41 जगमोहन Op-Pan-00041994 कश्मीर समस्या की जड़
धारा ३७० गरीबों को लूटती है। यह अपनी मृगमरीचिका से उन्हें छलती है। यह शक्ति-सम्पन्न अभिजात्यों की जेबें भरती है। नए 'सुल्तानों' के अहं को हवा देती है। वास्तव में इसने एक ऐसा लोक बनाया, जहां न्याय नहीं है, ऐसी जमीन तैयार की, जो भयानक अंतर्विरोधों से भरी है। यह धारा धोखे, दोहरेपन और सनसनी फैलाने वाली राजनीति को आधार प्रदान करती है। यह द्विराष्ट्र-सिद्धांत की बीमार विरासत को जीवित रखती भारत में होने के विचारमात्रकायहगला घोंट देती है। और कश्मीर से कन्याकुमारी तक महान सामाजिक एवं सांस्कृतिक थाती को एक रखने वाले दर्शन को धुंधला कर देती है।
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भारतीय संविधान की धारा ३७० में कश्मीरी पृथकतावाद एवं अलगाववाद की गहरी जड़ें निहित हैं। यह धारा जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देती है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसमें न केवल दूरगामी परिणामों वाले ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक पहलू छिपे हुए हैं बल्कि इससे मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक पक्ष भी गहरे जुड़े हैं। इस धारा को संविधान से हटाने या बनाए रखने के पक्ष में जोरदार दलीलें दी जाती रही हैं लेकिन इन चर्चाओं के दौरान एक आधारभूत पहलू की अनदेखी कर दी जाती है कि इस धारा का निहित स्वार्थों के लिए दुरुपयोग भी होता है।
राज्यपाल शासन के दौरान बुनियादी सुधारों की जरूरतों पर गहन चिंतन करते हुए मैंने अगस्त, १९८६ में अपनी डायरी में लिखा : धारा ३७० जनता के दिल में परजीवियों को आहार उपलब्ध कराने से अधिक कुछ नहीं है। यह गरीबों को लूटती है। यह अपनी मृगमरीचिका से उन्हें छलती है। यह शक्ति-सम्पन्न अभिजात्यों की जेबें भरती है। नए' सुल्तानों ' के अहं को हवा देती है। वास्तव में, इसने एक ऐसा लोक बनाया, जहां न्याय नहीं है, ऐसी जमीन तैयार की, जो भयानक अंतर्विरोधों से भरी है। यह धारा धोखे, दोहरेपन और सनसनी फैलाने वाली राजनीति को आधार प्रदान करती है। यह द्विराष्ट्र-सिद्धांत की बीमार विरासत को जीवित रखती है। भारत में होने के विचारमात्र का यह गला घोंट देती है और कश्मीर से कन्याकुमारी तक महान सामाजिक एवं सांस्कृतिक थाती को एक रखने वाले दर्शन को धुंधला कर देती है। यह घाटी में एक प्रचंड भूकम्प का केन्द्र हो सकती है। एक ऐसा भूगोल जिसका कम्पन पूरे देश में महसूस होगा और जिसके नतीजे अनपेक्षित होंगे। इसी वजह से मैंने अपने विचारों से केन्द्र सरकार को अवगत करा दिया। राज्य में एक नया संस्थागत ढांचा तैयार करने के बारे में सुझाव भी दिए, लेकिन इनकी उपेक्षा कर दी गई। एक सुनहरा मौका गंवा दिया गया।
कश्मीरी नेतृत्व का भारत के प्रति दृष्टिकोण यह रहता है, जब आप यहां से जा रहे हैं तो क्या छोड़ जा रहे हैं और जब वापस आ रहे हैं तो क्या ला रहे हैं?
