मानवाधिकार किसके

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मानवाधिकार किसके

कन्हैया लाल कौल और डा मोहन कृष्ण टेंग      

कश्मीर में आतंकवादी हिंसा के शिकार हिन्दुओं के मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात पहली बार, भारत के किसी मानवाधिकार संगठन या भारत के किसी राजनीतिज्ञ ने नहीं उठायी, बल्कि दक्षिण एशिया और प्रशांत महासागर के मामलों की अमरीकी कांग्रेस उप-समिति के अध्यक्ष स्टीफन सोलार्ज ने उठायी। उन्होंने जून, १९९० में विश्व को पहली बार बताया कि कश्मीर में आतंकवादियों की गोलियां झेल रहे कश्मीरी हिन्दुओं के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। वास्तव में, वे ही मानवाधिकारों के हनन के प्रतिनिधि उदाहरण हैं।

1946 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने मानवाधिकारों की वैश्विक घोषणा की, जिसमें कहा गया कि इसे सभी लोगों और सभी के लिए समान मानदण्ड माना है, इस उद्देश्य हेतु कि प्रत्येक व्यक्ति और समाज के प्रत्येक अंग को इस घोषणा को सतत ध्यान में रखते हुए इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान बढ़ाना चाहिए....' अनुच्छेद १ के अनुसार, सभी मनुष्य जन्म से स्वतंत्र हैं तथा गरिमा और अधिकारों की दृष्टि में वे समान हैं। उनके पास तर्क शक्ति और विवेक है और उनको एक दूसरे के प्रति

भ्रातृत्व की भावना से व्यवहार करना चाहिए।'

अत: संगठित समूहों द्वारा की गई हिंसा मानवाधिकारों की वैश्विक घोषणा का उल्लंघन और मानवता के विरुद्ध अपराध है, जिसके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। न केवल स्थानीय कानून के अन्तर्गत ही, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत भी कार्रवाई होनी चाहिए। वर्तमान रूप में जिस हिंसा को दुनिया जानती है, उस की शुरुआत १४ सितम्बर, '८९ को पाकिस्तान द्वारा समर्थित संगठनों ने कश्मीर में अल्पसंख्यक हिन्दुओं के प्रति की थी।

 

आतंकवाद के शिकार

यह हमारे लिए कितने शर्म की बात है कि कश्मीर में आतंकवादी हिंसा के शिकार हिन्दुओं के मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात पहली बार, भारत के किसी मानवाधिकार संगठन या भारत के किसी राजनीतिज्ञ ने नहीं उठायो, बल्कि दक्षिण एशिया और प्रशांत महासागर के मामलों की अमरीकी कांग्रेस उप-समिति के अध्यक्ष स्टीफन सोलार्ज ने उठायी। उन्होंने जून, १९९० में विश्व को पहली बार बताया कि कश्मीर में आतंकवादियों की गोलियां झेल रहे कश्मीरी हिन्दुओं के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। वास्तव में, वे ही मानवाधिकारों के हनन के प्रतिनिधि उदाहरण हैं।

यह एक गलत धारणा है कि मानवाधिकार कानूनी रक्षा की दृष्टि से केवल राज्य की गतिविधियों के खिलाफ गारंटी देता है। मानवाधिकारों की घोषणा के ३१ अनुच्छेदों में निहित अवधारणाएं न केवल कानूनी संरक्षण ही देती हैं बल्कि मानव जाति के मूलभूत अधिकारों को विश्व स्तर पर मान्यता भी देती हैं। इन अनुच्छेदों में मुख्य रूप से ये बिन्दु शामिल हैं:

 

१. व्यक्तियों की समानता और भ्रातृत्व की भावना

२. विचार, अभिव्यक्ति और आस्था की स्वतंत्रता

३. कानून की समान प्रक्रिया ४. संगठन की स्वतंत्रता

५. प्रतिनिधित्व के आधार पर राजनीतिक शक्ति

६. आर्थिक और सामाजिक संगठन में समानता का अधिकार

 

सारतत्व की दृष्टि से मानवाधिकार वैश्विक हैं। अतः उनकी रक्षा का दायित्व राज्य के अधिकार तक सीमित नहीं है; यह सभी प्रकार के सामाजिक और राजनीतिक सत्ता या संगठनों और समूहों तथा सभी अन्तरराष्ट्रीय संगठनों पर लागू होता है। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि मानवाधिकारों की वैश्विक घोषणा का अर्थ विश्व समुदाय के न्यायिक राजनीतिक संगठन को स्वीकार करना है, जिसमें मानव जीवन और व्यक्ति की गरिमा का आदर किया जाएगा। परिणामस्वरूप यह माना गया है कि मानव के पास गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार के अलावा सत्य की खोज और नैतिक सत्य और न्याय की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने का मौलिक अधिकार है।

