24 Ed-Pan-00041994 कहां हैं हमारे मानवाधिकार
आज कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन का मामला जोर-शोर से उठाया जा रहा है। आरोप है कि कश्मीर की जनता के मौलिक अधिकारों का हनन किया जा रहा है और वह आतंक के साए में जी रही है। अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से लेकर एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित विश्व के कई संगठन मानवाधिकारों के नाम पर भारत सरकार को कोस रहे हैं। ऐसी स्थिति में कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हुए और हो रहे अत्याचारों, कश्मीर समस्या की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और वहां बढ़ रहे आतंकवाद की वास्तविक पृष्ठभूमि और स्थिति स्पष्ट करना आवश्यक है।
सांस्कृतिक, ऐतिहासिक आवश्यकता व भौगोलिक सामीप्य को ध्यान में रखते हुए महाराजा हरिसिंह ने पाकिस्तान के बजाय भारत में कश्मीर के विलय संबंधी संधिपत्र पर हस्ताक्षर किए। कश्मीर भारत का उसी प्रकार अभिन्न अंग हो गया जैसे अन्य ३५० रियासतें । लेकिन उनके तत्काल बाद सत्ता में आए शेख गुलाम महमूद ने एक याचिका दायर की। १९५७ में जम्मू और कश्मीर के संविधान की रचना करते समय सदा-सर्वदा के लिए घोषणा की गई कि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न और अविभाज्य अंग है। बाद में हुए चुनावों 'में भी इसकी पुष्टि हो गई। विलय के संदर्भ में संविधान सभा का निर्णय जनमत संग्रह से कम न था। अतः जनमत संग्रह की बात तो एक झुनझुना है जिससे पाकिस्तान के शासक अपने देश की जनता को बहला रहे हैं। इससे न तो वे अपने देश की जनता का कुछ भला कर पा रहे हैं और न ही मानवता की सेवा। वे कश्मीर के सवाल पर कभी युद्ध तो कभी छायायुद्ध का आमंत्रण देकर मानवीयता को आक्रांत कर रहे हैं।
हाल ही में पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने राष्ट्रीय एसेम्बली में कहा था - 'इंशा अल्लाह-जम्मू और कश्मीर जल्दी ही पाकिस्तान का एक हिस्सा होगा!' क्या मानवाधिकार संगठनों की बेनजीर से इस वक्तव्य की व्याख्या नहीं करवानी चाहिए कि इस कथन के पीछे उनका क्या अभिप्राय है? परन्तु उसके वक्तव्य से एक बात स्पष्ट है कि वह विशेष रूप से कश्मीरियों तथा व्यापक रूप में भारत तथा पाकिस्तान के लोगों की भावनाओं को भड़काती हैं। इससे लगता है कि वे भारत और पाकिस्तान के युद्ध के साए में जी रहे हैं।
गत मार्च जिनेवा में सम्पन्न मानवाधिकार सम्मेलन में विश्व के कई देशों के अतिरिक्त भारत के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। वहीं जे. के. नेशनल फ्रंट इन्टरनेशनल (डेनमार्क में मुख्यालय), सेव कश्मीर फ्रंट (दिल्ली), वाइस आफ जम्मू कश्मीर (जम्मू) तथा आल स्टेट कश्मीरी पंडित कांफ्रेस शीतलनाथ, श्रीनगर (जम्मू) जैसे संगठनों ने कश्मीर के मानवधिकारों के हनन का सच उद्घाटित करने के लिए सामग्री भेजी थी। 'कश्मीर में आतंकवाद और मानवाधिकारों की अवहेलना'-पत्रक, जिसे जिनेवा के मानवाधिकार सम्मेलन में वितरित किया गया; में स्पष्ट लिखा है
कश्मीर में १९८९ से ही मजहबी युद्ध जारी है। तथ्यों और रिपोर्ट से स्पष्ट है कि घाटी के हिन्दू पाकिस्तान प्रेरित मजहबी युद्ध के साए में कश्मीर से पलायन कर चुके हैं। भारत सरकार आतंकवाद पर काबू पाने की कोशिश कर रही है। पर यदि हम अन्तरराष्ट्रीय समुदाय के लोग अन्तरराष्ट्रीय छत के नीचे रहना चाहते हैं तो इससे कैसे मुंह फेर सकते हैं? सबसे पहला सवाल तो यह उठेगा कि इन तीन लाख कश्मीरी विस्थापित परिवारों को निराशा, उच्च रक्तचाप, मानसिक व शारीरिक उत्पीड़न और इन सबसे बड़कर कुपोषण का शिकार किसने बनाया? इसका जवाब पाकिस्तान स्थित उन ५४ प्रशिक्षण शिविरों में ढूंढ़ा जा सकता है जहां कश्मीर के मुस्लिम नवयुवकों को ले जाया जाता है और उन्हें अत्याधुनिक हथियार चलाने तथा मजहबी कट्टरवाद के नाम पर कहर बरपाने का प्रशिक्षण दिया जाता है।
