ऐसे भी हुआ कश्मीर का इस्लामीकरण

- ऐसे भी हुआ कश्मीर का इस्लामीकरण




66 वचनेश त्रिपाठी साहित्येन्दु Op-Pan-00041994 ऐसे भी हुआ कश्मीर का इस्लामीकरण

 

शैव आचार्य देव यदि वह रिंचन को हिन्दू धर्म में दीक्षित कर लेता तो आज का यह जल रहा नंदन-वन कश्मीर मुस्लिम बहुल न होता और न एक रोज कश्मीरी पंडित, गुरु तेगबहादुर के पास यह अरदास लेकर दौड़ जाते 'हमारे युवकों को कश्मीर में औरंगजेब बलात् मुसलमान बना रहा है। आप हमारे धर्म की रक्षा करिए।' इसी धर्म की रक्षार्थ तो नौवें गुरु तेगबहादुर, भाई मतिदास, भाई दयाला आदि को दिल्ली में अपने प्राणों को उत्सर्ग करना पड़ा था।

जम्मू को छोड़ दें, तो शेष कश्मीर घाटी आज पाकिस्तानी दरिंदों के जबड़ों में फंसकर छटपटा रही है। श्रीनगर कभी भारत की प्राचीन उपासना-पद्धति 'श्रीविण' का प्रबल शक्तिपीठ था, जिसके कारण ही अभी तक इस शहर का नाम श्रीनगर' ही प्रचलित है। इस शत-प्रतिशत हिन्दू क्षेत्र कश्यपपुरी को 'कशीर' (कश्मीर) का मुस्लिम बहुल रूप लेने के पीछे जो अनेक कारण हैं उनको जानने के लिए हमें इतिहास के वे पृष्ठ पलटने होंगे जब वहां 'लहर जागीर' का हिन्दू राजा था- रामचन्द्र। आज तो यह अनेक लालबुझकड़ों के लिए अकल्पित ही है कि कश्मीर में रामचन्द्र वाले नाम के भी कोई शासक रहे होंगे ! परन्तु यह ऐतिहासिक सत्य है। यह राजा रामचन्द्र कश्मीर के लहर' क्षेत्र में सन १३२० में, अर्थात आज से कोई ६७४ वर्ष पहले राज्य करता था। उसकी रानी थी - देवीकोटा। परन्तु इस प्रसंग में कैसी अघटित घटना छिपी है कि इन्हीं रामचन्द्र और देवीकोटा की संतान का नाम पड़ा 'हैदर'। कैसी विडम्बना!

रिंचन की चाल

यह कैसे हुआ - वह इतिहास कश्मीर के ही एक संस्कृत कवि जोनराज ने अपनी कृति 'राजतरंगिणी' (द्वितीय) में प्रस्तुत किया है। यह 'राजतरंगिणी' कश्मीरी कवि कल्हण की 'राजतरंगिणी' नहीं समझ लेनी चाहिए - वरन उससे सर्वथा भिन्न ग्रंथ है। जोनराज भी कश्मीरी ही थे और वे 'लहरकोट' (कश्मीर ) के राजा रामचन्द्र के समकालीन थे। इसलिए उन्होंने अपने ग्रंथ में लहर क्षेत्र के उक्त हिन्दू शासक के विषय में जो कुछ साक्ष्य संजोए हैं, वे उनकी आंखों देखे हैं। कश्मीर के जोजीला परगना के निचले हिस्से में लहरकोट क्षेत्र आता था, रामचन्द्र उसी का ठिकानेदार था और उन दिनों कश्मीर का राजा सूहदेव था। इसका राज्यकाल सन १३०१ से १३२० तक माना जाता है।

