जम्मू कश्मीर समस्या और समाधान अधमरे मन से उपाय करने का लाभ नहीं

- जम्मू कश्मीर समस्या और समाधान अधमरे मन से उपाय करने का लाभ नहीं




जम्मू कश्मीर समस्या और समाधान अधमरे मन से उपाय करने का लाभ नहीं

प्रो० चमनलाल गुप्ता 

जम्मू - कश्मीर राज्य में, विशेष रूप से घाटी में जो स्थिति है, वह राष्ट्र की एकता और अखण्डता के लिए गम्भीर चुनौती है। अलगाववादी ताकतों और शत्रु पाकिस्तान के षड्यंत्रों ने कश्मीर को हथियाने के लिए भारत के साथ एक तरह से अघोपित युद्ध छेड़ रखा है। इसके लिए पाकिस्तान कुछ ऐसे कश्मीरियों की भावनाओं से खिलवाड़ कर लाभ उठा रहा है, जो केन्द्र सरकार की कश्मीर सम्बंधी गलत नीतियों के कारण भारत की मुख्यधारा से अलग हुए पड़े हैं।

आतंकवाद के आयाम

घाटी में आतंकवाद के विभिन्न आयाम जो सामने आए हैं, इस प्रकार हैं:

 (क)बन्दूक की धाक और आतंकवाद का भय

(ख)राज्य शासन विफल

(ग) राजनीतिक गतिविधियां पूरी तरह धराशायी

(घ) अर्धसैनिक बलों पर हमले

(ड.) आतंकवादियों तथा सेना के बीच आमने-सामने गोलीबारी

(च) आतंकवादियों के आदेशों का पालन

(छ) आतंकवादियों के आह्वान पर सम्पूर्ण बंद

(ज) निर्दोष भारतीयों का अपहरण-हत्याएं और

(झ)लगभग सम्पूर्ण हिन्दू अल्पसंख्यकों और मुस्लिम राष्ट्रवादियों का घाटी छोड़ना।

समाधान पर विचार करते हुए दो बातों को ध्यान में रखना होगा। पहली बात तो यह है कि चुनावों में धांधलियों, भ्रष्ट शासकों के खानदानी शासन तथा प्रजातंत्र पर प्रहार जैसे कारणों से कश्मीरी मुसलमान राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग हो गए जिससे वर्तमान में भारत विरोधी स्थिति उत्पन्न हुई है। अलगाववाद ने आतंकवाद को जन्म दिया। पाकिस्तान ने केवल इन भारत-विरोधी भावनाओं को अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए भड़काया है। निस्सन्देह, कश्मीर में कुछ अलगाववादी तत्त्व सदैव विद्यमान रहे हैं, परन्तु उन पर काबू रखा गया है। आखिरकार, पाकिस्तान ने १९६५ और १९७१ के दो युद्धों में कश्मीर को हथियाने की कोशिश की और दोनों मौकों पर वह असफल रहा। क्योंकि १९५३ से १९७५ तक समन्वयकारी उपायों के माध्यम से कश्मीरी मुसलमानों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल करने की नीति का क्रियान्वय होता रहा। परिणामस्वरूप घाटी के मुसलमानों ने पाकिस्तानी योजनाओं का कभी खुला समर्थन नहीं किया।

इंदिरा गांधी और शेख अब्दुल्ला के बीच १९७५ में समझौते पर हस्ताक्षर होने के साथ ही समन्वय की नीति छूट गई और अलगाव को १९५३ पूर्व की राजनीति फिर से शुरू हो गई, जिसे बढ़ावा भी मिला। डा० फारूक अब्दुल्ला के समय में स्थिति नरम सीमा पर पहुंची जबकि अलगाववादी तत्त्वों में पाकिस्तान के साथ हाथ मिलाने का दुस्साहस किया।

इससे पता चलता है कि राज्य और भारत के बीच के सभी संवैधानिक अवरोधों को हटाना कितना आवश्यक है और इसी में बुद्धिमत्ता भी है।

दूसरी बात यह है कि जम्मू और कश्मीर में अशांति तथा उपद्रव की स्थिति केवल घाटी में अस्थिरता का मामला नहीं है। इस समस्या के चार पहलू हैं:

 (के) भारत-विरोधी स्थिति

(ख) कश्मीर में असंतोष

(ग) जम्मू में असंतोष

(ग) लद्दाख में असंतोष

ये पहलू एक-दूसरे से प्रभावित हैं और इनमें से प्रत्येक का एक सा महत्त्व है और समस्या की पूर्ण स्थिति को प्रभावित करता है।

भारत-विरोधी स्थिति के पहलू पर ऊपर विचार किया गया है। जहां तक जम्मू , लद्दाख और कश्मीर में असंतोष की लहर का सम्बंध है कोई भी हल तब तक स्थायी नहीं हो सकता जब तक कि तीनों क्षेत्रों की समस्याओं और आकांक्षाओं का ध्यान नहीं रखा जाएगा। अभी तक पहले होता यह रहा है कि जम्मू और लद्दाख की उपेक्षा करते हुए समाधान ढूंढने की कोशिश की जाती रही है।

कुछ सुझाव

इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित सुझाव विचारणीय हैं :-

१. घाटी में आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने पर पूरी तरह ध्यान देना होगा। हमारे सामने कोई सहज विकल्प नहीं है और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अधमरे मन से किए गए उपायों की गुंजाइश नहीं है। केवल सेना ही इस मर्ज का इलाज कर सकती है। इसलिए घाटी को तुरन्त सेना के हवाले किया जाना चाहिए जिसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत है। साथ ही इसकी प्रतिक्रिया में होने वाले परिणामों को भुगतने के लिए भी तैयार रहना होगा, जिसमें यह भी सम्भव है कि यदि पाकिस्तान गुलाम कश्मीर को आधार बना कर हमारी योजनाओं में अवरोध डालने की कोशिश करे तो उससे मुठभेड़ हो सकती है।