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कालान्तर में धारा ३७० राज्य के सत्तासीन वर्ग और नौकरशाही, व्यापार, न्यायपालिका और वकालत जैसे पेशों के निहित तत्वों के हाथों में शोषण का एक जरिया बन गई। इसने एक दुष्चक्र को जन्म दिया। यह अलगाववादी ताकतों को उत्पन्न करती है जो बदले में धारा ३७० का पोषण और मजबूती प्रदान करती है। राजनीतिज्ञों के अलावा समृद्ध वर्ग के लिए इसके जरिए धन कमाना आसान हो गया है। यह वर्ग राज्य में किसी स्वस्थ वित्तीय कानून के प्रवेश की इजाजत नहीं देता है। धारा ३७० की आड़ में केन्द्र के सम्पत्ति कर, शहरी भूमि हदबंदी कानून, उपहार कर आदि तथा दूसरे जरूरी कानून राज्य में प्रभावी नहीं हैं।
आम जनता को यह समझने ही नहीं दिया जाता कि धारा ३७० वास्तव में उन्हें निर्धन बनाए हुए हैं, न्याय और आर्थिक विकास में उनकी हिस्सेदारी से वंचित रखे हुए हैं।
मूल प्रश्न क्या है!
सवाल उठता है कि आखिर किन परिस्थितियों में धारा ३७० हमारे संविधान में शामिल की गई। इसमें क्या है? और इतने वर्षों में यदि इस धारा के प्रावधानों में कोई तोड़मरोड़ हुई तो वह कैसे हुई? आगे बढ़ने से पहले इन सवालों से दो-चार होना जरूरी है।
आजाद कश्मीर फोर्स के नाम पर २४ अक्तूबर, १९४७ को जब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर राज्य पर हमला किया तो महाराजा हरिसिंह ने भारत सरकार से मदद मांगी। २६ अक्तूबर, १९४७ को उन्होंने भारत सरकार के साथ एक विलय समझौता किया जिसके तहत रक्षा, विदेशी मामलों तथा संचार क्षेत्र के सभी अधिकार भारत सरकार को दे दिए गए। इस विलय समझौते की रूपरेखा दूसरी रियासतों के प्रमुखों के साथ किए गए समझौतों जैसी ही थी। लेकिन भारत सरकार के कहने पर यह तय हुआ कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय का अंतिम फैसला जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा देगी। विलय समझौता होने और राज्य की संविधान सभा द्वारा इस पर विचार करने के बीच की अवधि के लिए भारत के संविधान में कुछ अस्थायी प्रावधान किए गए।यह व्यवस्था संविधान में धारा ३७० के जरिए की गई।
धारा ३७० का लब्बोलुआब यह है कि रक्षा, विदेशी मामलों तथा संचार के अलावा भारतीय संसद संघीय एवं समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बना सकती है लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामले में इन पर राज्य सरकार की मंजूरी जरूरी है। इस तरह जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा मिल गया। एक ओर जहां सभी राज्यों के मामले में भारतीय संसद को संघीय एवं समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने की असीमित शक्तियां हैं, वहीं जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में वह ऐसा केवल राज्य सरकार की सहमति से ही कर सकती है।
धारा ३७० की विषय-वस्तु से यह जाना जा सकता है कि यह एकदम अस्थायी व्यवस्था थी। जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा ने फरवरी, १९५६ में भारत में राज्य के विलय की अभिपुष्टि कर दी। इस अभिपुष्टि के साथ ही विलय का मसला पूरी तरह निबट गया। लेकिन रक्षा, विदेशी मामलों और संचार को छोड़कर अन्य विषयों पर संसद के अधिकार क्षेत्र का मसला लचीला बना रहा। राज्य सरकार की सहमति से राष्ट्रपति भारतीय संविधान के दूसरे प्रावधानों का दायरा जम्मू-कश्मीर राज्य तक बढ़ा सकते हैं।
