महाराज विक्रमादित्य
बाबू लाल वर्मा
महाराज विक्रमादित्य - जिनके राजतिलक से विक्रम संवत का श्री गणेश हुआ अपार प्रजा वत्सल गौ रक्षक कृषि विशेषज्ञ परम पराक्रमी अखण्ड हिन्दू राष्ट्र के चक्रवर्ती समा्रट शकारि
भारतीय ज्योतिष और गणित शास्त्र के अनुसार काल गणना के आधार पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन मानव सृष्टि का आविर्भाव हुआ था। तब से अब तक १अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, ९४ बार पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा चुकी है। इस दीर्घकाल में चारों युग (सत्युग, त्रेता, द्वापर कलियुग) के २८ कालचक्र (युग) बीत चुके हैं और कलियुग के २७ युग (चक्र) पूर्ण होकर वर्तमान युग में ५०९५ वर्ष पूरे हो रहे हैं। जब से इस धरती पर प्राणियों की सृष्टि का जन्म हुआ है-अभी कलियुग के २८वें कालचक्र में (युग के) २ लाख, ६९ हजार, ९१० वर्ष और शेष हैं। कालगणना की यह वैज्ञानिक विधा भारतीय गणित और ज्योतिष शास्त्र के आधार पर की गई है।
आज भी भारत का हिन्दू समाज धार्मिक, सामाजिक और मांगलिक कार्यों के शुभ अवसर पर संवत् और भारतीय तिथियों का प्रयोग करता है। हिन्दू धर्म-शास्त्रों में कालगणना का चलन युगों-युगों से रहा है जिसका विवेचन शोध और अन्वेषण बहुत बारीकी और वैज्ञानिक ढंग से किया गया है। संकल्पित मांगलिक कार्यों के अवसर पर कल्पमन्वन्तर युगादि से लेकर संवत्, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र, ग्रह आदि का मंत्रोच्चार शुभ माना जाता है। भारतीय काल गणना के अनुसार कल्पमन्वन्तर युगादि के बाद संवत्सर का प्रयोग किया जाता है। घड़ी, पल, विपल, क्षण आदि का सूक्ष्म ज्ञान भारत के मनीषियों ने प्राप्त कर लिया था।
आज से २०५० वर्ष पूर्व भारत पूर्ण वैभव पर था, धन-धान्य से भरपूर था, देश में किसी वस्तु का अभाव न था। लोग चोरी नहीं करते थे और न घूसखोरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार था। वह भारत का स्वर्ण युग था। उसी समय महान चक्रवर्ती सम्राट महाराज भर्तृहरि ने युवावस्था में ही राजपाट छोड़कर संन्यास धारण कर लिया। उनके साथ प्रजाजनों में कुछ लोग संन्यासी हो गए जिनके वंशज आज भी गेरुआ वस्त्र पहनकर, सारंगी बजाकर रानी शानदेया की विरह-वेदना के गीत गाकर भिक्षाटन करते गांवों में देखे जा सकते हैं। जिन्हें लोग 'जोगी बाबा ' के नाम से जानते हैं। गोवंश विकास परिरक्षण एवं संवर्धन के लिए सूर्यवंशी (रघुवंशी) भगवान राम के पूर्वजों ने एक विशाल प्रयोगशाला 'गोरक्षपीठाधीश्वर' के नाम से स्थापित की थी वही आज की गोरखपुर (गोरखपुर) नामक नगरी है, जिसके तत्कालीन गोरखपीठाधीश थे महान ऋषि मोखेन्द्रनाथ (जितेन्द्रिय)। प्रिय शिष्य महाराज भर्तृहरि बन गए। फलतः उसकेलघुभ्राता महाराजविक्रमादित्य (सूर्यवंशी) गद्दी पर बैठे। जिस दिन उनका राजतिलक हुआ- वह चैत्र शुक्ल १, वर्ष प्रतिपदा का पावन दिवस था। उसी दिन से विक्रम संवत् का शुभारम्भ हुआ।यह संवत् कलि संवत् के ३०४४ वर्ष बाद तथा शाके शालिवाहन संवत् के १३५ वर्ष पूर्व तथा सन ईसवी के ५७ वर्ष पूर्व हुआ था। सम्राट विक्रमादित्य ने ३५ वर्ष राज किया। ये अत्यन्त वीर, पराक्रमी, यशस्वी प्रजापालक और प्रकाण्ड विद्वान थे। वे कृषि पंडित गोवंश विशेषज्ञ और महान कृषि वैज्ञानिक थे। उनके शासन में कोई विधायक नहीं बन सकता था- यदि वह हल'चलाना न जानता हो। उनके राज्य में ओलावृष्टि आदि प्राकृतिक प्रकोष नहीं होता था। यादों में जमी बर्फ को वैज्ञानिक प्रक्रिया द्वारा पिघलाकर वर्षा कराने की क्षमता प्राप्त कर ली थी।
