कश्मीर में क्लिंटन और बेनजीर का खेल
निर्भीकता और दृढ़ता से जहरीले फन कुचलने होंगे !
कश्मीर के बारे में स्पष्टता और नीतिगत निरन्तरता की कमी के कारण भारत को काफी क्षति पहुंच चुकी है, काफी और होने वाली है। दक्षिण एशिया के बारे में अमरीकी नीति निर्धारण में पर्याप्त प्रभाव रखने वाले कुछ बुद्धिजीवियों ने इस बात की वकालत करनी शुरू की है कि 'परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर का रास्ता कश्मीर से होकर गुजरता है'-अर्थात भारत की वर्तमान दिक्कतों का इस्तेमाल करते हुए उसे परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर के लिए विवश किया जा सकता है।
यहां तक कि सामान्यत: भारत के प्रतिकूल रुख वाले 'बदलते अन्तरराष्ट्रीय परिवेश में भारत अमरीकी सम्बंधों पर कार्नेगी अनुदान अध्ययन दल' की रिपोर्ट (१९९३) में पृष्ठ ३४ पर सिफारिश की गई है-'अमरीका को सीधे अपनी ओर से और संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से भी बहुपक्षीय भारत-पाकिस्तान वार्ता को प्रोत्साहित करना चाहिए जिसमें परमाणु निरोध तथा अन्य विषयों पर एक साथ चर्चा हो। बिना अन्य मोर्चो पर समानान्तर पहल किए परमाणु-संवाद के प्रयास सफल नहीं होंगे। खासतौर पर कश्मीर - विवाद एक ऐसे पारम्परिक युद्ध को भड़का सकता है, जो बाद में परमाणु-युद्ध के स्तर तक बढ़ सकेगा।' इन पंक्तियों में छिपा भाव काफी स्पष्ट है-वे परमाणु अप्रसार सन्धि पर भारत के रुख को कश्मीर से जोड़ना चाहते हैं।
भारत सिद्धान्तः परमाणु अस्त्र मुक्त विश्व के पक्ष में है। भारत ने वर्तमान परमाणु अप्रसार संधि के पक्षपाती स्वरूप की ओर भी बार-बार ध्यान दिलाया है लेकिन अमरीका और कुछ अन्य पश्चिमी शक्तियों को यह रुख पसंद नहीं है।
१९९३ में प्रस्तुत 'संयुक्त अमरीकी-रूसी मिशन' की रपट में चौथे विकल्प से सम्बंधित एक उप-खण्ड में कहा गया है: 'रूस और अमरीकी, सुरक्षा परिषद् में एक प्रस्ताव रख सकते हैं, जिसमें कश्मीर में संघर्ष के बारे में उनकी चिन्ता व्यक्त हो तथा एक शांतिपूर्ण समझौते की अपील हो.. ...हम कश्मीर पर एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने का भी सुझाव देते हैं, जिसमें गैर-सरकारी अधिकारी आमंत्रित हों। इसमें एक ऐसे कार्यक्रम पर चर्चा हो जो एक या अधिक सम्मेलनों के लिए उपयुक्त रहे। अन्ततः इसका लाभ एक बहुराष्ट्रीय दल की बैठक के लिए होगा, जो कश्मीर की घटनाओं की समीक्षा कर सके तथा एक स्थायी आधार पर राज्य के घटनाक्रम पर नजर रख सके। अब कश्मीर समस्या में वैश्विक दिलचस्पी बढ़ रही है।'
ऐसा लगता है कि गैर-सरकारी स्तर पर अध्ययन दलों और चर्चाओं के द्वारा किसी एक या दूसरे रूप में बाहरी दखल की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। जनवरी '९३ के मध्य में वाशिंगटन में अमरीकन इंस्टीट्यूट ऑफ पीस द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में अमरीका, भारत, पाकिस्तान, कश्मीर घाटी तथा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के 'प्रभावशाली' गैर-सरकारी व्यक्तियों के बीच अनौपचारिक बातचीत हुई थी (इस संगोष्ठी में भारत से श्री भवानी सेन गुप्त, श्री बी.