दिल्ली समझौता
धारा ३७० के तहत भारत के राष्ट्रपति ने १९५० में पहला आदेश जारी किया था। आदेश जम्मू कश्मीर पर भारतीय संविधान के उन प्रावधानों को लागू करने से सम्बंधित था, जिनका सम्बंध विलय समझौते में उल्लिखित तीन विषयों से था।
भारत के नागरिक जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं होते। उन्हें राज्य में बसने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है। लेकिन जम्मू-कश्मीर के लोगों को दो नागरिकताएं प्राप्त हैं - भारत और राज्य के नागरिक के रूप में। जो जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं हैं, उन्हें अपनी 'अपात्रता' का खामियाजा भुगतना पड़ता है। वे राज्य में सम्पत्ति नहीं बना सकते । उन्हें राज्य विधानसभा, स्थानीय निकायों, पंचायतों या सहकारिता संघों के लिए मतदान करने का अधिकार नहीं है। इससे भी बढ़कर अन्यायपूर्ण यह है कि अगर कोई महिला (महिलाओं को राज्य की ओर से प्रमाणपत्र दिया जाता है जो शादी होने तक वैध रहता है। ऐसे व्यक्ति से विवाह करती है जो भारत का नागरिक है, पर राज्य का नागरिक नहीं है तो उसे सम्पत्ति से बेदखल कर दिया जाता है।
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भारतीय संविधान के कुछ अन्य प्रावधानों को जम्मू कश्मीर पर लागू करने के प्रस्ताव पर भारत सरकार तथा राज्य सरकार के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत हुई। शेख अब्दुल्ला तब जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री थे। बातचीत के बाद दोनों सरकारों के बीच सहमति हो गई। इस सहमति को दिल्ली समझौते (१९५२) के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार भारत के राष्ट्रपति ने १९५४ में संवैधानिक आदेश (जम्मू-कश्मीर से सम्बंधित) जारी किया। इस आदेश के जरिए भारतीय संविधान के अन्य दूसरे प्रावधानों को भी राज्य पर लागू किया गया। दूसरी ओर १९६६ में जम्मू-कश्मीर के संविधान में भी संशोधन किया गया। इसके अनुसार, सदर ए-रियासत के पदनाम को बदलकर राज्यपाल तथा प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्री कर दिया गया।
संक्षेप में फिलहाल स्थिति यह है कि रक्षा, विदेशी मामलों तथा संचार के अतिरिक्त भारतीय संविधान के कई प्रावधानों का दायरा बढ़ाकर जम्मू-कश्मीर तक कर दिया गया है। संविधान के जिन प्रावधानों का विस्तार किया गया है, उनमें धारा ३५६, उच्चतम न्यायालय, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक तथा निर्वाचन आयोग के क्षेत्राधिकार में जम्मू-कश्मीर को शामिल करना प्रमुख है।
इसके बावजूद अब भी ऐसे अनेक विषय हैं जो पूरी तरह राज्य के अधिकार क्षेत्र में हैं। इनमें समवर्ती सूची का काफी हिस्सा तथा अन्य अवशिष्ट शक्तियां शामिल हैं। धारा ३५२ बहुत ही सीमित रूप में राज्य पर लागू है। इसमें राष्ट्रपति को आपात्काल की घोषणा करने का अधिकार प्राप्त है। धारा ३६० भी राज्य पर लागू नहीं होती। इसके
जरिए राष्ट्रपति वित्तीय आपातस्थिति की घोषणा कर सकते हैं। अत: राष्ट्रपति न तो राज्य के संविधान को स्थगित कर सकते हैं और न ही वह धारा ३५६ के तहत कोई निर्देश ही दे सकते हैं।