कहते हैं कि सम्राट विक्रमादित्य मुस्कुरा दें तो घटना घिर आएं और खिलखिलाकर हंस पड़े तो घनघोर वर्षा होने लगे। उनके नवरत्नों (मंत्रिपरिषद्) में चाथ-भड्री और कालिदास जैसे कृषि विशेषज्ञ और प्रकाण्ड विद्वान थे। कृषि और गोवंश विज्ञान और मौसम ज्ञान की घाघ भट्टरी की लोकोक्तियां आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित हैं, विदेशों में भी उन पर शोध-कार्य हो रहा है। उस काल में गोवंश का इतना अधिक विकास हुआ था कि प्रति व्यक्ति पांच गोवंश का औसत था और प्रति व्यक्ति एक जीतल = पांच लीटर दूध का औसत था। प्रति गाय पांच जीतल दूध का औसत था। पर आज पांच व्यक्तियों पर एक गोवंश का तथा ११० ग्राम दूध का प्रति व्यक्ति औसत है। उस समय गोवंश की खाद का १५० कुन्तल प्रति बीघा वर्ष में दो बार का औसत था।
सम्राट विक्रमादित्य के राज्य में गोवंश और कृषि का तेजी से विकास हुआ जिससे देश की उर्वरा वसुन्धरा धन-धान्य परिपूर्ण हो गई और प्रजा (जनता) सुखी सम्पन्न बन गई। उन्होंने कश्मीर से कन्या कुमारी और हिन्दूकुश से ब्रह्मदेश तक समूचे विशाल बृहत्तर भारत को एकता के सूत्र में पिरोकर शक्तिशाली अखण्ड राष्ट्र खड़ा कर दिया। हूण शकादि विदेशी आक्रमणकारियों और समुद्री दस्युओं (डाकुओं) को अपने पराक्रम और जन-शक्ति से पराभूत कर देश की सीमाओं को पूर्ण सुरक्षित बना दिया। वे अपने समय के चक्रवर्ती सम्राट बन गए और सारा जीवन प्रजा की सेवा में लगा दिया। पारिवारिक जीवन-यापन के लिए प्रजा के धन का उपयोग नहीं किया। कभी राजकोष का धन अपने सुख के लिए उपयोग नहीं किया। पारिवारिक जीवन चलाने के लिए भूमि के थोड़े से हिस्से में कृषि कार्य कर अरोत्पादन कर स्वर्ष उसी का सेवन करते थे। वित्रा नदी से स्वयं पानी भरकर लाते-ऐसे गये थे संयमी सन्यासी। कहते हैं कि उन्होंने जनता का सारा ऋण संचित राजकोष के धन से चुका दिया और सारी प्रजा को कर्जमुक्त बना दिया। बताया जाता है कि उस काल में राजा को अपने नाम का संवत् चलाने के लिए शास्त्रीय नियम था कि संवत् तिथि से पूर्व अपने पूरे साम्राज्य में जितने लोग किसी के कर्जदार हों उनका ऋण राजकोष से चुका देना चाहिए। महाराज विक्रमादित्य ने इस नियम का पालन किया और सक्षम 'गुप्तचरों द्वारा पता लगाया कि किस पर कितना कर्ज शेष है। उसी अनुसार उन्होंने सबका ऋण राजकोष से चुका दिया। सम्राट विक्रमादित्य ने रामराज्य काल में स्थापित किए गए १२ ज्योतिर्लिंगों का पुनरुद्धार कराया और इनमें से श्रेष्ठ महाकालेश्वर (उज्जैन) और सोमनाथ मन्दिर (सौराष्ट्र) का पुनर्निर्माण कराकर प्रभासपाटन (प्रभास क्षेत्र) में 'लोलार्क आश्रम (सौर ऊर्जा की विशाल प्रयोगशाला) की पुनः स्थापन कराई। भगवान श्रीराम के पुत्र कुश द्वारा लाख, २८ हजार वर्ष पूर्व रामराज्य की स्थापना की स्मृति में अयोध्या में भगवान श्रीराम के जन्मस्थान (गर्भगृह) परस्थापित विशाल राम मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। भारत की पश्चिमी अन्तिम सीमा पर हिन्दूकुश के पास प्रथम शक्ति पीठ हिंशुलाकषमाता का मन्दिर तथा दूसरी शक्ति पीठ प्रह्म देश की सीमा पर कामाख्या देवी का मंदिर स्थापित किया। आराम से हिन्दुक (पेशावर) तक विशाल सड़क मार्ग बनाकर दोनों शक्ति पीठों को जोड़ दिया (आजकल उसे जी. टी. रोड कहा जाता है)। इस प्रकार भारत की सीमाओं को सामरिक दृष्टि से पूर्ण सुरक्षित बना दिया।
