दिल्ली मजबूत हो तो अमरीका कुछ नहीं कर सकता

- दिल्ली मजबूत हो तो अमरीका कुछ नहीं कर सकता




जिस मूर्खतापूर्ण ढंग से अमरीका चल रहा है उससे वह खुद सबको अपने खिलाफ संगठित करने का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। यूरोप उनसे खफा है, जापान उनसे खफा है, चीन उनसे खफा है, ईरान बहुत खफा है, भारत उनसे खफा है। यह भारत के लिए एक तरह से अच्छा ही है। अगले दो, तीन महीने अमरीका का प्रशासन हड़बड़ाहट में रहेगा, क्लिंटन की अपनी समस्याएं हैं। हमें इस परिस्थिति का लाभ उठाना चाहिए।

पिछले दिनों कश्मीर से सम्बंधित दो बहुत महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक घटनाएं घटीं। २२ फरवरी को भारतीय संसद ने पाकिस्तान के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर को मुक्त कराने से सम्बंधित एक प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया और ९ मार्च को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्रमानवाधिकार आयोग में कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन से सम्बंधित अपना प्रस्ताव वापस ले लिया। यह सीधे-सीधे पाकिस्तान की बहुत बड़ी कूटनीतिक हार है। भारत और कश्मीर के लिए यह शुभ संकेत है। लेकिन सिर्फ इतने से ही सन्तोप करके बैठ जाना उचित नहीं। इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना जरूरी है।

इस घटनाक्रम से हमें कुछ सीख भी लेनी चाहिए। पहला सबक तो यह है कि जब देश एक आवाज से बोलता है तब दुनिया सुनती है और केवल तभी सुनती है। दूसरा सबक प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को यह सीखना चाहिए कि जब वे देश के हित में स्पष्ट बात स्पष्ट तरीके से कहते हैं तो सारे लोग, सारा देश उनको हर तरह की मदद देने के लिए तैयार रहता है। संसद में प्रस्ताव का सर्वसम्मति से पारित होना, विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी का भारतीय दल के नेता के रूप में जाना और जिनेवा में अन्य देशों का सहयोगपूर्ण रवैया, यह सब इस बात की पुष्टि करता है। गंभीर चेतावनी

तीसरी बात हमारे लिए चेतावनी है। जब संसद ने प्रस्ताव पारित किया तो कई अखबारों ने अपने सम्पादकीय में लिखा कि ऐसे प्रस्ताव पारित करने से क्या फर्क पड़ता है... यह तो एक ढोंग है.... इसका कोई महत्त्व नहीं। कोई महत्त्व नहीं? देश पहली बार एक साथ बुलन्द आवाज में कुछ कह रहा है और इनके लिए उसका कोई महत्त्व नहीं! पाकिस्तान की राष्ट्रीय एसेम्बली जब सर्वसम्मति से कोई प्रस्ताव पारित करती है तो हम थर्रा जाते हैं कि देखो वहां कितनी एकता है! लेकिन जब अपना देश कोई भी बात एकमत से कहता है तो ऐसे दुर्लभ अवसरों पर भी ये टीकाकार आलोचना करने से बाज नहीं आते।

अब यही टीकाकार फिर से अपनी पुरानी भाषा बोलने लगे हैं, लेख लिखे जा रहे हैं कि अब तो जिनेवा में जीत हो गई, अब तो हमें विशाल ह्रदयता दिखानी चाहिए। १९ मार्च के इंडियन एक्सप्रेस में लेख छपा है कि अब कश्मीर को १९५३ से पूर्व की स्वायत्तता दे ही देनी चाहिए। क्या हमें इन लोगों की बात सुननी चाहिए? कल्पना कीजिए कि यदि यह प्रस्ताव पारित हो जाता तब ये लोग क्या लेख लिखते? तब भी यही लिखते कि अब तो कोई और रास्ता नहीं है, हमारी कूटनीतिक हार भी हो गई है इसलिए हमारी आंखें खुल जानी चाहिए, हमें लोगों का दिल जीतने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए कश्मीर को १९५३ या १९४६ की स्वायत्तता दे देनी चाहिए। तो हमें इनकी लेखनी का खोखलापन देखना चाहिए और इनकी बातों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देना चाहिए। यह इस घटनाक्रम का तीसरा और बहुत महत्त्वपूर्ण सबक है।

धीरज से काम लें और, चौथा सबक यह है कि इसकी प्रतिक्रियास्वरूप हमें कोई जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए। रोज यह कहते रहना कि राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होगी, गलत है। (अभी कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने का माहौल नहीं बना है, अत: इसमें कोई जल्दबाजी भारी पड़ेगी) और कश्मीर के लोगों को, पाकिस्तान के लोगों को तथा पूरी दुनिया के लोगों को यह दिखना चाहिए कि हम किसी जल्दबाजी में नहीं हैं। उनको यह दिखना चाहिए कि भारत शांत है, धीरज धरे हुए और आत्मविश्वास से भरा हुआ है तथा आतंकवाद के पीछे जो विदेशी हाथ है उसे खत्म करने के लिए दृढ़ संकल्पित है। और इस सम्बंध में वह किसी से बातचीत करने नहीं जा रहा।