राज्य का अपना संविधान है और दुर्भाग्य से यह धारा ३७० की ही देन है। भारत के किसी भी दूसरे राज्य का अपना अलग संविधान नहीं है। अन्य सभी राज्यों की संरचना एक सी है जो संविधान के चौथे भाग में वर्णित है।
प्रदेश संविधान के प्रावधान
जम्मू-कश्मीर के संविधान के प्रावधान कई समस्याएं पैदा करते हैं। खासकर ये दिक्कतें सम्पत्ति, नागरिकता और निवास के अधिकारों से जुड़ी हैं। भारत के नागरिक जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं होते। उन्हें राज्य में बसने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है। लेकिन जम्मू कश्मीर के लोगों को दो नागरिकताएं प्राप्त हैं - भारत और राज्य के नागरिक के रूप में। जो जम्मू कश्मीर के नागरिक नहीं हैं, उन्हें अपनी अपात्रता' का खमियाजा भुगतना पड़ता है। वे राज्य में सम्पत्ति नहीं बना सकते। उन्हें राज्य विधानसभा, स्थानीय निकायों, पंचायतों या सहकारिता संघों के लिए मतदान करने का अधिकार नहीं है। इससे भी बढ़कर अन्यायपूर्ण यह है कि अगर कोई महिला (महिलाओं को राज्य की ओर से प्रमाणपत्र दिया जाता है जो शादी होने तक वैध रहता है) ऐसे व्यक्ति से विवाह करती है जो भारत का नागरिक है, पर राज्य का नागरिक नहीं है तो उसे सम्पत्ति से बेदखल कर दिया जाता है। यही नहीं, वह अपने माता-पिता की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी भी नहीं रहती। संविधान के ये प्रावधान राज्य एवं संघ के बीच भावनात्मक अलगाव पैदा करते हैं। साथ ही न्याय एवं निष्पक्षता के मौलिक सिद्धांत के विपरीत हैं। राज्य का अपना झंडा एवं अपना चिन्ह है जिसकी वजह से यह अस्वस्थ परिपाटी और भी विषम हो गई है। सरकारी भवनों पर राज्य और राष्ट्र के झंडे साथ-साथ लहराते हैं और नेशनल कांफ्रेंस के मंत्री प्राय: राष्ट्रीय ध्वज और नेशनल कांफ्रेंस का झंडा लगाते हैं।
पश्चिमी पाकिस्तान के विस्थापितों का मामला तो अब तक बेइंसाफी का बदतर नमूना है। विभाजन के वक्त पश्चिमी पाकिस्तान से कुछ हजार परिवार जम्मू-कश्मीर में भागकर आ गए और यहीं बस गए। वे इस राज्य में चार दशक से ज्यादा समय से रह रहे हैं। लेकिन हालात से विवश होकर और अपनी नियति के मारे इन बदनसीब लोगों को उनके आधारभूत मानवीय अधिकारों से भी वंचित रखा गया है। उनको, उनकी संतानों तथा उनकी तीसरी पीढ़ी तक को जम्मू-कश्मीर के कोई नागरिक अधिकार नहीं मिले हैं। वे राज्य विधानसभा या नगरपालिका या पंचायत चुनावों में वोट नहीं डाल सकते। वे राज्य सरकार या उसकी दूसरी एजेंसियों से कर्ज नहीं ले सकते। युवा लड़के लड़कियां राज्य के किसी मेडिकल, इंजीनियरी या कृषि कालेज में प्रवेश नहीं पा सकते।
कश्मीर में धारा ३७० और स्वायत्तता का जाल कुछ ऐसे बुना गया है कि इसका इस्तेमाल 'शेख राज' या 'सल्तनत' या मिनी पाकिस्तान खड़ा करने में हुआ है और वह भी भारतीय पैसे से। दुर्भाग्य से हमारे पास इस खेल को समझने की न तो पैनी दृष्टि है और न ही हम ऐसा करना चाहते है। कश्मीरी नेतृत्व का भारत के प्रति दृष्टिकोण यह रहता है, जब आप यहां से जा रहे हैं तो क्या छोड़ जा रहे हैं और जब वापस आ रहे हैं तो क्या ला रहे हैं?