मानवाधिकारों की वैश्विक घोषणा में ऐसे मुस्लिम राज्य की कल्पना नहीं की गई है जो मानवाधिकारों का उल्लंघन कर मुसलमानों की रक्षा करे। मानवाधिकार कश्मीर के मुसलमानों को राज्य के स्वेच्छाचारी आचरण से संरक्षण देते हैं, परन्तु वे हिन्दू व अन्य नस्लीय और पंथिक समूहों को भी आतंकवादियों के मजहबी उत्पीड़न और दासत्व से संरक्षण (राज्य से) प्रदान करवाते हैं; अगर वे इस्लामिक राज्य में शामिल होने को तैयार नहीं हैं।

मानवाधिकार, राज्य के अधिकारियों पर कुछ पाबंदी लगाता है, लेकिन साथ ही वह राज्य पर भी समान रूप से दायित्व डालता है कि चाहे जेहाद के नाम पर-इस्लामिक मजहबी युद्ध करने वाले ही क्यों न हों, राजप को सभी के जीवन की रक्षा करने के लिए समान कानून लागू करना चाहिए। मानवाधिकार ऐसे किसी मजहबी राज्य को मान्यता नहीं देता जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों को गुलामी स्वीकार करनी पड़े। मानवाधिकार के सिद्धान्त उन सभी राजनीतिक संगठनों के लिए अस्वीकार्य है जो मजहबी परम्पराओं और सिद्धान्तों से संचालित है। मानवाधिकार मजहबी बाड़ेबन्दी एवं नागरिकों के समान अधिकारों के भेदभाव का विरोध करता है। यहां क्या चलेगा-निजाम ए-मुस्तफा!'-(यहाँ केवल इस्लामी राज चलेगा) कश्मीर में यह इस्लामी जेहाद का नारा घाटी में रह रहे अन्य पंथिक अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों को नकारता है। यह कानून की निहित प्रक्रिया का भी उबंधन करता है जो सभी मानवाधिकारों और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय समानता के मूल में है।

 

हिंसा के विविध आयाम

कश्मीर में आतंकवादी हिंसा के कई आयाम हैं जिनसे वहां सीधे-सीधे मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। सर्वप्रथम, तो कश्मीर में आतंकवादी हिंसा राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ चल रहा एक वैचारिक संघर्ष है, जो वस्तुत: मूल रूप से कट्टरपंथी और साम्प्रदायिक है। कश्मीर में आतंकवादी हिंसा को स्थानीय असंतोष का विस्फोट कहना, गहराई से इस समस्या का विश्लेषण करने से बचना है। राजनीतिक असंतोष को अभिव्यक्त करने और समस्याओं के हल की मांग करने के सभ्य तरीके भी हैं। यदि कुछ ऐसे समूह हैं, जो खुद को 'सेकुलर' कहते हैं पर उनकी कार्यप्रणाली पथिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ होती है तो यह उनके ही दावों को झुठलाता है। उन्हें तो हिंदुओं की रक्षा के लिए खड़ा होना चाहिए और निर्दोष लोगों की हत्या में खुद को शामिल नहीं करना चाहिए। अपने अभियान को सेकुलर बताना आसान है, जबकि घायल पंथिक अल्पसंख्यकों को घाटी से खदेड़ दिया गया है।

 

इस हिंसक अभियान के पीछे मजहबी जेहाद की भावना मुख्य है जो विभाजन पूर्व मुसलमानों की भारत में ही एक अलग होमलैण्ड' की मांग के विवाद को जारी रखना है। यह पाकिस्तान द्वारा पिछले तीन युद्धों की शरृंखला की एक और कड़ी है। जिससे जम्मू और कश्मीर के मुस्लिम बहुल हिस्से राज्य को हासिल कर भारत का एक और विभाजन करना है।

कश्मीर में हिंसा का दूसरा आयाम हिन्दुओं को घाटी से बाहर निकालने के प्रति आतंकवादियों की वचनबद्धता है, क्योंकि वे जानते हैं कि हिन्दू नहीं चाहेंगे कि जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो और न ही वे भारत के पंथनिरपेक्ष चरित्र को छोड़कर ऐसे देश के नागरिक बनना चाहेंगे जहां केवल इस्लामी कानून-कायदे हों। राज्य में आतंकवादी हिंसा का सबसे डल्लेखनीय आयाम पाकिस्तानी हस्तक्षेप है। पाकिस्तान कश्मीर में मुसलमानों को लगातार समर्थन दे रहा है।

मानवाधिकारों की वैश्विक घोषणा के उच्च सिद्धान्तों और अन्तरराष्ट्रीय न्याय के सिद्धान्तों का मुस्लिम राज्य के लिए जेहाद के सिद्धान्त से हम सामंजस्य कैसे बैठा सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार हुआ है?

