कश्मीरी मुस्लिम विस्थापित - कितना सच्च कितना झूठ

- कश्मीरी मुस्लिम विस्थापित - कितना सच्च कितना झूठ




कश्मीरी मुस्लिम विस्थापित - कितना सच्च कितना झूठ

महाराज्य कृष्ण भरत

न केवल इस अलग-थलग पड़े विशेष कार्यालय से आम मुस्लिम परिवार विस्थापित राहत राशि ले रहे हैं बल्कि प्रदेश के पूर्व विधायक तथा नेशनल कांफ्रेंस, जनता दल, कांग्रेस एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भी अपने सुरक्षा गाडों को साथ लेकर यहां हर माह एक हजार रुपए की राहत राशि लेने आते हैं। उन्होंने भी अपने लिए विस्थापितों के राशन कार्ड बनवाए हुए हैं।

जम्मू : 'जनवरी की बात है। हमारे एक रिश्तेदार चल बसे। उन्हें दफनाने के लिए न यहां के मुसलमानों ने और न ही चर्च वालों ने इजाजत दी।' -यह कहना है कश्मीर से पलायन कर आए एक मुस्लिम विस्थापित सलाम का। सलाम ने बताया कि लाश को दफनाने के लिए हमने सतवारी से ४ किलोमीटर दूर दो गर्ज जमीन खरीदी और अगर यह जमीन खरीदने के लिए प्रदेश भाजपा ५ हजार रुपए न देती तो आज भी वह लाश ऐसी ही पड़ी रहती। सवाल यह उठता है कि अगर हममें से कोई चल बसा तो क्या उसे दफनाने के लिए भी हमें ऐसे ही जमीन खरीदनी पड़ेगी!'

उस मृतक व्यक्ति का नाम बताने से इनकार करते हुए उसने कहा, 'यहां के मुसलमान नाम जानकर उसको कब्र से भी बाहर निकाल देंगे वे तो हमें शक की निगाहों से देखते हैं, हमें मुखबिर कहते हैं, माइग्रेट कहते हैं।' सलाम को गत वर्ष आतंकवादियों की धमकी के कारण कश्मीर घाटी में अनंतनाग

 

पलायन का कारण

सरकारी सूत्रों के अनुसार कश्मीर से भागकर जम्मू आए मुस्लिम विस्थापितों की पंजीकृत संख्या २५४ है । लेकिन जम्मू-कश्मीर भाजपा मुस्लिम माइग्रेंट्स मोर्चे की सचिव कौसर तसलीन का दावा है कि गत चार वर्षों में ९०० से अधिक मुस्लिम परिवार कश्मीर से भाग आए हैं, जो जम्मू में बिखरे हुए हैं। जम्मू में ये विस्थापित तालावतिल्लौ, गुज्जर नगर, छनी, मूठी, नरवाल तथा बटल, मानसरोवर एवं रामनगर में रह रहे हैं। कौसर का कहना है कि पहले आतंकवादियों ने कश्मीरी पण्डितों को भगाया और फिर मुसलमानों को मुखबिरी करने के आरोप में तरह-तरह की मानसिक एवं शारीरिक यातनाएं देते रहे जिसके कारण उन्हें भी वहां से भागना उल्लेखनीय है कि कौसर '९२ में सपरिवार कश्मीर के सोपोर क्षेत्र से भागकर आयी थीं। उनके चार बच्चे हैं। उनके पति इरफान जान का फरवरी, '९२ में आतंकवादियों ने मुखबिरी के आरोप में अपहरण किया और नजरबंदी के दौरान भयंकर शारीरिक यातनाएं दी थीं, यहां तक कि आतंकवादी उन्हें नमक का गर्म पानी पिला-पिलाकर कई दिनों तक प्यासा छोड़ देते थे। एक दिन आतंकवादियों के चंगुल से छूटकर इरफान भागने में सफल हुए और सपरिवार जम्मू चले आए जहां प्रदेश भारतीय जनता पार्टी की इकाई ने उनका ढाढस बंधाया और रहने के लिए जगह दी।