इस राजा की लहरकोट के ठिकानेदार रामचन्द्र से कलह चल रही थी - उससे द्वेष बरतता था सूहदेव और किसी भी तरह उसकी स्वतंत्र सत्ता उसे सहन नहीं हो रही थी। उन्हीं दिनों एक भोट सरदार, जिसका नाम रिंचन था, ने राजा सूहदेव और लहरकोट के शासक रामचन्द्र की अनबन का पता लगा लिया और अपनी दुरभिसंधि क्रियान्वित करने लगा। उसने यह चाल चली कि अपने अनेक सैनिक जो भोट ही थे - व्यापार करने के बहाने कश्मीर में घुसा दिया। उन्होंने कश्मीर में आकर अपने को 'व्यापारी' प्रचारित करने में सफलता प्राप्त कर ली। सर्वप्रथम उन तथाकथित भोट व्यापारियों का प्रवेश रामचन्द्र के इलाके लहरकोट (जोजीला परगना) में ही हुआ। उन्होंने वहां अपने जासू सी अड्डे कायम कर लिए और धीरे-धीरे हथियारों का भी जखीरा लहरकोट में जमा कर लिया। साथ ही वे व्यापारी बनकर वहां के बाजारों में कपड़ा भी बेचते रहे ताकि उनके सैनिक तथा जासूस होने पर पर्दा पड़ा रहे।

रिंचन का उद्देश्य सिर्फ लहरकोट को हथियाने तक ही सीमित नहीं था, वस्तुतः उसकी कुटिल दृष्टि कश्मीर पर थी। परन्तु लहरकोट उस साजिश में बाधक था, क्योंकि वह बीच में पहरे की चौकी की तरह स्थित था, अड़ा था।

अतः जब रिंचन ने लहरकोट में बैठे अपने जासूसों से वहां के सब भेद प्राप्त कर लिए और प्रचुरशस्व-भण्डार जमा कर लिया-तब एक रोज मौका अनुकूल पाकर उसने अपनी फौज लहरकोट पर चढ़ा दी। रामचन्द्र चुप न बैठा वह भी सेना लेकर मैदान में आ गया और कंचन का सामना किया। भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन जो भी सैनिक दमवेश में व्यापारी बनकर लहरकोट की आस्तीनों में फनफना रहे थे, ऐन युद्ध के मौके पर उन्होंने भितरघात द्वारा लहरकोट की सुरक्षा में पलीता लगा दिया जिससे लहरकोट पतन के कगार पर जा पहुंचा और रामचन्द्र की सेना को अपार क्षति उठानी पड़ी। स्वयं रामचन्द्र युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

लहरकोट पर यह पहला हमला हुआ। कश्मीर नरेश सूहदेव मूकदर्शक बने रहे और मन ही मन गद्गदा गए कि लहरकोट को छीन ले रिंचन, तो रामचन्द्र को सबक मिल जाए। सूहदेव चाहता तो रिंचन का रास्ता रोक सकता था, परन्तु उसने जान-बूझकर उसे आगे लहरकोट तक बढ़ने दिया सोचा, इसमें मेरा क्या नुकसान?

राष्ट्र-रक्षा और ऐसे युद्ध के मौके पर यह मेरे तेरे' स्वार्थ और परस्पर की फूट विनाश के बीज बोती है। वही हुआ। लहरकोट पहली बार किसी पराये के हाथों में जाकर परवश और पराधीन हुआ। सूहदेव ने भयंकर भूल की। यह न सोचा कि बाहरी हमलावर जब कश्मीर में घुस रहा है तो खुद उसका क्या होगा, पूरा कश्मीर कैसे बचेगा? यों तो पहले से ही धीरे-धीरे रिंचन के काफी सैनिक 'वस्त्र व्यापारी' बनकर कश्मीर घाटी में डेरा जमा चुके थे और अब वह सैन्य आगे बढ़ रहा था। आखिर उसका निशाना सूहदेव भी बन गया। सूहदेव प्राण बचाने के लिए जंगल में भाग गया और एक पहाड़ी कंदरा में छिप गया। फिर भी रिंचन उसका पीछा कर रहा था। आखिर उसने गुफा से सूहदेव को खींचकर मार डाला। अब रिंचन पूरे कश्मीर का सुलतान था। रामचन्द्र की विधवा रानी देवी कोटा को रिंचन ने जबर्दस्ती अपने महल में डाल लिया वह विवश थी, कुछ न कर सकी।

 

शाहमेर की कूटनीति !