खामोश मानवाधिकार
इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई कश्मीरी मुस्लिम युवकों को सीमा पार कराने और अलगाववादी गतिविधियों में सक्रिय रहने के लिए पैसे देती है। पाकिस्तान सरकार भारत की सहिष्णुता का दुरुपयोग कर रही है। क्या मानवाधिकार एक व्यक्तियों के समूह को इस बात की इजाजत देता है कि वह हथियार हाथ में लेकर विध्वंस का नंगा नाच करे? जैसा कि कश्मीर में हो रहा है। कश्मीर में कट्टर आतंकवादियों ने अल्पसंख्यक हिन्दुओं की बर्बरता से हत्या कर दी। बृजनाथ शाह का अपहरण कर आतंकवादियों ने उसके होंठ सी दिए। श्यामलाल के हाथ-पैर काट दिए गए और उसके सर के कई टुकड़े कर दिए गए। जीवन बीमा निगम के जो अधिकारी आतंकवाद से पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए गए थे, उन पर भी निर्भम अत्याचार किए गए और उन्हें कश्मीरी विस्थापितों के घर में जिन्दा जला दिया गया।
सवाल यह है कि यदि लोगों को इस तरह से अत्याचार करने का अधिकार दे दिया गया तो मानवाधिकार का क्या अर्थ रह जाता है? कश्मीरी पंडितों पर ये अत्याचार इसलिए नहीं किए गए कि उनकी नई दिल्ली के प्रति निष्ठा थी बल्कि इसलिए किए कि वे हिन्दू थे।
इन चार संगठनों ने अपनी बात को पुष्ट करने के लिए उक्त पत्रक में लिखा है कि इस सबको देखते हुए मानवाधिकार को परिभाषित करने की जरूरत है और वह परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है 'मानवाधिकार का अर्थ स्वतंत्र वातावरण में शारीरिक मानसिक विकास का अधिकार है' क्या यह कश्मीर के आतंकवादियों पर भी लागू होगा? क्या चाहे अनचाहे सब पर एक जीवन पद्धति थोप दी जाएगी? यदि ऐसा है तो हमें कहना चाहिए कि मानवाधिकारों की परिभाषा बेनजीर के इस्लामी अधिकारों की परिभाषा में बदल देनी चाहिए।
१७ अगस्त, १९९३ को मानवाधिकार पर संयुक्त राष्ट संघ के एक उप-आयोग ने एक प्रस्ताव राजनीतिक असंतुष्टों या अन्य व्यक्तियों की हत्या की भत्र्सना की थी। इस प्रस्ताव में आतंकवाद के स्थायी होते जाने पर चिंता प्रकट की गई। कहा गया कि आतंकवादी कार्रवाई में निर्दोषों की हत्या होती है, व्यक्तियों की मौलिक स्वतंत्रता, राज्यों की सुरक्षा और प्रजातंत्र के लिए खतरा बढ़ जाता है और वैधानिक रूप से गठित सरकारें अस्थिर होती हैं, राज्य के आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसकी जितनी भी आलोचना की जाए, कम है।
पाक में कहा गया है कि क्या यह प्रस्ताव सिर्फ एक कागज का टुकड़ा है? क्या बेनजीर से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि पाकिस्तान की एसेम्बली में उन्होंने क्या कहा? उसका क्या आशय है? हमारे पास यह कहने के लिए पर्याप्त कारण हैं कि पाकिस्तान सरकार ने इस्लाम के नाम पर मानवाधिकारों की वैश्विक घोषणा का उल्लंघन किया है। यह घोषणा विकसित या तीसरी दुनिया के गरीब देशों में कोई अंतर नहीं करती। विकसित राष्ट्रों को चाहिए कि वे आतंकवाद का मुकाबला करने में भारत की सहायता करें अन्यथा एक बार परिवेश बिगड़ने के बाद सबको इसके परिणाम भुगतने होंगे, चाहे वह देश कितना भी विकसित क्यों न हो।
दोहरे मापदण्ड क्यों!
