या बढ़ाई जाती तो क्यों?"

 

कश्मीर समस्या कैसे सुलझे

भारत सरकार और यहां के मुस्लिम वोटपरस्त सेकुलरिस्ट यह कहते नहीं थकते-अघाते कि कोई ऐसी बात न की जाए कि देश की एकता-अखंडता के संदर्भ में दुनिया के देशों को गलत संकेत और संदेश जाए। कौन हैं वे लोग जो लगभग पांच दशक से यह संकेत और संदेश दुनिया को देते आ रहे हैं कि भारत के लिए कश्मीर एक समस्या है? कश्मीर को भारत से अलग बताने-दिखने-दिखाने का सांविधानिक प्रावधान किसने किया? संविधान की धारा 370 के अंतर्गत शेष देश की तुलना में विशेष दर्जा देकर उसे दिखाने का संदेश क्या है? वहां मंदिर-मस्जिद तोड़ने बनाने की नौबत क्यों आई? कश्मीर घाटी के हिन्दू विस्थापित और वहां के मुसलमान स्थापित क्यों हैं? कश्मीर को भारत से अलग करके वहां सामान्य स्थिति बहाल करने की मुहिम क्या संकेत देती है? कश्मीर में छेड़े गए जेहाद को अपराधी तत्त्वों का कारनामा घोषित करके किसे भुलावा दिया जा रहा है? बंदूकों की छाया में हुई अमरनाथ यात्रा को सामान्य स्थिति का प्रमाण बताने में किसके लिए क्या संकेत और संदेश दिया जा रहा है? गृहमंत्री ने कहा है कि कश्मीर घाटी के विस्थापित अपने घर वापस जाना चाहें तो वापस जा सकते हैं, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि सुरक्षा बलों के घेरे के बिना जहां गृहमंत्री और राज्यपाल भी नहीं जा सकते वहां विस्थापित कैसे जाएं और रह सकते हैं? वे वहां कैसे जा और रह सकेंगे? गत छः वर्षों में जिस जम्मू कश्मीर की घाटी में जाने का साहस कोई भी प्रधानमंत्री नहीं कर सका, विस्थापितों को वहां जाने के लिए कहने का क्या तुक है? कश्मीर को बारबार विशेष वित्तीय सहायता की घोषणा पर क्या देश के दूसरे राज्यों को यह प्रश्न पूछने और उत्तर पाने का हक है कि अब तक उसे कितने हजार या लाख करोड़ रुपए का अनुदान दिया गया और उसका कहां और कैसे उपयोग किया गया? सरकारी आंकड़े कहते हैं कि अब तक कश्मीर को नब्बे प्रतिशत अनुदान और केवल दस प्रतिशत ऋण दिया जाता रहा है, जबकि दूसरे राज्यों की स्थिति इसके ठीक विपरीत है। मंत्रिमंडल की बैठकों के समाचार भी बिना बताए छप जाते हैं तो भी गृहमंत्री जी विपक्षी दलों से कश्मीर समस्या के विषय में बातचीत इसलिए नहीं करते कि बैठक का समाचार समय से पहले प्रकाश में आ जाने से उसका विपरीत परिणाम होता है। विपक्ष के प्रति अविश्वास के इस प्रदर्शन में भी कोई संदेश और संकेत है कि नहीं? विरोध कश्मीर में चुनाव कराए जाने का नहीं, विरोध है कश्मीर को चुनावी राजनीति के चक्कों में पीछे जाने का प्रश्न समय का है और समझ का भी प्रश्न यह है कि कश्मीर समस्या कैसे सुलझे, उसे कैसे सुलझाया जाए, सांविधानिक स्तर पर उसे अलग रखकर व्यावहारिक स्तर पर उसके साथ विशेष व्यवहार करके और राजनीतिक-आर्थिक स्तर पर शेष देश से काटकर कि देश के शेष राज्यों की तरह एक अभिन्न और सहजात अंग-अंश के नाते उसका भी पालन-पोषण करके? कश्मीर को अलगाववादियों के हाथों में सौंपकर और अमेरिका के कपट जाल में उसे फंसने देकर क्या वहां कौ समस्या का समाधान संभव है? यदि यह संभव है तो इस कांग्रेसी तरीके से यह समस्या जरूर सुलझ और सुलझाई जा सकती हैं। काश, जिस तरीके और सोच ने कश्मीर को समस्या बनाया और उलझाया है उसी तरीके से वहां की समस्या को सुलझाया जा सकता?

भारत की समस्या श्रीनगर वाला कश्मीर नहीं, पाकिस्तान के कब्जे में पड़ा मुजफ्फराबाद वाला कश्मीर है। यदि भारत सरकार और यहां के छद्म सेकुलरिस्ट पाकिस्तान अधिकृत गुलाम कश्मीर को आजाद कराने की मुहिम शुरू कर दें और अपने भारत के उस हिस्से को आजाद करा लें तो कश्मीर समस्या नाम की कोई चीज शेष ही नहीं रह जाएगी। तब प्रश्न रहेगा केवल पाकिस्तान का स्थाई हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के लिए पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित भारत की अखंड भौगोलिक-सांस्कृतिक राष्ट्रीय सत्ता अपरिहार्य है। योगी श्री अरविंद के शब्दों में-"यह कार्य एक दिन होना ही है और होकर ही रहेगा और तभी भारत में सांप्रदायिक भाईचारा बनेगा" यदि यह कार्य होना ही है तो भारत के हिन्दू मुस्लमान दोनों मिलकर कश्मीर से ही यह कार्य प्रारम्भ क्यों न करें कि राष्ट्रीय अखंडता और सांप्रदायिकता शत्रुता का प्रश्न सदा सदा के लिए सुलझ जाएं ।

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साभार:- भानु प्रताप शुक्ल एवं मार्च 1996 कोशुर समाचार