खैर, यह तो कथा हुई भोट सरदार रिंचन के कश्मीर-प्रवेश और वहां अपने कब्जा जमाने की। इसी समय (सन १३१३) एक मुसलमान नौकरी की तलाश में कश्मीर घाटी में आया। उसका नाम शाहमेर था। नए शासक रिचन ने उसकी मिनत आरजू से पिचलकर उसे दरबार में रख लिया। आया था शाहमेर रोजी-रोटी की खोज में, लेकिन दरबार में नौकरी मिल जाने के बाद धीरे-धीरे उसने अपनी कूटनीति और छल-छल से कश्मीर में अपने समर्थक और शक्ति बढ़ानी शुरू कर दो । और एक दिन फिर वह आया, जब यही शाहमेर

कश्मीर के भोट शासक रिंचन पर यहां तक हावी हो गया कि उस पर दबाव डालकर सलाह देने लगा तुम अपना पुराना धर्म छोड़ो- उसमें क्या रखा है। नए मजहब इस्लाम से फायदा उठाओ। इसकी रोशनी में आओ और यह हुकूमत - यहां की रियाया भी इस्लाम के साए में आकर राहत की सांस ले। ठसका मतलब था कि रिचन मुसलमान हो जाए तो कश्मीर की तमाम रियाया भी इस्लाम कबूल कर लेगी। और अब स्थिति यह थी कि कश्मीर का शासक होकर भी वह अपने ही दरबारी मुस्लिम षड्यंत्रकारी और मक्कार शाहमेर के मुकाबले कमजोर पड़ रहा था - परेशान था। शाहमेर के पड्यत्र से बचने का जब उसे कोई दूसरा उपाय न सूझा, तो वह कश्मीर के तत्कालीन प्रसिद्ध शैव आचार्य देव के पास पहुंचा और उनसे सविनय अनुरोध किया - कहा, 'आचार्यवर! कृपा करके आप मुझे अपने शैव मत की दीक्षा प्रदान करें जिससे मैं और मेरी संतानें हिन्दू धर्म में शामिल समझी जा सकें और मुसलमान होने से बच सकें।"

स्पष्ट था कि वह भोट शासक रिंचन अब स्वयं को 'हिन्दू' कहलाने का अभिलाषी-आकांक्षी था और चाहता था कि कश्मीर में हिन्दू राज्य की ही आगे प्रतिष्ठा कायम रहे। लेकिन हाय रे पाखण्ड हाय री रूढ़िवादिता की जंजीर ! शैव आचार्य देव भी उस निगोड़ी के शिकार बन गए। बोले - 'राजन | आप यह क्या कर रहे हैं! आप मुसलमानों से क्यों डर रहे हैं? राजा तो यहां आप हैं। भोटिया हैं, हिन्दू नहीं हैं, तब कैसे मैं आपको शैव दीक्षा दे सकता हूं। मैं विवश हूँ।' कैसा दुर्भाग्य कि सबको आत्मसात करके पचा जाने वाला उदार विराट हिन्दू धर्म - किन्तु उसी का एक संकीर्ण रूढ़िवादी पुरोधा उस क्षण कैसी आत्मघाती भूल कर बैठा! यदि वह रिंचन को हिन्दू धर्म में दीक्षित कर लेता तो आज का यह जल रहा नंदन -बन कश्मीर मुस्लिम बहुल न होता और न एक रोज कश्मीरी पंडित, गुरु तेगबहादुर के पास यह अरदास लेकर दौड़ जाते 'हमारे युवकों को कश्मीर में औरंगजेब बलात् मुसलमान बना रहा है। आप हमारे धर्म की रक्षा करिए।' इसी धर्म की रक्षार्थ तो नौवें गुरु तेगबहादुर, भाई मतिदास, भाई दयाला आदि को दिल्ली में अपने प्राणों को उत्सर्ग करना पड़ा था। भाई मतिदास को मुसलमान बनने से इनकार करने पर आरे से चीरा गया था गुरु तेगबहादुर और भाई दयाला के शिरोच्छेद हुए थे इन बलिदानों के पीछे कश्मीरी युवकों के धर्म की रक्षा का प्रश्न ही कारण रहा था।