जम्मू-कश्मीर में धारा ३७० को बनाए रखने की मांग का मकसद अलग है, जिसका उद्देश्य मुख्य धारा से कटे रहना, एक पृथक राज्य बनाना, एक अलग झंडा फहराना, एक मुख्यमंत्री की जगह एक प्रधानमंत्री रखना और एक राज्यपाल की जगह सदर-ए-रियासत रखना है। इसके पीछे न तो जनहित की भावना है, न शांति व प्रगति की इच्छा। और न ही विविधता के बीच सांस्कृतिक एकता प्राप्त करने की कोई चाह ही है, बल्कि इसके पीछे 'नए अभिजात वर्गों और 'नए शेखों' की स्वार्थ सिद्ध करने की इच्छा होती है।
द्विराष्ट्र सिद्धान्त
धारा ३७० में कैसे द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त निहित हैं और यह सिद्धांत कैसे राज्य में साम्प्रदायिकता के बीज बोता है, यहां के नेताओं के परिवार कल्याण कार्यक्रम के प्रति नजरिए से स्पष्ट हो जाता है। तकरीबन तमाम राजनीतिक दल और गुट भी इस कार्यक्रम के खिलाफ प्रचार करते हैं। उदाहरणार्थ, अवामी लीग के प्रमुख एवं पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम मोहम्मद शाह ने हाल में कहा-'सरकारी जन्य नियंत्रण कार्यक्रम का उद्देश्य राज्य के मुस्लिम बहुमत को अल्पसंख्यक बनाना है। राज्य में मुसलमानों की आबादी १९४७ में ८० प्रतिशत थी, जो अब घटकर ५४ प्रतिशत रह गई है। ऐसे बयान तथ्यात्मक तौर पर तो गलत होते ही हैं, परिवार कल्याण कार्यक्रम को भी नुकसान पहुंचाते हैं और साथ हो योंगापंथियों और कट्टरपंथियों के भीतरी सोच को भी उजागर करते हैं। वे परिवार कल्याण कार्यक्रम को इस्लाम-विरोधी और 'हिन्दू भारत' की साजिश करार देते हैं। इसी नजरिए का परिणाम है कि १९७१ से १९८९ के बीच में जम्मू एवं कश्मीर की आबादी वृद्धि दर देश में ज्यादा रहो। आबादी वृद्धि दर का राष्ट्रीय औसत जहाँ २५ था, यहां जम्मू और कश्मीर में वृद्धि दर २९ ६ रही।
जो लोग कश्मीर की स्वायत्तता की बात करते हैं, वे राज्य की विशाल सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता को नजरअंदाज कर देते हैं। जम्मू के लोगों को आकांक्षाएं अलग हैं। ये 'एक विधान, एक निशान, एक प्रधान में यकीन करते हैं उनकी संस्कृति और उनका व्यक्तित्व अलग है। इसी तरह, पुछ और राजौरी के मुस्लिमों की अलग ही सांस्कृतिक पहचान है। हिमाचल के सीमावर्ती कश्मीरी लोगों को पहचान अलग है। गूजर और बकरवाल भी अलग हैं और लद्दाख तो एकदम भित्र है।
अगर धारा ३७० बनाए रखी जाती है और स्वायत्तता के सवाल को जरूरत से ज्यादा उछाला जाता है तो कश्मीरियों के प्रभुत्व को नकारने के लिए हर क्षेत्र और सांस्कृतिक इकाई अपने लिए अलग धारा ३७० स्वायत्तता की मांग करेगी। इस दावे-प्रतिदावे के अंतहीन सिलसिले में राज्य और भी छिन्न-भिन्न हो जाएगा। जम्मू के साथ भेदभाव क्यों?
जम्मू क्षेत्र के लोगों को लंबे अरसे से यह शिकायत है कि धारा ३७० और राज्य के संविधान की आड़ में वर्षों से घाटी के नेता यू जोड़-तोड़ करते हैं कि राज्य के सत्तातंत्र का झुकाव कश्मीर की ओर हो जाता है। जम्मू से हर १४ लाख की आबादी पर एक प्रतिनिधि लोकसभा में भेजा जाता है, जबकि कश्मीर से हर १० लाख आबादी पर
एक प्रतिनिधि भेजा जाता है। जम्मू का क्षेत्रफल कश्मीर से ७० प्रतिशत ज्यादा है और उसकी आबादी राज्य की आबादी का ४५ प्रतिशत है। मगर राज्य विधानसभा की ७६ सीटों में से जम्मू के पास सिर्फ ३२ सीटें हैं और कश्मीर के पास ४२ सीटें। राज्य विधानसभा में जम्मू से हर ९० हजार आबादी पर। एक सदस्य चुना जाता है, जबकि कश्मीर से हर ७३ हजार आबादी पर घाटी में १९७२में अचानक तीन नए जिले बना दिए गए, जबकि वजीर आयोग (१९८१०८३) की सिफारिश के बावजूद जम्मू-क्षेत्र