उचित कानूनी प्रक्रिया की यात केवल राज्य पर नहीं, व्यक्तियों पर भी लागू होती है। आज कश्मीर के तीन लाख लोगों को अपने घर जाने की इजाजत नहीं है चूंकि वे हिन्दू हैं। सवाल वह है कि कौन स्वतंत्र भ्रमण के अधिकारों का उल्लपन कर रहा है?
१२ अगस्त, १९९३ को जिनेवा में मानवाधिकार उप-आयोग के समक्ष श्री पीटर विलयोर्न, जो अंतरराष्ट्रीय न्यायाधीशों से सम्बद्ध है, ने अधिकृत प्रदेशों में फिलस्तीनियों के स्वतंत्र भ्रमण को प्रतिबंधित करने पर टिप्पणी करते हुए कहा था 'इस भ्रमण को प्रतिबंधित करने की नीति से व्यक्तियों के घर छोड़कर जाने और वापस आने के अधिकार का उल्लंघन होता है', परन्तु कश्मीर के मामले में दूसरे मापदण्ड क्यों? क्या पाकिस्तान से इस बात का जवाब नहीं मांगा जाना चाहिए कि वह कश्मीर में आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन को, विस्थापित हिन्दुओं को घर लौटने में रोकने से क्यों प्रोत्साहित करता है और इसके साथ ही कई अन्य आतंकवादी संगठनों को सहायता एवं संगठन क्यों दे रहा है। न केवल कश्मीर में इन दिनों १५० से अधिक आतंकवादी संगठन भारत विरोधी प्रचार में सक्रिय हैं बल्कि विदेशी भाड़े के सैनिक भी इन गतिविधियों में सहयोग दे रहे हैं। आतंकवादी संगठनों को कश्मीर में आतंकवाद फैलाने में मदद कर रहे पाकिस्तान को क्यों नहीं आतंकवादी देश घोषित क्यों नहीं किया जा रहा है?
संयुक्त राष्ट्र संघ में १७ अगस्त, १९९३ को इराक के एक प्रान्त में अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभावपूर्ण
कश्मीर के शहीद भूषण लाल रैना (२९)
केन्द्रीय कर्मचारी, शेरे कश्मीर मेडिकल इंस्टीट्यूट, सोरा में कर्मचारी निवासी : रामपुर, जिला : बाडगाम हत्या : २८ अप्रैल, १९९०
अपराधः देशभक्ति
घाटी में आतंकवादियों की हिंसा को देखते हुए रैना ने अंत में अपनी मां समेत कश्मीर छोड़ने का फैसला कर लिया था। वह २९ अप्रैल को प्रस्थान करना चाहता था इसलिए एक दिन पहले ही यह घरेलू वस्तुओं को इकट्ठा करने में जुट गया। उसी दिन आतंकवादियों का एक गिरोह दरवाजा तोड़कर घर में घुस आया। आतंकवादियों को देख नवीन की बूढ़ी मां ने गिड़गिड़ाकर उनसे प्रार्थना की, 'मेरे बेटे की जान बख्श दो। चाहे मेरी जान ले लो। अभी तो उसकी शादी होने वाली है। परन्तु आतंकवादियों ने नवीन की मां की एक भी न सुनी।
आतंकवादियों ने एक नुकीली छड़ से नवीन के सिर में छेद कर दिया। उन्होंने उसे घर से बाहर घसीटा और उसके कपड़े फाड़ कर एक पेड़ पर खूटे से गाड़ दिया। फिर तिल-तिलकर उसे मारा। वह बेचारा चीखता ही रहा कि एक बार में क्यों नहीं मार देते। लेकिन आतंकवादियों ने उसे तड़पा-तड़पा कर मारा।