मूठी विस्थापित कैम्प में रह रहे एक मुस्लिम परिवार का हवाला देते हुए कौसर ने कहा कि वहां आशिया नाम की विधवा गत चार साल से रह रही हैं। कश्मीर में आतंकवादियों ने उसके पति और भाई को मौत के घाट उतारा था।

इरफान जान का कहना है कि भारत माता की जय बोलने वाले हम भी हैं। हमें भी कश्मीरी पण्डित विस्थापितों की तरह सुविधाएं मिलनी चाहिए।

२४ दिसम्बर, '९३ को कश्मीर के अनन्तनाग जिले से पलायन कर आए गुलाम मोहम्मद भट्ट ने कहा ' अगर कश्मीर में रहना है तो वहां पर दहशतगर्द संगठनों के आदेश पर हथियारों की ट्रेनिंग लेनी ही होगी।' दो बार गुलाम मोहम्मद भट्ट को कट्टर आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के लोग पकड़कर ले गए और जब वह किसी तरह से आतंकवादियों के चंगुल से रिहा हुए तो भागकर जम्मू आ गए।

जम्मू के भाजपा कार्यालय में लगभग ५ मुस्लिम विस्थापितों से बातचीत हुई। कश्मीर से आतंकवादियों की धमकी के कारण भाग आने का तो वे हवाला देते हैं लेकिन अपना नाम बताने से डरते हैं। अपनी तस्वीर खिंचवाने से पहले ही मना कर देते हैं कि यदि उनकी तस्वीर अखबार छप गयी तो आतंकवादी घाटी में उनके निकट के रिश्तेदारों को मार देंगे।

जब यह संवाददाता जम्मू के उपायुक्त अनिल गोस्वामी से मुस्लिम विस्थापितों के पलायन की जानकारी लेने गया तो श्री गोस्वामी ने यह कहकर बोलने से साफ इनकार कर दिया कि इस बारे में वह कुछ नहीं जानते। जब उनको यह जानकारी दी गई कि उन्हीं के कार्यालय परिसर में कश्मीर से भागे हुए मुस्लिम विस्थापितों के लिए अलग विशेष कार्यालय खोला गया है तो कहने लगे कि अभी वहां कोई नहीं मिलेगा, कल सुबह मिलवा देंगे।

दोपहर के तीन बजे थे। आखिर यह संवाददाता स्वयं ही उस कमरे तक जा पहुंचा जहां कश्मीर के मुसलमानों को विस्थापित होने के नाम पर राहत राशि दी जा रही थी। लगभग २५ मुस्लिम विस्थापित उस समय वहां मौजूद थे। सम्बंधित कार्यालय के तहसीलदार द्वारिका नाथ भट्ट ने जानकारी दी कि शुरू ४५१ मुस्लिम विस्थापितों का पंजीकरण हुआ था जो अब घटकर २५४ तक आ गया है। इसमें १९७ राशनकार्ड जांच के दौरान जाली पाए गए। इस समय २२९ मुस्लिम परिवार हैं। प्रत्येक परिवार १००० रुपए की राहत राशि ले रहा है, जबकि २५ सरकारी कर्मचारी हैं। प्रत्येक माह लगभग २ लाख, ११ हजार रुपए राहत राशि पर खर्च होते हैं। साल में तीन बार इन विस्थापितों के राशनकार्ड की मौके पर जाकर जांच-पड़ताल की जाती है। अब नया पंजीकरण राहत आयुक्त तथा जिला आयुक्त की मंजूरी पर सभी औपचारिकताओं को पूरा करके ही होता है। मुस्लिम विस्थापितों के एक परिवार में औसतन ७ व्यक्ति हैं। प्रत्येक व्यक्ति को ९ किलो चावल, २ किलो आटा तथा एक परिवार को एक किलो चीनी मुफ्त मिलती है।

विधायक भी 'विस्थापित'