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चा की कमर तोड़ने के बाद ही इस्रायल ने उससे बातचीत की। इस तरह जब हम हिजबुल मुजाहिदीन, जे.के. एल.एफ. आदि की कमर तोड़ने में कामयाब हो जाएंगे और पाकिस्तान को महसूस होगा कि उसे इस सबकी कितनी कीमत चुकानी पड़ी, तब स्वाभाविक रूप से बातचीत शुरू हो जाएगी। इसलिए बार-बार ये बयान देने कि हम कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करेंगे, के बजाय हमें वहां सैनिक विजय हासिल करने पर जोर देना चाहिए। कश्मीर में लोग आतंकवाद से तंग आ रहे हैं, धीरे-धीरे और लोग भी आतंकवाद से परेशान होंगे। तब वे खुद भी आतंकवादियों को खत्म करने के लिए आगे आएंगे, जैसा कि पंजाब में हुआ। लेकिन इसके लिए पहले वहाँ सैनिक विजय हासिल करना बहुत जरूरी है।

 

अमरीकी खतरा

कश्मीर में इस समय खतरा कश्मीर के लोगों से नहीं है, कशमीर के आतंकवादी संगठनों से नहीं है, सबसे बड़ा खतरा अमरीका द्वारा पाकिस्तान को और पाकिस्तान द्वारा आतंकवादियों को समर्थन दिए जाने, उन्हें संगठित किए जाने से है। इसलिए रैफेल न आए या टेलबोट न आए, इस तरह की बातें करना बचकानापन होगा। रैफेल यदि आती है तो उसे आने दो और यहां उसे अच्छा सबक सिखाओ। उसे बताओ कि आप होती कौन हैं जो इस मामले में दखल दे रही हैं। चहाण साहब ने जो बात संसद में कही, वह उन्हें रैफेल के मुंह पर कहनी चाहिए।टेलबोट आए तो उन्हें भी सारी बातें

स्पष्ट रूप से बताइए। अब जैसे अमरीकी विदेश मंत्री वारेन क्रिस्टोफर चीन गए तो वहां उसको मुंहतोड़ जवाब देकर उल्टे पांव वापस भेज दिया। ऐसे ही भारत को भी करना चाहिए। इन कतूरों की बिसात क्या है जो ये भारत पर भौंक रहे हैं? हम लोग ऐसी बातों को अपनी इज्जत का प्रश्न बना लेते हैं और यही चर्चा करते रहते हैं कि रैफेल आएगी तो उसे भोज दिया जाए या नहीं? अरे भई, आप एक बार नहीं, पचास बार भोज पर आमंत्रित करिए, अच्छा खाना खिलाइए, लेकिन साथ ही सही बात भी सुनाइए।

कश्मीर के मामले में अमरीकी दादागीरी, का मुकाबला किस तरह करना चाहिए, इसके लिए हमें जापान से भी सबक सीखना चाहिए। जापान की राजनीति में पिछले पांच वर्ष से एक किताब छाई हुई है। शितारो इशिहारा की लिखी इस किताब का नाम है द जापान दैट कैन से नो' (जापान जो ना कह सकता है)। इस किताब में इशिहारा ने लिखा है कि अब अमरीका को हमें 'न' कहना चाहिए और प्यार से नहीं, साफ-साफ शब्दों में।

इशिहारा ने अनेक उदाहरण देकर यह बताने का प्रयास किया है कि जापान कई क्षेत्रों में अमरीका से श्रेष्ठ है। इन क्षेत्रों में अमरीका जापान पर निर्भर है और इसीलिए जापान इस स्थिति में है कि उसे अमरीकी दादागीरी मानने से इनकार कर देना चाहिए। पुस्तक में एक जगह लेखक के अमरीका और सोवियत संघ (पांच वर्ष पूर्व जब यह पुस्तक लिखी गई थी, तब तक सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ था) की मिसाइलों को तुलना की है और यह स्पष्ट किया है कि अमरीकी मिसाइलें श्रेष्ठ है, क्योंकि उनमें चौथी पीढ़ी के कम्प्यूटर इस्तेमाल हो रहे हैं।

पांचवी पीढ़ी के कम्प्यूटर, जो अभी विकास की प्रक्रिया में हैं, इन मिसाइलों और अन्य रक्षा उपकरणों को और अधिक मारक बना देंगे केवल जापान की इलैक्ट्रानिक कम्पनियां ही इतनी क्षमतावान हैं जो रक्षा उपकरणों के लिए अत्याधुनिक तकनीक विकसित कर सकती हैं। यदि जापान ऐसा न करे तो अमरीकी रक्षा विभाग पेंटागन असहाय हो जाएगा। यदि वह यह तकनीक अमरीका के बजाय रूस के बेच दो तो सारा समीकरण ही बदल जाएगा। अतः असली शक्ति तो जापान के पास है, इसी कारण वह अमरीका को 'न' कर सकता है।

