जम्मू - कश्मीर सहायता समिति - बारूदी विस्फोटों और नरसंहार के बीच ममता का स्पर्श

- जम्मू - कश्मीर सहायता समिति - बारूदी विस्फोटों और नरसंहार के बीच ममता का स्पर्श




जम्मू - कश्मीर सहायता समिति - बारूदी विस्फोटों और नरसंहार के बीच ममता का स्पर्श

19 जनवरी, 1990 की रात कश्मीरी हिन्दुओं के लिए घाटी में प्रलय की रात थी। उस रात कश्मीर की हजारों मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकरों से इन नारों की गूंज आकाश को छू गई-

'ऐ काफिरो, ऐ जालिमो, कश्मीर हमारा छोड़ दो! यहां क्या चलेगा निजाम-ए-मुस्तफा

हम क्या चाहते, आजादी

आजादी का मतलब क्या लाइलाह-इलल्लाह

भारतीय कुत्तो वापस जाओ भारत के ऐवानों को, आग लगा दो! आग लगा दो!!

असि छु बनावुन पाकिस्तान बटव रोस्तुय बटन्यव सान

(-मूलकश्मीरी में)

(अर्थात हमे कश्मीर में ऐसा पाकिस्तान बनाना है जिसमें पंडितों के बिना पंडितानियां रहेंगी)

रात में भारत विरोधी नारे पूरी कश्मीर घाटी में गुंजायमान थे जिसके कारण कश्मीरी पंडितों को घाटी से निकल जाने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं बचा। क्योंकि इससे पहले कट्टर मुस्लिम आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों के घरों में धमकी भरे पत्र भेजने आरम्भ कर दिए थे कि या तो इस्लाम कबूल करो या कश्मीर छोड़कर कहीं बाहर भाग जाओ।

वर्ष १९८९ के दिसम्बर और जनवरी'९० के मध्य तक सैकड़ों कश्मीरी पंडितों ने रातोंरात जम्मू पहुंच कर सामूहिक पलायन करना शुरू कर दिया था । इस बीच 19 सितम्बर 1989 को जम्मू -कश्मीर भाजपा के तत्कालीन उपाध्यक्ष एवं अधिवक्ता स्व टीकालाल टपलू को श्री नगर में उनके घर के निकट आतंकवादियो ने गोली का निशाना बनाया। उधर पूर्व योजना के तहत आतंकवादियों ने अनन्तनाग (कश्मीर) के अधिवक्ता प्रेमनाथ भट्ट की भी २८ दिसम्बर, १९८९ को हत्या कर दी। इसके बाद तो कश्मीर में

बड़े पैमाने पर नरसंहार शुरू हुआ और कश्मीरी पंडितों तथा उनकी बहू-बेटियों को आतंकवादियों ने निशाना बनाया। इनमें सरला भट्ट, प्राणा गंग, लीलाधर जैसी अनेक महिलाएं शामिल हैं जिनको आतंकवादियों ने अपमानित कर मौत के घाट उतार दिया। मगर केन्द्र सरकार इस सच्चाई को छुपावी गई। कश्मीर से जम्मू में कश्मीरी पंडितों का विस्थापन बढ़ता गया, लेकिन प्रदेश की नेशनल कांफ्रेंस सरकार ने इस सच्चाई से मुंह फेर लिया। प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा फारूक अब्दुल्ला विस्थापितों की सहायता करने में अनिश्चितता की स्थिति में आ गए।

 

समिति का गठन

लेकिन घाटी के बारूदी विस्फोटों और हिन्दुओं के नरसंहार के बीच कश्मीरी पंडितों के लिए ममता का जम्मू -कश्मीर सहायता समिति' नामक संस्था लेकर आई। इस समिति ने जम्मू के स्थानीय गीताभवन परिसर में ६ जनवरी, १९९० को विभिन्न सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक संगठनों को आपातकालीन बैठक बुलाई। इस बैठक में विस्थापितों के लिए तत्काल राहत राशि पहुंचाने के सम्बंध में विचार-विमर्श हुआ तथा पांच सदस्यों की एक समिति गठित की गई।

१६ जनवरी, १९९० को जम्मू शहर में इस समिति के तत्वावधान में विस्थापितों का विशाल, जुलूस निकला। तत्कालीन तथा वर्तमान में भी प्रदेश के राज्यपाल जनरल (अवकाश प्राप्त ) के बी. कृष्णाराव को समिति के पदाधिकारियों ने विस्थापितों की ज्वलंत समस्याओं से अवगत कराया तथा साथ ही घाटी की भारत-विरोधी गतिविधियों के बारे में भी उनका ध्यान आकर्षित किया। इससे पहले १ जनवरी, १९९० को ऑल स्टेट कश्मीरी पंडित कांफ्रेन्स के अध्यक्ष अमरनाथ वैष्णवी, प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष भगवतस्वरूप तथा समिति के अन्य अधिकारी केन्द्र सरकार तथा विभिन्न राजनीतिक पार्टी के नेताओं से मिलने दिल्ली गए।