के तीन जिलों में किसी को मान्यता नहीं दी गई। खर्च का वितरण भी अनुचित है। उदाहरणार्थ, कश्मीर घाटी में हर वर्ष तकरीबन पांच लाख पर्यटक आते हैं। जम्मू के सिर्फ वैष्णो देवी मन्दिर में हर साल २० लाख से ज्यादा श्रद्धालु आते हैं, जिससे राज्य के आर्थिक विकास में काफी मदद मिलती है। मगर इन श्रद्धालुओं की मौलिक सुविधाओं के लिए राज्य की ओर से कुछ नहीं किया गया। यहां तक कि कटरा तक जाने वाली सड़क भी काफी संकरी है, जिस पर रोज हजारों बसें और अन्य वाहन चलते हैं। दूसरी ओर भारी भरकम, कभी-कभी राज्य पर्यटन बजट का ९० प्रतिशत घाटी की पर्यटन सुविधाओं के लिए दे दी जाती है। दो मौजूदा परियोजनाओं, गुलमर्ग केबल कार और श्रीनगर गोल्फ कोर्स पर ५० करोड़ रुपए खर्च आएगा। मगर जम्मू में डोगरा कला वीथी एकदम तिरस्कृत पड़ी है, जिसमें दुर्लभकलाकृतियां हैं। इसी तरह, जम्मू का क्षेत्रफल २६,२२,२९३ वर्ग किलोमीटर है और उसके हिस्से में ३५०० किलोमीटर लम्बी सड़कें हैं, जबकि कश्मीर का. क्षेत्रफल १५,८५३ वर्ग किलोमीटर है और उसके हिस्से में ४९०० किलोमीटर लम्बी सड़कें हैं। इस तरह जम्मू के १८ प्रतिशत हिस्से में सड़कें हैं, जबकि कश्मीर में ४० प्रतिशत हैं।
लद्दाख के लोगों में काफी रोष है कि धारा ३७० के तहत मिलने वाले फायदे कश्मीरी नेताओं के हाथों में सौंप दिए गए हैं। उनकी शिकायत है कि वे 'स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र संतानें नहीं हैं। बल्कि उन्हें कश्मीरियों की दया पर छोड़ दिया गया है। वे अक्सर कहते सुने जाते हैं कि 'यदि भारत हम लोगों को कश्मीरी प्रभुत्व के तहत रखता है तो यह उतना ही खराब है, जितना चीनी शासन के तहत रहना'। लद्दाखी बौद्ध संघ ने १९४९ में प्रधानमंत्री नेहरू से भावुक अपील भी की, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ और धारा ३७० के तहत घाटी के नेतृत्व ने लद्दाख पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया। लद्दाखी बौद्धों ने १९४९ में जुलाई से सितम्बर के बीच हिंसक आन्दोलन चलाया पर कश्मीरी प्रभुत्व और शोषण के खिलाफ भारी रोष का इजहार था।
जम्मू एवं कश्मीर में पहला काम स्वायत्तता के खोटे सिक्के को उछालते रहना और सांस्कृतिक पहचान के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाते रहना नहीं, बल्कि गरीबी, भूख और बीमारी दूर करना है तथा सभी गरीबों और दुखियारों को समान रूप से संतुलित विकास का मौका देना है। अब तक पिछड़ापन दूर नहीं किया जाता, असली स्वतंत्रता और लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं। यहां तक कि कश्मीरी संस्कृति भी उखड़ सकती है।
कुछ नेता और प्रेक्षक बार-बार कहते हैं कि धारा ३७० विश्वास की बात है। वे खुद यह नही जानते कि इसका मतलब क्या है। क्या राज्य को पूर्णरूपेण भारतीय संविधान के भीतर लाने से इस 'विश्वास' को और मजबूत व न्यायपूर्ण नहीं बनाया जा सकता।
'ऐतिहासिक जरूरत' और 'स्वायत्तता' जैसे शब्दों के पीछे भी ऐसा ही दिमाग है। इस ऐतिहासिक जरूरत का मतलब यह लगाया जाए कि एक हाथ से आप भारी कीमत पर कश्मीर को भारत का अंग बनाएं और दूसरे हाथ से उसे तशतरी में रखकर भेंट हो जाने दें? स्वायत्तता या १९४७ या १९५३ की पूर्वस्थिति के क्या मायने हैं? क्या इसका मतलब यह है कि कश्मीरी नेतृत्व कहे आप भेजो और मैं खर्च करूगा, आप कुछ नहीं कहेंगे।' अगर हम एक भ्रष्ट और निर्मम व्यवस्था का निर्माण करते हैं जिससे एक ऐसी स्थिति पैदा होती है कि हरदम आपके सिर पर अलगाववाद की तलवार लटकती रहे।