व्यवहार और संरक्षण के सवाल पर गहरी चिंता प्रकट की गई कि हजारों अरब शियाओं ने इराक सरकार द्वारा बमबारी के कारण इरान और इराक की सीमा पर शरण ली है। उसी प्रकार पाकिस्तान ने कश्मीर में हिन्दुओं को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर किया है। इस सवाल पर आज अंतरराष्ट्रीय समुदाय चुप क्यों है? सलमान रश्दी के सवाल पर मानवाधिकार के उप आयोग में यहस के दौरान भी श्री डेविड लिटमैन (इंटरनेशनल फेलोशिप आफ रिकंसीलेशन) ने कहा
था- 'कुछ मुस्लिम देशों में हत्याओं की याद आ गई है,जिसके कारण बुद्धिजीवी, लेखक और पत्रकारों की जान पर खतरा हो गया है। उसी चर्चा में ब्रिटेन के विशेषज्ञ केलिर पाले ने कहा 'जय प्रजातांत्रिक के में हिंसा होती है तो परिवर्तन के उपयुक्त माध्यम युलेट नहीं,बैलेट होते हैं। कश्मीर में मशीरुल हक, एच एल खेर, पी.एन. भट्ट, ए.के. पुंए, सर्वानन्द कौल प्रेमी बुद्धिजीवियों, एक पत्रकार मोहम्मद जफर मुस्तफा टीकालाल टपलू, ए.के गंजु जैसे सामाजिक चिंतक मकबूल भट्ट को फांसो को सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त न्यायाधीश एन के गंजू, तथा अस्सी वर्षीय राजनीतिज्ञ मौलाना मसूदी कट्टरवाद के शिकार हुए। पाकिस्तानी आतंकवादियों ने किश्तवाड़ में बस में सवार १६ निर्दोष हिन्दुओं की हत्या की। पाकिस्तान और क्या चाहता है?
दिसम्बर, १९९३ में प्रकाशित एमनेस्टी इंटरनेशनल की रपट में लिखा है, जम्मू और कश्मीर के सशस्व विरोधी समूह मानवाधिकार के उल्लंघन के अनगिनत बार यह देखने कौन सा मानवाधिकारवादी इन विस्थापितों के तम्बू में गया है? दोषी हैं, जिन्होंने राजनीतिज्ञों तथा उनके परिवारों, पत्रकारों एवं नागरिकों की हत्याएं की, जिनमें बंधक बनाना, अपहरण करना तथा बलात्कार की घटनाएं भी शामिल हैं।
एमनेस्टी ने सभी बंधक रिहा करने और मानवाधिकारों और मानवीय मूल्यों का सम्मान करने की अपील की। पर क्या उसका घाटी के हत्यारों और उनके आका आई.एस. आई और पाकिस्तान सरकार पर कुछ असर पड़ा?
बाजदीपोरा में एक स्कूल अध्यापिका गिरिजा का एक मुस्लिम सहकर्मी के घर से अपहरण कर लिया गया। उसके साथ सामूहिक बलात्कार कर उसे' आरी से काटा गया। क्या कोई मानवाधिकारवादी इसका औचित्य सिद्ध कर सकता है? कृषि विभाग के एक, कर्मचारी बृजनाथ कौल को चलती गाड़ी के साथ बांध दिया गया। उसका क्षत-विक्षत शव १० किलोमीटर दूर मिला। कश्मीरी हिन्दुओं के बहुत से शव मिले हैं, जिन पर लोहे की सलाखों के दाग के निशान हैं। कुछ की हत्या करने से पहले आंखें निकाल ली गयीं। कुछ ऐसे भी मामले आए हैं जहां अत्यधिक रक्तचाप से हत्या की गई। जो मारे गए, उनको अंतिम संस्कार के लिए भी उनके परिवारों को नहीं सौंपा गया।
आखिर यह सब क्या मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं हैं। कश्मीर के हिन्दू विस्थापित पूछ रहे हैं कि कहां है हमारे मानवाधिकार.
अस्वीकरण:
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साभारः 10 अप्रैल, 1994 पाञ्चजन्य