स्वाभाविक था कि रिंचन ने आचार्य देव के इनकार से अपना अपमान समझा। यह बात जब शाहमेर को मालूम हुई तो वह आए दिन रिंचन को कुरेदने लगा। कहने लगा - 'कहिए जनाब आला! देख लिया इन पंडितों को! बरहमनों ने आपको इस काबिल न समझा कि अपना हम-मजहब (समानधर्मी) बना लें हुजूर को कैसी बेइज्जती की और खुद उसने, जो आपकी रियाया है। अब तौबा करिए इन लोगों से और इनके कुफ्र से। क्यों आप बुत-परस्तों की खुशामद करने गए? छोड़िए उनको। हमारे दीने इस्लाम को देखिये। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको इज्जत देता है। रोशनी देता है। सबको गले लगाता है। सबको बराबरी का दर्जा देता है। हमारे दस्तरख्वान पर हर बशर (आदमी) चाहे अदना हो या आला - एक साथ नोश (खाना) फरमाते हैं। साथ रोजे खोलते हैं। साथ नमाज अदा करते हैं। हमारे मजहब में किसी से नफरत नहीं की जाती, बशर्ते वह मुसलमान हो। आइए, हमारे साथ आइए। इस्लाम आपको दावत देता है।

इस्लाम का प्रादुर्भाव

रिंचन तो पंडितों पर चिढ़ा ही था, कुपित था, उन्हें ही सबक सिखाने के लिए शाहमीर की दावत कबूल कर ली। शाहमेर की बाहें खिल गई कि वह रिंचन को मुसलमान बनाने में कामयाब हो गया। सोचा, अब तो जाहिर है, वादी-ए-कश्मीर में इस्लाम की जड़ जम गई। उसकी बुनियाद यहां पुख्ता हो गई। नतीजा यह हुआ कि रिंचन के मुसलमान बन जाने पर रानी देवीकोटा के बेटे का नाम 'हैदर' रखा गया। खुद शाहमेर के दो बच्चों के नाम थे - जमशेद और अल्लेशर। जमशेद को वह ज्यंशर' ही पुकारता था और यह साक्षी था कि कभी इस शाहमेर के पुरखे भी जरूर हिन्दू रहे होंगे। अरबी-फारसी का नया जोश चढ़ने पर शाहमेर ने उन बच्चों के घरेलू नाम रखे थे -'स्वाद' और दूसरे का 'नून'। ये दोनों अक्षर फारसी लिपि की वर्णमाला के हैं।

पाठक कहेंगे कि 'अल्लेशर' और 'ज्यंशर जैसे नामों से हिन्दुत्व का क्या रिश्ता। वस्तुत: उस जमाने में कश्मीर में जो प्रसिद्ध स्थान थे, उनके नाम होते थे - ज्येष्ठेश्वर, त्रिपुरेश्वर, जयापीडपुर आदि। उसी के अनुसार शाहमेर के लड़कों के उक्त नाम थे।'ज्येष्ठेश्वर' शिव ही हैं। ऐसे ही कश्मीर में एक स्थान' द्वारे श्वर' था। परन्तु आगे सत्ता में आकर शाहमेर बन गया शम्सुद्दीन (शंसदीन), उसके बच्चे अल्लेशर और ज्यशर हो गए- अलाउट्दीन (अलावेदन) आदि।

आगे यदि रानी देवीकोटा चाहती तो शाहमेर को मरवा डालती। वह समर्थ थी, साहसी थी। पर उसने इस तरफ उपेक्षा भाव रखा जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि एक रोज जब कश्मीर के प्रधान सेनापति, जो हिन्दू था तथा शाहमेर के बच्चे अल्लेशर (अल्लेश्वर) का श्वसुर था - ने रानी की । अवज्ञा की तो देवीकोटा ने उससे युद्ध किया, परन्तु

शाहमेर मुसलमान के नाते, खासकर इस्लाम के नाम पर, न सिर्फ कश्मीर को छल-छल, हत्या, षड्यंत्र द्वारा इस्लामी झण्डे के नीचे ले गया, वरन इसी प्रपंच-प्रक्रिया में उसने रिचन, रानी देवीकोटा आदि सभी को धोखा दिया। रिचन के बाद रानी