न केवल इस अलग-थलग पड़े विशेष कार्यालय से आम मुस्लिम परिवार विस्थापित राहत राशि ले रहे हैं बल्कि प्रदेश के पूर्व विधायक तथा नेशनल कांफ्रेंस, जनता दल, कांग्रेस एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भी अपने सुरक्षा गार्डों को साथ लेकर यहां हर माह एक हजार रुपए की राहत राशि लेने आते हैं। उन्होंने भी अपने लिए विस्थापितों के राशन कार्ड बनवाए हुए हैं। इन नेताओं में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं नेशनल कांफ्रेंस के पूर्वमंत्री अब्दुल गनी वीरी, पूर्व मंत्री गुलाम . नवी शाहीन, बशीर अहमद किचलू, अली मोहम्मद सागर। कांग्रेस के गुलाम मोहम्मद, बड़गाम जिला कांग्रेस प्रधान तारिक महियुद्दीन, जनता दल के पूर्व विधायक मोहम्मद मकबूल डार, पीर गयासुद्दीन एवं , खुर्शीद आमद तथा पूर्व गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद का भाई और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का नेता मोहम्मद यूसुफ तारिगामी ।

मुस्लिम माइग्रेंट्स कांग्रेस सेल के संयोजक मोहम्मद अब्दुल्ला नीदा ने कहा कि कश्मीर से वही मुसलमान भागकर आए हैं जो या तो दहशतगर्दो की 'हिटलिस्ट' में हैं या जिनका निकट का कोई रिश्तेदार दहशतगर्दो ने मारा हो। घाटी के सभी जिलों से लोग भागे हैं। लेकिन यहां आकर सरकार भी कोई ध्यान नहीं दे रही है। हमने मांग की थी कि हमें भी कश्मीरी विस्थापित पण्डितों की तरह टैंट और क्वार्टर मुहैया किए जाएं लेकिन कोई सुनता नहीं है। एक हजार रुपए राहत राशि मिलती है और ७०० रुपए एक महीने में एक कमरे का किराया देना पड़ता है। मोहम्मद अब्दुल्ला ने कहा कि हम सरकार से मांग करते हैं कि कश्मीरी विस्थापित पण्डितों और मुसलमानों के बच्चों को कश्मीर के कोटे से नौकरियां दी जाएं। हम जम्मू के लोगों का अधिकार छीनना नहीं चाहते। उन्होंने कहा कि जहां पर हमें रिलीफ दिया जा रहा है उस कमरे की दयनीय दशा है। सरकार को चाहिए कि इसके लिए व्यवस्थित दफ्तर दे ताकि प्रदेश के पूर्व विधायक और नेता जो रिलीफ लेने आते हैं उन्हें भी तकलीफ न हो। उन्होंने कहा कि हम हिन्दुस्तानी हैं लेकिन हमें हिन्दुस्तानी नहीं माना जाता। अपनी समस्याओं के बारे में कई ज्ञापन सरकार को दिए लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। राजनीतिक प्रक्रिया के बारे में उनके विचार थे कि प्रदेश में चुनाव कराने की प्रशासन की इच्छा शक्ति नहीं है।

 

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एक नेता मोहम्मद अफजल ने इस स्थिति पर टिप्पणी की कि जो नेता व कार्यकर्ता कश्मीर से भागकर आए हैं, वे कमजोर हैं। उन सब नेताओं को तो कश्मीर में जाकर स्थिति को मुस्लिम विस्थापित नाम के लिए विस्थापित' हैं जो घाटी में ही बसे हैं तथा निजी व्यापार एवं घूमने के लिए जम्मू तथा देशभर में आते हैं। राहत राशि लेकर फिर ओझल हो जाते हैं। राहत अधिकारी छ: महीने की एकमुश्त राशि कुछ कश्मीरी मुस्लिम नेताओं के घर में पहुंचा देते हैं जो बाद में न जाने किन लोगों के बीच में इसका वितरण करते हैं।

सामान्य बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए। जम्मू में आकर अखबारों में बयान देने से कुछ नहीं होगा। एक और विस्थापित महिला सलीमा जो अनन्तनाग जिले (कश्मीर) से भागकर आई हैं, वे भी जम्मू के उपायुक्त कार्यालय परिसर में स्थापित विशेष राहत कार्यालय में मिलीं, जहां वह राहत लेने आई थीं। जम्मू में वह गुज्जर नगर में रहती हैं।