क्या धारा ३७० रद्द की जा सकती है, अगर हां, तो कैसे? यदा कदा यह तर्क दिया जाता है कि राज्य की संविधान सभा की स्वीकृति के बिना ऐसा करना संविधानसम्मत नहीं होता। कहा जाता है कि संविधान को सरसरी तौर पर पढ़ने से भी इस सम्बंध में स्थिति स्पष्ट हो जाती है। धारा ३७० में कहा गया है 'राष्ट्रपति अधिसूचना जारी कर यह घोषणा कर सकते हैं कि यह धारा ३७० अब प्रभावी नहीं रहेगी, बशर्ते राज्य की संविधान सभा इस आशय की अनुशंसा करे।
संविधान सभा को सिफारिश राष्ट्रपति की पोषणा की पूर्वशर्त है। सरकार ३७० को खत्म भी करना चाहे तो यह संवैधानिक रूप से राज्य की संविधान सभा की सिफारिश के बिना ऐसा नहीं कर सकती। धारा ३६८ के तहत संविधान संशोधन का अधिकार भी इस मामले में काम नहीं आएगा।
संविधान की धाराएं
ऊपर से यह तर्क काफी ठोस लगता है। लेकिन संविधान की किसी भी धारा को अलग-थलग करके नहीं देखा जा सकता। संविधान को पहली धारा ज्यादा महत्व रखती है, जिसके अनुसार:
१ भारत राज्यों का एक संघ होगा।
२ उसके राज्यों और भूभागों का स्पष्ट उल्लेख प्रथम अनुसूची में होगा।
३ उसके अंदर निम्न भूभाग होंगे:
(क) राज्यों के भूभाग
(ख) प्रथम अनुसूची में दर्ज संघीय प्रदेश और
(ग) ऐसे अन्य प्रदेश जो संघ में शामिल किए जाएं।
संविधान की प्रथम अनुसूची में जम्मू एवं. कश्मीर १५वें राज्य के रूप में दर्ज है इसलिए इस पर धारा एक पूरी तरह लागू होती है। दूसरी ओर धारा ३७० संक्रमणकालीन है। संविधान के २१वें भाग का शीर्षक ही है:' अस्थायी संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान' जब धारा ३७० संविधान में शामिल की गई तो माना गया कि यह अल्पकालिक और संक्रमणकाल के लिए है। चूंकि अब राज्य की संविधान सभा का अस्तित्व नहीं है, इसलिए अनुच्छेद ३७० के अनुसार इसकी पूर्व स्वीकृति का सवाल ही नहीं उठता। एक मृत संस्था से सहमति प्राप्त करने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए धारा ३६८ के तहत संसद, जिसमें राज्य के भी प्रतिनिधि होते हैं, संविधान का संशोधन कर सकती है। इसके बाद, राज्य की संविधान सभा से पूर्व अनुमति लेने सम्बंधी प्रावधान खत्म किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के पूरा हो जाने पर राष्ट्रपति धारा ३७० के रद्द किए जाने की अधिघोषणा कर सकते हैं।
कश्मीर के मौजूदा हालात से स्पष्ट है कि धारा ३७० ने अलगाववादी मानसिकता पैदा की है और इससे देश की अखण्डता को खतरा है। इसलिए संसद को कार्रवाई करनी चाहिए और
यदि धारा ३७० को खत्म किया गया तो कश्मीर का भारत से सम्बंध भी खत्म हो जाएगा-यह तर्क अत्यधिक कानूनी है और इसका व्यवहार में कोई मतलब नहीं है। |
जब अदालतों से संविधान की व्याख्या करने और धारा एक, धारा ३६८ और धारा ३७० में तालमेल बैठाने को कहा जाए तो उन्हें देश की क्षेत्रीय अखण्डता के तर्को को स्वीकार करना चाहिए और धारा ३७० खत्म करने के संसद के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। खासकर जब इस धारा का इस्तेमाल अन्याय के एक साधन के तौर पर किया जा रहा हो।
