मीरपुर गुलाम कश्मीर में 1931 की वह प्रलयकारी रात

- मीरपुर गुलाम कश्मीर में 1931 की वह प्रलयकारी रात




मीरपुर गुलाम कश्मीर में 1931 की वह प्रलयकारी रात

कृष्ण लाल भगोत्रा  

१९ ३१ जम्मू-कश्मीर के इतिहास का एक अत्यंत घटना पूर्ण वर्ष था। इस वर्ष ब्रिटिश शासकों द्वारा प्रेरित शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के नेतृत्व में मुस्लिम मतान्धों ने देशभक्त हिन्दू राजा महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध ऐसा आन्दोलन छेड़ा जो रियासत के इतिहास पर ही नहीं, अपितु पूरे देश के इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ गया है। इन आन्दोलन में हिन्दू प्रजा को ही निशाना बनाया गया था।

जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध रचे गए षड्यंत्र के अधीन उस वर्ष जून में गुजरात, झेलम और गुजरखां के ब्रिटिश सीमावर्ती क्षेत्रों से हिन्दू बहुल-मीरपुर, मिम्बर, कोटली नगरों के चारों ओर फैले हुए मुस्लिम बहुल ग्रामों में मुल्ला मौलवियों को भेजा गया। वे इन गांवों की मस्जिदों में, विशेषकर जुम्मे की प्रार्थना सभाओं में, हिन्दू महाराजा के विरुद्ध भड़कीले भाषण देने लगे।

फलस्वरूप मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों ने ग्रामीण अल्पसंख्यक हिन्दुओं को डराना-धमकाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इस विद्रोह की लपेट में कोटली और मिम्बर क्षेत्रों के अल्पसंख्यक हिन्दू भी आ गए , लेकिन शासन ने वहां शीघ्र काबू पा लिया। बीच मीरपुर नगर पर मुस्लिम दंगाइयों ने धावा बोलने का निश्चय कर लिया।

३१ जुलाई, १९३१ (शुक्रवार) की रात प्रलयंकारी सिद्ध हुई जब पूर्व योजना के अनुसार सीमावर्ती पंजाब और नगर के चारों ओर के ग्रामीण क्षेत्रों में मुस्लिम दंगाइयों के झुंड अल्लाह हो-अकबर के नारे लगाते हुए मीरपुर नगर पर धावा बोलने चल पड़े। वे सभी प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से लैस थे तथा ढोल और नक्कारे बजाते हुए आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में खड़ी, बैंसी और पारबाग क्षेत्रों के ग्रामीण हिन्दुओं की स्त्रियों को बेइज्जत करते हुए तथा आगजनी एवं लूटपाट करते हुए वे आगे बढ़ते गए। आधी रात तक दंगाइयों ने मीरपुर नगर को चारों ओर से घेर लिया था। इस आक्रमण को रोकने के लिए पुलिस की ओर से त्वरित कोई कार्रवाई न होने के कारण हिन्दू नगरवासियों को अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं करनी पड़ी। वे पत्थर, ईंट तथा अन्य उपलब्ध अस्त्र-शस्त्रों को एकत्र कर मकानों की छतों पर ठिकाने बनाकर मुकाबला करने के लिए तत्पर हो गए। उधर नगर में एक उत्साही साधु 'घोड़े वाला बाबा' कुछ युवकों और उपलब्ध पुलिस बल को साथ लेकर गली-मोहल्लों में जाकर हिन्दू जनता का हौसला बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। नगर की हिन्दू जमता उस रात को प्रलय की रात समझ रही थी क्योंकि मुस्लिम दंगाइयों की संख्या नगर की हिन्दू जनसंख्या (१० हजार) के मुकाबले कहीं अधिक थी।

संयोग की बात है कि मीरपुर नगर में उसी दिन महाराजा की प्रथम महायुद्ध के समय की प्रसिद्ध सूरज गोरखा सेना की एक टुकड़ी झेहलम-मीरपुर के रास्ते बरेली को प्रस्थान करती हुई पहुंच ग और विश्राम के लिए डसे वहा ठहरना पड़ा। मीरपुर के चारों ओर से घिर जाने के कारण टुकड़ी के जवानों को नगर के उत्तर में, पूर्व-पश्चिम के हाथी दरवाजों पर और दक्षिण में सामरिक महत्व के ठिकानों पर तैनात कर दिया गया। सेना की उन्ह टुकड़ी के आगमन का समाचार नगर के मुसलमानों ने घेरा डालने वाले दंगाइयों तक पहुंचा दिया। यह समाचार जंगल की आग की तरह दंगाइयों में फैल गया और दंगाई पीछे की ओर मुड़ गए। हिन्दुओं के लिए यह प्रलय की घड़ी टल गई किन्तु पीछे मुड़ते हुए उन दंगाईयों ने झेलम नदी के किनारे खड़ी इलाके में बसे हिन्दू बहुल ग्रामों-सम्वाल, पिंडी सब्बरवाल, अलीबेग व अन्य ग्रामों के हिन्दुओं पर आक्रमण शुरू कर दिया। उनके परों को लूटा-जला डाला, महिलाओं को अपमानित किया और यह क्रम कई दिन तक चलता रहा।

मीरपुर नगर में उस रात महाराजा की सूरज गोरखा सेना की टुकड़ी समय पर न पहुंचती तो मुस्लिम दंगाई नरसंहार करने में सफल हो गए होते और वह नरसंहार संभवत: खिलाफत आन्दोलन के समय मोपला दंगों में हुए हिन्दू नरसंहार को भी मात दे जाता।

उल्लेखनीय है कि मीरपुर नगर मियां मोहम्मद मीर और गोसाई बुद्धपुरी नामक दो मुस्लिम और हिन्दू संतों द्वारा ६५० वर्ष पूर्व एक सुन्दर-सुहावने टीले पर बसाया गया था। यह नगर १९३१ तक सर्व-धर्म-समभाव का प्रतीक था। किन्तु ब्रिटिश षड्यंत्र और नेहरू-शेख जैसे मिथ्या सेकुलरवादियों के विश्वासघात के कारण यह आज इतिहास के गर्त में समा गया है और पाकिस्तान के साथ की गई सिंधु घाटी संधि के अधीन मंगला बांध में जल समाधि ग्रहण कर चुका है। -

अस्वीकरण:

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साभार:-  कृष्ण लाल भगोत्रा एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य