आतंकवादी हिंसा महत्त्वपूर्ण घटक की अनदेखी करना मानव इतिहास की विडम्बना हो है जो अतंत: राज्य की कार्रवाई की सीमाएं और व्यापकता को तय करता है।कश्मीर में आतंकवादी हिंसा मानवाधिकार हनन के सभी पहलुओं की जांच में प्राथमिक है क्योंकि वास्तव में आतंकवाद,खुद में मानवाधिकारों का उल्लंघन है और यह मानवता के विरुद्धएवं अन्तरराष्ट्रीय कानून के अर्न्तगत एक अपराध है। कश्मीर में आतंकवादी हिंसा का वैचारिक प्रयोजन कुछ भी हो, इसके परिणामस्वरूप हत्याएं, उत्पीड़न, बलात्कार, अपहरण और घाटी से हिन्दुओं का जबरन पलायन हुआ है जिससे अंततः कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार हुआ है। किसी भी प्रकार की आतंकवादी हिंसा का राजनीतिक, सैद्धान्तिक या लक्ष्य संरचना के आधार पर औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता।

हमें इस मुद्दे पर बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिए और यह जोर देकर कहना चाहिए कि मानवाधिकार पर कोई भी अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन या समझौता, आतंकवादी हिंसा को किसी वैचारिक तथा राजनीतिक प्रतिबद्धता के वैध सहभागी के रूप में मान्यता नहीं देगा। कश्मीर में आतंकवादी हिंसा  की शुरुभात स्पष्ट रूप से एशिया में इस्लामी कट्टरवाद के सैन्यीकरण से हुई जो भारत से राज्यों को अलग करने के पृथकतावादी आन्दोलन की प्रतिबद्धता तथा पाकिस्तान की जम्मू कश्मीर हथियाने की रणनीति का ही एक हिस्सा थी। यहां तक कि वे लोग जो 'आजादी' चाहते हैं और 'सेकुलर' होने का दावा करते हैं, दिन-रात चल रही अपनी आतंकवादी गतिविधियों को वैध नहीं ठहरा सकते।

आतंकवादः अन्तरराष्ट्रीय अपराध

आतंकवाद पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन की तदर्थ समिति ने हत्या, अपहरण, उत्पीड़न आदि को अन्तरराष्ट्रीय अपराध माना है। अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद को रोकने के उपायों के सम्बंध में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के प्रस्ताव (दिनांक ९ दिसम्बर १९८५) और सुरक्षा परिषद् के. प्रस्ताव (दिनांक १८ दिसम्बर, १९८५) को पढ़ने से इन संस्थाओं का सरोकार इस रूप में सामने आता है:

'हम सभी प्रकार की आतंकवादी गतिविधियों में विश्वव्यापी बढ़ोतरी पर अत्यंत चिंतित हैं, जो निर्दोष लोगों की जानें लेती रही हैं इससे मौलिक स्वतंत्रता पर संकट उत्पन्न हो गया है और मानव की गरिमा पर गंभीर खतरा बना हुआ है। प्रासंगिक अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकारों, एवं सामान्य रूप से स्वीकृत अंतरराष्ट्रीय मानदण्डों के अनुरूप व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को बनाए रखने और उनकी सुरक्षा के प्रति सचेत रहते हुए हम घोषित करते हैं:

 

(अ) हम स्पष्ट रूप से आतंकवादी पद्धतियों से जुड़े अपराधों, कार्यों व तरीकों को अपराध मानते हुए उसकी निन्दा करते हैं, चाहे वह जहां कहीं भी जिस किसी के द्वारा भी किए गए हों। इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो राज्यों के बीच की दोस्ती में खतरा पैदा करते हैं।

 (आ) हम ऐसी आतंकवादी गतिविधियों के परिणामस्वरूप होने वाली निर्दोष मानवीय क्षति की घोर भर्त्सना करते हैं।

 (इ) हम सभी देशों को आमंत्रित करते हैं कि वे अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद की समस्या की तेजी से और अंतिम रूप से समाप्ति के लिए उपयुक्त कदम उठाएं, और आंतरिक कानूनों का अन्तरराष्ट्रीय कानूनों से सामंजस्य स्थापित करते हुए आतंकवाद का अन्तरराष्ट्रीय समझौतों द्वारा उन्मूलन करें और आतंकवाद को अंतिम रूप से समाप्त करें।