२.आतंकवादियों को निकाल बाहर करने तथा सामान्य स्थिति बहाल होने के बाद राज्य विधान सभा के चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से कराए जाए।

 

निम्नलिखित कदम उठाए जाएं

  • राज्य में राज्य की विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियों के विभाजन के सिद्धान्त पर जम्मू,   

लद्दाख और कश्मीर के तीनों क्षेत्रों में वैधानिक क्षेत्रीय परिषदें बनाई जानी चाहिए। इससे क्षेत्रीय भेदभाव समाप्त करने हेतु एक संस्थागत व्यवस्था हो जाएगी। प्रत्येक क्षेत्र भारतीय संघ के ढांचे के अन्दर बिना रोक-टोक के रह सकेगा तथा विकास कर पाएगा।

  • जैसा कि पंजाब और असम सहित देश के शेष भाग में जनगणना हुई है वैसे ही राज्य में

जनगणना कार्य सम्पन्न कराया जाए जबकि जम्मू और कश्मीर में जनगणना का काम बिना किसी उचित कारण के रोका गया है।

  • नई जनगणना के आधार पर विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा निर्धारण का काम पूरा किया

जाए तथा विधानसभा की बढ़ाई गई ८७ सीटों में से कम से कम ४१ सीटें जम्मू के लिए रखी जाएं।

  • प्रशासनिक इकाइयों के पुनर्गठन के बारे में वजीर आयोग की रिपोर्ट तुरन्त स्वीकार की जाए और

जम्मू क्षेत्र में तीन अतिरिक्त जिले किश्तवाड़, रियासी और साम्बा (बहु) तथा घाटी में एक जिला बनाने का आदेश जारी किया जाए।

 (ड) जम्मू को जम्मू-कश्मीर की शीतकालीन राजधानी घोषित किया जाए।

 (च) राज्य की सेवाओं में, विशेष रूप से तथा जम्मू-कश्मीर सशस्त्र पुलिस की छानबीन, की जाए तथा

इनमें से राष्ट्रविरोधी तत्त्वों को निकाल दिया जाए।

(छ) पाकिस्तान के भारत विरोधी प्रचार के प्रत्युत्तर के लिए जोरदार उपाय किए जाने चाहिएं। इस

       प्रयोजन के लिए घाटी के अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर में जम्मू क्षेत्र के राजौरी, पुंछ और डोडा जिलों में           

      शक्तिशाली ट्रांसमीटर लगाए जाएं। कश्मीर के सम्बंध में भारतीय विचारधारा का विदेशों में प्रचार

      करने के लिए प्रतिनिधिमण्डल भेजे जाने चाहिए तथा वहां सम्मेलन आयोजित किए जाने चाहिए।

 (ज) कश्मीर से प्रकाशित होने वाले ऐसे समाचार पत्रों को बन्द कर दिया जाना चाहिए या उन पर

       कड़ा सेंसर लगाया जाना चाहिए, जो राज्य तथा केन्द्र सरकार से सभी तरह का लाभ उठा रहे हैं   

      और वस्तुत: आतंकवादी संगठनों के मुख पत्र बने हुए हैं। ऐसे समाचार-पत्र अलगाववादी और  

     कट्टरपंथियों की भारत विरोधी विचारधारा का प्रचार वर्षों से करते चले आ रहे हैं जिससे स्थानीय

      लोगों के मस्तिष्क में मजहबी कट्टरवाद और अलगाववाद का जहर घोला जा रहा है।

 (झ) घाटी में विस्थापितों की सुरक्षित वापसी के लिए सभी प्रयास किए जाने चाहिए। जब तक वे अपने  

        घरों को लौटने की स्थिति में नहीं होते, उन्हें उनके वर्तमान निवास के स्थानों पर अस्थायी व्यवस्था   

      की जाए और पर्याप्त राहत राशि दी जाए।

 (ब)आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए आतंकवाद-विरोधी समूह बनाए जाएं।

चेतावनी

राज्य के लिए १९४७ या १९५२ का संवैधानिक दर्जा दिए जाने जैसे विचारों पर कोई ध्यान न दिया जाए, क्योंकि इस तरह के विचारों से राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और सम्प्रभुता का परित्याग' करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा।

केन्द्र द्वारा जम्मू-कश्मीर की गंभीर स्थिति का समाधान खोजने के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठकों में यद्यपि लद्दाख, जम्मू और गुजरों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति अच्छी बात है, परन्तु कश्मीरी विस्थापितों का कोई प्रतिनिधि न बुलाया जाना चिन्ता का विषय है जो कश्मीर के मूल निवासी हैं जो वहां की संस्कृति, राजनीति तथा सामाजिक परम्पराओं से भली-भांति परिचित हैं। उन्हें ही कश्मीर में चल रही आतंकवादी गतिविधियों में सबसे अधिक हानि उठानी पड़ी है। केन्द्र से यही अपेक्षा है कि अपनी पुरानी धारणाओं से हटकर विचार करे तथा भूतकाल में हुए अनुभवों से सबक लेकर, हठीले विचारों को छोड़कर इस समस्या के बारे में यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाए। .

प्रो० चमनलाल गुप्ता   अध्यक्ष , जम्मू - कश्मीर भाजपा

अस्वीकरण:

उपरोक्त लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और kashmiribhatta.in किसी भी तरह से उपरोक्त लेख में व्यक्त की गई राय के लिए जिम्मेदार नहीं है।                            

साभारः -  प्रो० चमनलाल गुप्ता एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य