ही शासिका थी - उसे हटाकर शाहमेर सुलतान बन गया। उसके कठमुल्लेपन और जेहादी जुनून ने ही कश्मीर का जो हिन्दू नक्शा था, हिन्दू रंग था और जिसे भोट सरदार रिचन भी बदल नहीं सका था, इस्लाम के नाम पर बदरंग, विरूप और विद्रूप बना छोड़ा।

हत भाग्य कि वह कैद कर ली गई। रानी के दो मंत्री हिन्दू थे। उनमें एक का नाम कुमार भट्ट था। उसने अपूर्व कौशल से रानी को कारागार से छुड़ा लिया। अनन्तर शाहमेर ने छल से रानी के दो आदमी - अवतार और भट्ट भिक्षण मरवा दिए।

जोनराज ने लिखा है कि शाहमेर ने उनके खून से स्नान किया। दोनों जहर बुझाये खंजरों से उस समय मारे गये थे जब शाहमेर ने रोगी होने का नाटक रचकर उन्हें अपने पास बुलाया था। ये दोनों रानी के मंत्री थे। रानी इस तरह अकेली और कमजोर पड़ती गई। शाहमेर अपने को शम्सुद्दीन (शंसदीन) कहलाने लगा। जोनराज लिखता है 'शंसदीन इत्याख्यामत्यां स्वस्थ व्यथान्नपः

['राजतरंगिणी' (द्वितीय) ॥३५२॥]

जोनराज ने अपने ग्रंथ में अल्लशेर की हिन्दू पत्नी की बड़ी प्रशंसा की है, लिखा है -

लक्ष्मी निवसुतांदधत आवेशो लब्ध्वान.॥

['राजतरंगिणी' (द्वितीय) २९०]

उधर इसके विपरीत शाहमेर ने अपनी बेटी कोटराज नारिंग से ब्याही थी, जो हिन्दू था। यह इसलिए कि शाहमेर की समर्थक-शक्ति बढ़ सके। उसका नाम था, 'गौहर' (गुहर)। शाहमेर के दोनों बेटों की भी बेटियां ऐसे घरानों (भांगिल के सरदार तेलाकशूर और शंकरपुर (बरामूला) के 'लुत्त' या 'लुस्त') को ब्याही थीं जो कभी पहले योगी वभ्रुवाहन के वंशज रहे थे और जो अब नव मुस्लिमों में गिने जाते थे। खुद शाहमेर को जोनराज ने 'राजतरंगिणी' (द्वितीय) में 'पार्थ' का वंशज बताया है। इसी वंश में आगे कुरुशाह और ताहशाह जन्मे। इनमें कुरुशाह के पुत्र ताहशाह को जोनराज ने 'शाहमेर का पिता' लिखा है। इसी शाहमेर की अगली पीढ़ी में कश्मीर का शासक, जैनुलआबदीन हुआ जो उसे इतिहास में हिन्दू विरोधी न बताकर काफी उदारवादी लिखा गया है।

 

जो हो , शाहमेर मुसलमान के नाते, खासकर इस्लाम के नाम पर, न सिर्फ कश्मीर को छल छल, हत्या, षड्यंत्र द्वारा इस्लामी झण्डे के नीचे ले गया, वरन इसी प्रपंच-प्रक्रिया में उसने रिंचन, रानी देवीकोटा आदि सभी को धोखा दिया। रिंचन के बाद रानी की शासिका थी - उसे टक्कर शाहपुर सुलतान बन गया। उसके कठमुल्लेपन और जेहादी जुनून ने ही कश्मीर का जो हिन्दू नक्शा था, हिन्दू रंग था और जिसे भोट सरदार रिंचन भी बदल नहीं सका था, इस्लाम के नाम पर बदरंग, विरूप और विद्रूप बना छोड़ा। -

अस्वीकरण:

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साभार:-  वचनेश त्रिपाठी साहित्येन्दु एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य