यह प्रतिनिधिमण्डल तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के अतिरिक्त माकपा के नेता हरिकृष्ण सिंह सुरजीत, एन के. फारूकी तथा भाजपा के वरिष्ठ नेताओं-लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी तथा केदारनाथ साहनी से भी मिला। जब सरकार ने तत्काल कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो कश्मीरी विस्थापितों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए ११ फरवरी, १९९० को जम्मू में एक विशाल सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सनातन धर्मसभा, ऑल स्टेट कश्मीरी पंडित कांफ्रेन्स, गुरुद्वारा सिंह सभा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् तथा अन्य २० धार्मिक, सामाजिक संस्थाओं ने भी भाग लिया। इसमें 'जम्मू-कश्मीर सहायता समिति का गठन किया गया। इसका कार्यालय, १६ फरवरी, १९९० को स्थानीय गीताभवन परिसर में स्थापित किया गया।

समिति के संरक्षक प्रदेश के प्रान्त प्रचारक इन्द्रेश कुमार तथा भाजपा नेता केदारनाथ साहनी मनोनीत हुए। प्रधान वैद्य विष्णुदत्त, उपप्रधान चमनलाल गुप्त, अमरनाथ वैष्णवी, महामंत्री, डा. सुभाष चन्द्र तथा मंत्री भगवतस्वरूप एवं हीरालाल चत्ता बने। कोषाध्यक्ष मनोहरलाल वैद, उप कोषाध्यक्ष हृदय नाथ भट्ट बने। ओमप्रकाश मेंगी, अशोक कौल, हरजीलाल जद, मोतीलाल मल्ला एवं सुरेश डोगरा को कार्यकारिणी के सदस्य घोषित किया गया। समिति का प्रतिनिधिमण्डल तत्कालीन जम्मू सम्भाग के जिला आयुक्त से मिला। तत्पश्चात प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन के निर्देशानुसार प्रशासन की तरफ से सभी प्रकार की सहायता का आश्वासन दिया गया जिसके फलस्वरूप १६ फरवरी, १९९० को गीताभवन परिसर में एक शिविर स्थापित कर विस्थापितों का पंजीकरण हुआ। बाद में यह कार्य सरकार ने अपने हाथ में लिया।

सहायता का कार्य

तत्पश्चात सहायता समिति ने विस्थापितों के लिए नाना प्रकार की सहायता देनी शुरू की तथा दी भी जा रही हैं। इसी क्रम में विस्थापितों को अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ दिए गए। शहीदों के परिवारों को १,००० से १०,००० रुपए प्रति परिवार राहत राशि के रूप में दिए गए। मृत व्यक्ति के अन्तिम संस्कार के पूर्ण व्यय के साथ-साथ सम्बंधित परिवार को हरिद्वार आने जाने की व्यवस्था की गई।

प्रत्येक विस्थापित परिवार को पंजीकृत कर उसका सरकार से राशनकार्ड बनवाने तथा आवास दिलाने तक के कार्य में समिति जुटी है। जरूरतमन्द परिवार में कन्या-विवाह हेतु १,००० से ५,००० रुपयों की नकद राशि तथा गरीब परिवारों को ३०० से २,००० रुपए तक की सहायता राशि दी जा रही है। अभी तक यह राशि २०,००० परिवारों को मिल चुकी है। उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थियों को आर्थिक मदद तथा असाधारण रोग के इलाज के लिए प्रत्येक व्यक्ति को २ से २५ हजार रुपए दिए जा रहे हैं। इसके अलावा अच्छे संस्कार के प्रसार हेतु ऐतिहासिक व धार्मिक साहित्य सम्बंधी १० पुस्तकालय तथा वाचनालय खोले गए हैं। साथ साथ अनेक क्षेत्रों में सर्वतोमुखी विकास और कल्याण की योजनाएं क्रियान्वित की गई हैं। ये क्रियान्वयन सुचारू ढंग से जारी है।

जम्मू-कश्मीर सहायता समिति न केवल जम्मू में रह रहे विस्थापितों के लिए बल्कि देश के अन्य भागों में निर्वासन की जिन्दगी जी रहे विस्थापितों के लिए सहायता का काम कर रही है। देश के अन्य भागों में समिति का यह कार्य वहां के स्थानीय संगठनों के माध्यम से हो रहा है। .

अस्वीकरण:

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साभारः   10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य