जी. वर्गीज, श्री मुचकुंद दुबे, श्री ए.जी. नूरानी ने भाग लिया था)। इस संगोष्ठी का जो उद्देश्य बाद में एक भारतीय सहभागी ने बताया, 'टोकरी भर कर विचार' इकट्ठा करना तथा क्लिंटन प्रशासन जो भी निर्णय करे, उसके लिए सामग्री प्रदान करना' था। वास्तव में यह विचार और कुछ नहीं, किन्तु तीसरे और चौथे विकल्पों के भिन्न-भिन्न रूप ही थे। यहां वह बिन्दु विशेष ध्यान देने योग्य हैं कि भारतीय जनता को मानसिक रूप से कश्मीर में परिवर्तन के बारे में तैयार करने का प्रयास चल रहा है।
प्रतिकूल संकेत
सरकारी स्तर पर भी बड़े प्रतिकूल संकेत मिल रहे हैं। उदाहरण के लिए अमरीका के उप सहायक विदेश मंत्री जॉन आर. मेलोट ने हाल ही में कहा कि, 'कश्मीर के लोगों का दृष्टिकोण ध्यान में रखना होगा।' ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर ने जनवरी '९३ में अपनी नई दिल्ली -यात्रा के दौरान कहा था, 'शिमला समझौते के अन्तर्गत बातचीत के द्वारा समाधान ढूंढना चाहिए, जिसमें कश्मीर के लोगों की आकांक्षाओं को भी ध्यान में रखा जाए और उनके मानवाधिकारों के प्रति समान हो।'
इन सभी प्रतिकूल दबावों के लिए, जिनके परिणामस्वरूप भारत पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण मुद्दों जैसे परमाणु अप्रसार संधि, प्रक्षेपास्त्र तकनालॉजी, बौद्धिक सम्पदा अधिकार, विशेष अधिनियम ३०१ आदि पर झुकने के लिए भारी दबाव पड़ेगा, नई दिल्ली को ही दोप दिया जा सकता है। अपनी अदूरदर्शी तथा ठहराव वाली नीति के कारण सत्तारूढ़ नेतृत्व ने न केवल कश्मीर की आंतरिक वेदना को लम्बा कर दिया है, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपने लिए अनेक समस्याएं निर्मित की हैं। विदेश मंत्रियों के २१वें इस्लामी सम्मेलन में, जो २५ से २९ अप्रैल ९३ को कराची में हुआ, पाकिस्तान अपना प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित करवाने में सफल हुआ जिसमें, सदस्य देशों का आहान किया गया कि वे कश्मीरी लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को तुरंत रोकने के लिए भारत पर दबाव डालें और कश्मीरियों को अपने आत्मनिर्णय के अधिकार, जो कि सुरक्षा परिषद् के सम्बंधित प्रस्तावों द्वारा सुनिश्चित किया गया है, को व्यवहार में लाने के लिए समर्थ बनाए।' इस्लामी सम्मेलन संगठन शक्तिहीन संगठन है। उसके सदस्य सामान्यत: कमजोर हैं। शून्य में कितना ही जोड़े, परिणाम शून्य ही आता है। और यह संगठन भी एक बड़ा शून्य ही है इसके बावजूद भारत सरकार की लड़खड़ाहट की वजह से ही पाकिस्तान को कश्मीरी आतंकवादियों के समर्थन में इस्लामी एकजुटता प्रदर्शित करने का मौका मिला, जिससे आतंकवादियों का मनोयल बढ़ा।