प्रदेश-खजाने का दुरुपयोग

जम्मू के स्थानीय अंग्रेजी दैनिक डेली एक्सेल्सियर ने अपने ११ मई, १९९१ के सम्पादकीय राहत घोटाला' में इस तथ्य का उल्लेख किया है कि मुस्लिम माइग्रेशन के नाम पर हाल ही में कुछ व्यक्तियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है जिनमें व्यक्तिगत रूप से किसी के नाम राशनकार्ड जारी नहीं किया गया अपितु राहत राशि का भुगतान पहले राजनीतिज्ञ एकमुश्त में करते. हैं बाद में इस राहत राशि को इन परिवारों में वितरित करते हैं। ऐसे परिवारों कि संख्या हजारों में है। जिसका अर्थ यह हुआ कि लाखों रुपए प्रदेश के खजाने से बिना किसी उचित रिकार्ड के इन मुस्लिम 'विस्थापित परिवारों में बांटे जाते हैं। जानकार सूत्रों का कहना है कि नगरोटा तथा अन्य जगहों पर मुस्लिम विस्थापितों के लिए शिविरों में रहने की व्यवस्था खाली रखी गई है। जबकि इनके नेताओं ने लगातार इन्हें अन्य जगहों पर रहने के लिए सुझाया क्योंकि उनका मानना है कि निर्धारित जगहों पर रहना मुस्लिम परिवारों के लिए खतरा बन सकता है।

मुफ्ती मोहम्मद सईद के गृह मंत्रित्वकाल में यह प्रक्रिया शुरू की गई थी कि मुस्लिम 'विस्थापितों की गोपनीय रूप से बिना राशनकार्ड उपलब्ध किए राहत राशि का भुगतान किया जाए। यह अब भी जारी है। इसके पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि यदि मुस्लिम विस्थापितों' को खुलेआम राहत राशि का भुगतान किया जाएगा तो वे घाटी के आतंकवादियों की आंख का खटका बन सकते हैं। लेकिन क्या यह अन्य विस्थापितों के साथ भेदभाव नहीं है? क्या कश्मीरी पण्डित तथा अन्य पंथ के लोग राहत राशि का सरकारी रिकार्ड के अनुसार भुगतान नहीं ले रहे हैं? इससे जो तथ्य उभरकर आता है वह यह है कि गुप्त रूप से बिना किसी उचित रिकार्ड के राहत राशि के रूप में करोड़ों रुपए का भुगतान हो रहा है जिसके कारण राहत राशि में हुई धांधलियों के आरोप में न केवल राहत अधिकारी ही फंसते हैं बल्कि राजस्व अधिकारी एवं मुस्लिम नेता भी इसको चपेट में आ जाते हैं।

बेनामों को राहत

विश्वस्त सूत्रों के आधार पर मुफ्ती मोहम्मद सईद, डा फारूक अब्दुल्ला तथा भाजपा के नेता मोहम्मद यूसुफ तारिगामी के निर्देशों पर बेनाम मुस्लिम 'विस्थापितों के लिए राहत राशि का भुगतान कराया जाता है। ये मुस्लिम विस्थापित नाम के लिए' विस्थापित हैं जो घाटी में ही बसे हैं तथा निजी व्यापार एवं घूमने के लिए जम्मू तथा देशभर में आते हैं। राहत राशि लेकर फिर ओझल हो जाते हैं। सूत्र बताते हैं कि राहत अधिकारी छ: महीने की एकमुश्त राशि कुछ कश्मीरी मुस्लिम नेताओं के घर में पहुंचा देते हैं जो बाद में न जाने किन लोगों के बीच में इसका वितरण करते है। ऐसे अधिकांश तथ्यों की पुष्टि करते हुए जम्मू के स्थानीय अखबारों में लेख तथा सम्पादकीय छपते रहते है लेकिन प्रशासन के कान पर जो भी नहीं रेंगती

अस्वीकरण:

उपरोक्त लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और kashmiribhatta.in किसी भी तरह से उपरोक्त लेख में व्यक्त की गई राय के लिए जिम्मेदार नहीं है।                                                                                  

साभार:- महाराज्य कृष्ण भरत एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य