राजनीति-प्रेरित अपराधों, विशेषकर आतंकवाद से निबटने के लिए अन्तरराष्ट्रीय कानून और समझौतों में काफी बढ़ोतरी हुई है। प्राय: आतंकवाद अपराध के रूप में ही पहचाना गया है। यहां तक कि विभिन्न रूपों और ज्यादातर मामलों में इसे परम्परागत अन्तराष्ट्रीय अपराध की तुलना में, ज्यादा गंभीर माना गया है। यहां पर आतंकवादी अपराधों के उन प्रमुख पहलुओं को सूचीबद्ध किया जा रहा है जो कश्मीर में पड़ोसी देश पाकिस्तान द्वारा किए जा रहे हैं:

 (१) हिन्दुओं की हत्या

(२) हिन्दुओं का उत्पीड़न और अपहरण

(३) कश्मीर से हिन्दुओं को जबर्दस्ती खदेड़ना : जिसके परिणामस्वरूप उनका नस्लीय उन्मूलन हो

 

हिन्दुओं का नरसंहार

नरसंहार के अपराध को रोकने तथा दण्डित करने के बारे में १९४८ में एक अधिवेशन हुआ जिसी धारा १३ के अनुसार कश्मीरी पण्डितों के ऊपर अत्याचार, नरसंहार की श्रेणी में आते हैं। इस अधिवेशन में जे. ए. अधिनियम २६० ए (तृतीय), १७४ पर इ(१) यू. एन. गोर, यू. एन. डोस. ए/ ८१० (१९४८), १२ जनवरी १९५१ में लागू हुआ।

उक्त अधिवेशन की धारा द्वितीय; तृतीय को हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं:

धारा द्वितीय की परिभाषा: नरसंहार का अर्थ नीचे लिखे किसी भी कृत्य से लगाया जा सकता है जो किसी राष्ट्रीय, नस्लीय, वर्ग या धार्मिक समूह की पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से समाप्त करने के आशय से किया गया हो जैसे:

 (१) समूह के सदस्यों की हत्या करना;

(२) किसी समूह के सदस्यों को गंभीर शारीरिक या मानसिक क्षति पहुंचना;

(३) किसी समूह, पर जीवन के ऐसे तौर तरीके जबर्दस्ती थोपना, जिससे वे पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से नष्ट होते हों। आदि।

 

धारा तृतीयः निम्नलिखित कृत्य दण्डनीय होंगे;

(क) नरसंहार;

(ख) नरसंहार करने का षड्यंत्र करना;

(ग) नरसंहार करने को प्रत्यक्ष और सार्वजनिक रूप से प्रोत्साहन देना

(घ) नरसंहार करने का प्रयत्न करना

(ङ) नरसंहार करने में साझेदारी।

 

धारा चतुर्थ: नरसंहार या अन्य गतिविधियों में शामिल व्यक्तियों जिनका विवरण धारा तृतीय में दिया गया है; को दण्डित किया जाएगा चाहे वे संवैधानिक रूप से जिम्मेदार शासक हों, नागरिक अधिकारी या कोई सामान्य व्यक्ति।

क्या कश्मीर के हिन्दू नरसंहार की सलीब पर चढ़ाए गए हैं? यदि उनके साथ ऐसा हुआ है और जैसा हम मानते हैं कि ऐसा हुआ है, तो क्या आतंकवादी हिंसा के अपराधी तथा उनके सहयोगी और उनके उकसाने वाले देश पाकिस्तान को मानवता के प्रति अपराध के लिए और अन्तरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन के अपराध के लिए दंडित नहीं किया जाना चाहिए ?

यह तो एकदम स्पष्ट हैं।

 (१) 

कश्मीर में हिन्दुओं की सामूहिक तौर पर हत्याएं, अपहरण और बन्धकों की हत्याएं मानवाधिकारों का मापन है। यह मानवता के प्रति भी अपराध है।

(२)

कश्मीर में हिन्दुओं का नरसंहार मानवाधिकारों का उल्लंघन है। यह मानवता के प्रति भी अपराध है।

(३)

कश्मीर में हिन्दुओं का उत्पीड़न, गला घोंटकर हत्या, निर्मग वध, टुकड़े-टुकड़े कर देना, फांसी पर चढ़ा देना और लोहे से दागकर हत्या कर देना मानवाधिकारों का उल्लंघन और मानवता के प्रति घोर अपराध है।