अमरीकी प्रशासन ने पाकिस्तान को एक आतंकवादी राज्य घोषित करने का संकेत दिया था। सी.आई.ए. के निदेशक जेम्स बूलसे ने अमरीकी संसद-सीनेट की समिति को बताया, 'हालांकि सूडान और पाकिस्तान अभी विदेश मंत्रालय की आतंकवाद-प्रायोजक राज्यों की सूची में नहीं हैं। परन्तु वे उसके बहुत निकट हैं। कश्मीरियों और सिखों को पाकिस्तान में सुरक्षित स्थान और समर्थन के सभी साधन प्राप्त हुए हैं।' इस संकेत और इस तथ्य के बावजूद कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादी हो न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हुए बम विस्फोट में शामिल रहा है और २५ जनवरी १९९३ को सी.आई.ए. के दफ्तर के पास एक पाकिस्तान प्रवासी ने दो सी. आई.ए. कर्मचारियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी, अमरीका ने पाकिस्तान को आतंकवाद प्रायोजक देश घोषित नहीं किया है। इसके पीछे कारण शायद यह है कि वह भारत और पाकिस्तान दोनों पर दवाब बनाए रखना चाहता है।
अमरीकी नया रुख
काफी समय से कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम हुए हैं जिनसे संकेत मिलता है कि अमरीका भारत के प्रति, विशेषकर कश्मीर के संदर्भ में एक नया रुख अपना रहा है। २७ सितम्बर, १९९३ को राष्ट्रपति क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा को सम्बोधित करते हुए कहा, 'अंगोला से काकेशस से कश्मीर तक खूनी नस्लीय, मजहबी तथा गृहयुद्ध भड़के हुए हैं।
२९ अक्तूबर'१३ को अमरीका की सहायक विदेश मंत्री श्रीमती रोबिन रैफेल ने दक्षिण एशियाई पत्रकारों को विषय की पृष्ठभूमि को समझाने के उद्देश्य से की गई पत्रकार वार्ता में बातचीत के दौरान टिप्पणियां की, 'हम विलय के दस्तावेज को इस अर्थ में नहीं मानते कि कश्मीर हमेशा के लिए भारत का अभिन्न अंग बन गया है. हमारी दृष्टि में समूचा कश्मीर विवादास्पद क्षेत्र है जिसकी स्थिति का विषय-निर्धारण होना बाकी है..कश्मीर के विवाद के किसी भी अंतिम समाधान में कश्मीर के लोगों की सलाह लेना जरूरी है। हमारा विश्वास है कि ऐसा कोई समाधान स्थाई और अंतिम नहीं हो सकता जिस पर कश्मीर के लोग सहमत न हों... बाहरी समर्थन कितना भी हो लेकिन विद्रोह में भारी मात्रा में स्थानीय लोग भी शामिल हैं तथा मैं यह तर्क दे सकती हूं कि यह (विद्रोह ) अपने ही बूते पर चल रहा है...मेरा मानना है कि भारतीयों को विद्रोह के अंतर्भूत कारणों पर नजर डालनी चाहिए और ये कारण बाहरी समर्थन तक ही सीमित नहीं हैं... कश्मीरी भारतीयों से अपनी स्थितिके संदर्भ में दीर्घकाल से अप्रसन्न रहे हैं और हाल ही के वर्षों में यह स्थिति और बिगड़ गई है...हमने भारत पर इस बात के लिए दबाव डाला है कि वह अपनी गतिविधियों को साफ-सुथरा बनाए तथा वहां किसी प्रकार की सरकार का आभास करवाए..शिमला समझौता २१ वर्ष पुराना हो चुका है और कश्मीर स्थिति के समाधान के लिए बहुत कम बातचीत हुई है।' (हिन्दुस्तान टाइम्स तथा अन्य राष्ट्रीय समाचार पत्रों में रिपोर्ट ३०-३१ अक्तूबर, १९९३)
श्रीमती रैफेल से जब राष्ट्रपति क्लिंटन के संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए गए भाषण में कश्मीर के उल्लेख पर नई दिल्ली में उठे तूफान के बारे में पूछा गया तो रैफेल ने जवाब दिया कि दिल्ली में तूफान पैदा करना आसान है। दिल्ली तूफान पसंद भी करती है। यह कहना ठीक था कि हम कश्मीर को रेडार के पर्दे' पर यूगोस्लाविया और सोमालिया और भूतपूर्व सोवियत संघ में अनेक जगहों के साथ देखते हैं। बाद में अमरीकी विदेशी मंत्रालय द्वारा दिए गए एक स्पष्टीकरण में भी श्रीमती फेल के बयान की ही पुष्टि हुई।