जिस मूर्खतापूर्ण ढंग से अमरीका चल रहा है उससे वह खुद सबको अपने खिलाफ संगठित करने का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। यूरोप उनसे खफा है, जापान उनसे खफा है, चीन उनसे खफा है, ईरान बहुत खफा है, भारत उनसे खफा है। यह भारत के लिए एक तरह से अच्छा ही है। अगले दो, तीन महीने अमरीका का प्रशासन हड़बड़ाहट में रहेगा, क्लिंटन की अपनी समस्याएं हैं। हमें इस परिस्थिति का लाभ उठाना चाहिए। एक तो अपना दिल-दिमाग साफ करने के लिए ताकि हम भी चीन और जापान की तरह अमरीका के सामने साफ-साफ शब्दों में अपनी बात रख सकें।

और दूसरा हमें अमरीका के खिलाफ एकजुटता को मजबूत बनाना चाहिए। क्योंकि पहले जो एक सिद्धान्त था कि विश्व दो ध्रुवीय से एक ध्रुवीय हो रहा है, गलत सिद्ध हो गया। मैं तथा और बहुत से विचारक हैं जिनकी स्पष्ट मान्यता है कि बहुत जल्द यह विश्व बहुध्रुवीय हो जाएगा। एक तरफ यूरोप है, तो एक तरफ संयुक्त जर्मनी है, एक तरफ चीन है, जापान है जो अपने आपमें महाशक्तियां हैं और इसीलिए ये किसी की नहीं सुनेंगे। इसलिए सधे कदमों से चलने की रणनीति और चतुरता दिखानी होगी, पुनः, हमें अमरीका के विरोधियों को एकजुट करना होगा ताकि अमरीकी दादागीरी का जवाब देने के लिए पहले हम इस स्थिति का लाभ उठा सकें। लेकिन ऐसा करने के लिए हमें आंतरिक दृष्टि से भी मजबूत होना पड़ेगा। जापान के उदाहरण से हमें यह सीख मिलती है।

 

शक्तिशाली बनना आवश्यक

लेकिन यहां फिर मैं एक बात दोहराऊंगा कि जापान और चीन की तरह हम आर्थिक और सैन्य शक्ति बनकर ही कुछ कर सकते हैं, भूखे पेट नहीं। इन क्षेत्रों में हम कमजोर इसलिए हैं क्योंकि हमने अपने २५ बेशकीमती वर्ष समाजवाद में गंवा दिए। और अगर अब भी हम,बहसबाजी में उलझे रहेंगे तो कोई भी बड़ा देश गिद्ध की तरह हमारी बोटी बोटी खा जाएगा।

हमें एक बात और नहीं भूलनी चाहिए कि जिनेवा में पाकिस्तान ने अपने पक्ष में प्रचार करने के लिए एक हथियार कुछ भारतीय पत्रकारों के लेखों को भी बनाया। ये सभी लेख बेबुनियादी थे, अत: इनसे कश्मीर और देश का बहुत भारी नुकसान होता है। इसे रोकना बहुत जरूरी है और ऐसा हो, इसके लिए जरूरी है कि प्रेस राष्ट्रवादी विचारों के सच्चे लोगों के हाथ में हो। दुर्भाग्य से आज यह स्थिति नहीं है। इसलिए यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि लोगों को कम से कम यह तो बताएं कि जो कुछ समाचार पत्रों में छपता है, उस पर वे आंख मूंद कर भरोसा न करें।

कांग्रेस द्वारा पहली बार संसद में गुलाम कश्मीर के सम्बंध में प्रस्ताव लाना और जिनेवा में कश्मीरी हिन्दुओं के मानवाधिकारों की बात उठाना कांग्रेस की नीति में आया उल्लेखनीय परिवर्तन है। हालांकि इन बातों पर बार-बार भारत सरकार का ध्यान दिलाया गया है। अब इस परिवर्तन के पीछे एक ही कारण रहा है वह यह कि सरकार के सामने अब और कोई चारा नहीं रह गया था।

जब देश को बिल्कुल ही नीचे धकेल दिया गया, तब करने को बचा ही यही था। उधर चीन और ईरान ने हमारा समर्थन इसलिए किया क्योंकि उनको यह लगा कि भविष्य में ऐसे ही मुद्दों को लेकर उनको भी घेरा जा सकता है। मानवाधिकार के मामले में इन देशों की स्थिति हमसे बहुत खराब ही है, लेकिन विश्व समुदाय के सामने हमने अपनी सही बात इतनी देरी से ऐसे, हालात पैदा करके रुखी है कि हम इनमें से किसी के सामने कुछ कहने लायक नहीं रह गए हैं। यह बात फिर भी गौण है। अलग-अलग मौकों पर अलग- अलग देशों से सहयोग तो हमको करना ही पड़ेगा। महत्त्व की बात यह है कि हम अपनी नीतियां अपने राष्ट्रहित में तय करें।

जापान और चीन की तरह हम आर्थिक और सैन्य शक्ति बनकर ही कुछ कर सकते हैं । भूखे पेट नहीं। इन क्षेत्रों में हम कमजोर इसलिए हैं क्योकि हमने अपने २५ बेशकीमती वर्ष समाजवाद में गंवा दिए।

अस्वीकरण:

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साभार:- अरुण शौरी  एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य