 (४) कश्मीर में मौत की धमकियां मिलने के परिणामस्वरूप हिन्दुओं का बलात पलायन मानवाधिकारों का उल्लंघन और मानवता के प्रति घोर अपराध है। इस्लामिक घोषणा का उल्लंघन कश्मीर के कट्टरपंथी आतंकवादियों ने 'मानवाधिकारों की ही नहीं वैश्विक इस्लामी घोषणा (१९८१), का भी उल्लंघन किया है। पैगम्बर मोहम्मद और उनके संदेश के विषय पर यह घोषणा १९८० में लंदन में हुए अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में की गई थी। यह कानून प्रमुख मुस्लिम न्यायविदों और अन्य विद्वानों द्वारा विभिन्न इस्लामिक आन्दोलनों के प्रतिनिधियों के सहयोग से बनाए गए थे। इसमें कहा गया:

इस्लाम में, मानवाधिकारों का उद्गम दैवीय है। इसका अर्थ है कि ये अधिकार सभी मुस्लिम सरकारों और इस्लामी समाज के सभी अंगों के लिए अपरिहार्य हैं।'

हमारे विचार से इस कानून की जिन धाराओं का कश्मीरी मुसलमानों ने उल्लंघन किया है। वे निम्नलिखित हैं

 

जीवन का अधिकार

 (क) मानव जीवन पवित्र है, इसका हनन नहीं किया जा सकता और इसकी रक्षा के समस्त प्रयास करने चाहिए। सामान्यत: कानूनी अधिकारों के बिना किसी की हत्या या उसे चोट नहीं पहुचानी चाहिए।

 (ख) जैसा व्यवहार जीवन में होता है वही व्यवहार मृत्यु के पश्चात करना चाहिए। आस्थावान लोगों का यह कर्तव्य है कि वे मृत व्यक्ति के शरीर का अपेक्षित विधि-विधान से संस्कार करें।

 

अल्पसंख्यकों के अधिकार

(क) कुरान के सिद्धान्त-'मजहब के मामले में कोई जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए' के अनुसार ही गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संरक्षण होना चाहिए।

(ख) किसी को भी अन्य सम्प्रदाय का अपमान या उसका उपहास या ठसक विरुद्ध सार्वजनिक शत्रुता को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। अन्य धर्मावलंबियों की धार्मिक भावना का सम्मान करना सभी मुसलमानों का दायित्व है।'

अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने अपनी जांच-पड़ताल को प्रायः सम्प्रभुत्व राज्य द्वारा किए गए मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोपों तक ही सीमित रखा है और आतंकवादियों द्वारा किए गए मानवाधिकार के उल्लंघनों पर कोई महत्त्वपूर्ण रपट प्रस्तुत नहीं की। आतंकवादियों की गतिविधियों और भारत व अन्य स्थानों पर उनके द्वारा किए गए अत्याचारों को ध्यान में रखते हुए एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सितम्बर १९९० से पहले नीतिगत परिवर्तन की घोषणा की है। अब वे आतंकवादियों द्वारा किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच भी करेंगे। बहरहाल, एशिया वाच, अमरीका के मानवाधिकार संगठन ने कश्मीर के सम्बंध में जारी रपट में यह लिखा गया है:

उग्रवादियों ने (कश्मीर में) हत्याएं', अपहरण और नागरिकों पर हमले कर स्पष्ट रूप से अन्तरराष्ट्रीय मानवीय कानूनों का उल्लंघन किया है। एशिया वाच ने ऐसे हमलों के प्रमाण इकट्ठे किए हैं। १९८९ के बाद उग्रवादी संगठनों ने मौत के फतवे जारी किए हैं और अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय के सदस्यों की हत्याएं की हैं।'

ऊपर लिखित उल्लंघनों की अमरीकी कांग्रेस (फीधन संशोधन) ने भी पुष्टि की है। कांग्रेस की रपट में लिखा है , ' कश्मीर में हत्या, धमकी और उग्रवादियों के अत्याचारों ने कश्मीरी हिन्दू समुदाय के लिए से विस्थापन की स्थिति पैदा कर दी है।'

 

कश्मीरी पंडित समुदाय का नर संहार एक गंभीर मामला है जिसकी अनदेखी भारत नहीं कर सकता। इसका समाधान खोजना ही होगा। इराक के कुर्दो की तरह, कश्मीरी पंडितों को भी अपने पैतृक घरों में वापसी के लिए घाटी में 'सुरक्षित क्षेत्र' स्थापित कर फिर से बसाना होगा।

अस्वीकरण:

उपरोक्त लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और kashmiribhatta.in किसी भी तरह से उपरोक्त लेख में व्यक्त की गई राय के लिए जिम्मेदार नहीं है।     

साभार:-  कन्हैया लाल कौल और डा. मोहन कृष्ण एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य