संविधान की धारा ३५५ भी अत्यन्त महत्त्व की है। इसके मुताबिक यह केन्द्र सरकार का दायित्व है कि वह राज्यों को बाहरी आक्रमण और आन्तरिक गड़बड़ियों से रक्षा करे। अगर धारा ३७० केन्द्र सरकार को अपना मौलिक संवैधानिक दायित्व निभाने की राह में रोड़ा बनती है तो इसे खत्म होना ही चाहिए। मौजूदा स्थिति यह है कि जम्मू एवं कश्मीर में बाहरी आक्रमण का खतरा और आन्तरिक विद्रोह दोनों हैं। धारा ३७० इन्हें भड़काने में मददगार रही है तो यह केन्द्र को जिम्मेदारी बनती है कि वह धारा ३५५ द्वारा निर्धारित दायित्वों को पूरा करे। इस तरह, यदि धारा ३७० को धारा एक और धारा ३५५ के साथ मिलाकर देखा जाए जो धारा ३६८ के तहत धारा ३७० की उपधारा का खत्म किया जाना पूर्णत: वैध होगा और इसके बाद राष्ट्रपति द्वारा धारा ३७० को रद्द करने की घोषणा करना एकदम सही होगा।
यह भी कहा जा सकता है कि धरा ३७० को तीव्रता को ३५-ए को, रह करके भी समाप्त किया जा सकता है यदि यह रदद होती है तो १९ (१) (इ) और (जी) पूरी तरह प्रभावी हो जाएगी, जिनके अनुसार 'सभी नागरिकों को हक है कि (ए) ये भारत के किसी भी भूभाग में रहे और बसें, (बी) कोई भी पेशा, नौकरी, या व्यवसाय करें।
संविधान का भाग तीन पहले से ही जम्मू एवं कश्मीर पर लागू है। अगर धारा १८(ई) और (जी) को भी पूरी तरह वहां लागू कर दिया जाए तो कोई भी भारतीय जम्मू एवं कश्मीर में बस सकता है और भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक अधिकारों के खिलाफ जाने वाले जम्मू एवं कश्मीर संविधान के अन्यायपूर्ण कानून अपने आप खत्म हो जाएंगे।
राज्य विषयों के संदर्भ में 'प्रतिबंधों' को वकालत करने वालों का तर्क होता है कि इन प्रतिबंधों को १९४७ के बाद न तो राज्य सरकार ने और न शेख अब्दुल्ला ने लगाया है, बल्कि महाराजा ने १८९३ में ही डोगरा और पंडित सभाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर लगाया था। यह तर्क संदर्भहीन है। हम १८९३ की परिस्थितियों, सोच और तब के मूल्यों से नहीं निर्देशित होते बल्कि आज की आकांक्षाओं और भारतीय संविधान के मौलिक सिद्धान्तों के अनुसार चलते हैं, जो न्यायपूर्ण नहीं है। उसे खत्म होना ही चाहिए।
कभी-कभी यह तर्क भी दिया जाता है किन यदि धारा ३७० को खत्म किया गया तो कश्मीर का भारत से सम्बंध भी खत्म हो जाएगा। यह तर्क अत्यधिक कानूनी है और इसका व्यवहार में कोई मतलब नहीं है। अगर ब्रिटिश संसद भारतीय स्वतंत्रता कानून को पिछले प्रभाव से संशोधित कर दे, जिसके लिए कानूनन वह सक्षम है, तो क्या भारत फिर उपनिवेश हो जाएगा?
समय आ गया है कि धारा ३७० और जम्मू एवं कश्मीर के पृथक संविधान को अलविदा कह दिया जाना चाहिए। इसलिए नहीं कि ऐसा करना कानूनी और संवैधानिक रूप से संभव है, बल्कि हमारे अतीत और वर्तमान जीवन के व्यापक और ज्यादा मौलिक सरोकारों का यही तकाजा है। इस धारा और इसके तमाम ताम-झाम को खत्म किया जाना जरूरी है।
(जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन की पुस्तक 'माई फ्रोजन टर्बुलेंस इन का पीर' में धारा ३७० के विषय पर लेख में से कुछ अंश यहां पर दिए गए हैं।)
अस्वीकरण:
उपरोक्त लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और kashmiribhatta.in किसी भी तरह से उपरोक्त लेख में व्यक्त की गई राय के लिए जिम्मेदार नहीं है।
साभारः - जगमोहन एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य