विक्रम संवत् उस स्वर्ण युग के गौरवमय इतिहास की पावन स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन मनाया जाता है। सम्राट विक्रमादित्य के समय कृषि और गोवा विकास के साथ सौर ऊर्जा' आदि सभी प्रकार के विज्ञान का विकास हुआ। मुम्बई से १३ किमी पूर्व सागर के मध्य एक टापू है जिसे आजकल एलीफैण्टा गुफा के नाम से पयर्टनस्थल के रूप में जाना जाता है। उस टापू की चोटी पर एक विशाल तोप रखी है। तोप इतनी विशाल है कि उसके अन्दर लेटकर मोटा आदमी भी आर-पार जा सकता है। उस तोप की मार २० योजन (एक योजन-१४ किमी ) तक है। उस काल में समुद्री दस्युओं और विदेशी शक हूण यवन हमलावरों से देश की सीमा सुरक्षा के लिए सम्राट विक्रमादित्य ने विशाल तोप का निर्माण कराया था जिसमें आज तक जंग नहीं लगी। उस समय के वृहत्तर भारत की तुलना में सम्पन्न देश दूसरा कोई नहीं था। धन-धान्य से भरपूर और वैभवशाली सम्पन्न देश बन जाने के कारण राजकीय कोष में अकूत धन जमा हो गया था। उनके शासनकाल के स्वर्ण युग की स्मृति में भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी और अनुकरणीय उदाहरण दुनिया के सामने प्रस्तुत है। समस्त कर्ज राजकोष से चुकता करने के बाद नवरत्नों (मंत्रिपरिषद) की मात्रा से ज्योतिषियों से परामर्श कर प्रयाग राज में वात्स्यायन भारद्वाज की अध्यक्षता में धर्मसभा (धर्म संसद) ने चैत्र शुक्ल १, वर्ष प्रतिपदा के दिन से सम्राट-विक्रमादित्य को अपने नाम का संवत्सर चलाने का अधिकार दिया था।
परम सौभाग्य की बात है कि १८८९ को वर्ष इतिपदा के दिन ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा केशवराव बलीराम हेडगेवार का जन्म जो हुआ। वर्ष प्रतिपदा के इस पावन पर्व पर देश के राजपुरुषों और सरकार से हम सब आग्रह करें कि जनवरी के बजाय स्वयं पूर्ण स्वावलम्बी भारत की स्थापनार्थ वर्ष प्रतिपदा को नव वर्ष का प्रारम्भिक दिन घोषित करें। उस दिन राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाए। राजसत्ता से हम मांग करें कि विदेशी २१वीं सदी में हमें ले चलने के बजाय कर्ज मुक्त भारत बनाने के लिए २०५० वर्ष पहले के युग से प्रेरणा लें जहां स्वर्णिम युग की ग्रामवासिनी भारतमाता बसती थी। भारतीय कालगणना के अनुसार तो २१वीं सदी कब की लग चुकी और उसकी अर्ध शताब्दी भी बीत गई।
वर्ष प्रतिपदा के दिन ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशवराव बलीराम हेडगेवार का जन्म भी हुआ। वर्ष प्रतिपदा के इस पावन पर्व पर देश के राजपुरुषों और सरकार से हम सब आग्रह करें कि जनवरी के बजाय स्वयं पूर्ण स्वावलम्बी भारत की स्थापनार्थ वर्ष प्रतिपदा को नव वर्ष का प्रारम्भिक दिन घोषित करें। उस दिन राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाए। |
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साभार:- बाबू लाल वर्मा एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य