२७ दिसम्बर, १९९५ को राष्ट्रपति क्लिंटन ने 'कश्मीरी अमरीकी परिषद् के कार्यकारी निदेशक डा. गुलाम नबी फई को लिखे पत्र में कहा 'संयुक्त राष्ट संघ की महासभा में मेरे भाषण के विषय में आपके कृपालु शब्दों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं आपके इस विश्वास में सहभागी हूं कि शीत युद्ध के पश्चात के विश्व की दुविधा का सामना करने के लिए हम सबको मानवाधिकारों के बारे में अपनी नीतियों की ओर गहरी नजर डालनी होगी।
मैं कश्मीर में शांति स्थापित करने के प्रयास में आपके और अन्य लोगों के साथ काम करने की आशा रखता हूं तथा आपके योगदान की प्रशंसा करता हूँ।
अमरीकी कांग्रेस के सदस्य गैरक कोंडिक तथा १५ अन्य सदस्यों के पत्र के उत्तर में राष्ट्रपति क्लिंटन ने लिखा, 'मुझे भारत सरकार तथा सिख आतंकवादियों के मध्य तीव्र तनाव की जानकारी है और मैं सिख अधिकारों की रक्षा हेतु एक शांतिपूर्ण समाधान के लिए आपकी इच्छा में सहभागी हूँ। केवल ४ महीने के कालखण्ड में जारी किए गए इन बयानों और पत्रों का संकेत एकदम साफ है। राष्ट्रपति क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने सम्बोधन में कश्मीर की स्थिति को यूगोस्लाविया और सोमालिया के समकक्ष रख दिया; कश्मीर घाटी में आतंकवाद को भड़काने वाले तथा पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति पर काम करने वाले फई को गर्मजोशी से जवाब दिया सिख अधिकारों के बारे में इस तरह उल्लेख किया मानो सिख अन्य भारतीय नागरिकों की तरह न हों और श्रीमती रैफेल का अत्यंत उत्तेजक बयान जिनमें कश्मीर के भारत में विलय पर ही प्रश्न जड़ दिया गया; ये सभी भारतीय संवेदनाओं की उपेक्षा करते हुए अमरीका के पाकिस्तान के प्रति झुकाव को दर्शाते हैं तथा इस प्रक्रिया में एक स्वतंत्र अथवा अर्थ-स्वतंत्र कश्मीर बनाने की इच्छा प्रकट करते हैं।
पिछले दो वर्षों से वाशिंगटन स्थित बौद्धिक संस्थान 'यू.एस. इंस्टीट्यूट ऑफ पीस' जो अमरीकी कांग्रेस की आर्थिक सहायता से चलता है, कश्मीर के मामले में असमान्य दिलचस्पी दिखा रहा है।जनवरी, १९९३ में हुई बैठक के बाद, जिसका ऊपर जिक्र किया जा चुका है, इस संस्थान द्वारा जनवरी '९४ में दूसरी संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें भारत, पाकिस्तान तथा कश्मीर के दोनों हिस्सों' से १५ गैर-सरकारी लोगों को जिनके बारे में इस संस्थान को विश्वास है कि वे समाचार पत्रों के माध्यम से जनता पर प्रभाव डालने में समर्थ हो सकते हैं, आमंत्रित किया गया था। इस संगोष्ठी में जो विचार-पत्र रखे गए, जिनके विषय में यद्यपि कहा गया कि यह सब अनौपचारिक वार्ता के हिस्से हैं, उन सभी को 'कश्मीरियों को ही केन्द्रीय भूमिका में रखकर बनाया गया था। संस्थान की इच्छा साफ थी। वे भारत और पाकिस्तान के विचारों में बदल जाने के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार करना चाहता था। इस संगोष्ठी के बाद एक भारतीय सहभागी ने २७ जनवरी '९३ को हिन्दुस्तान टाइम्स में अपने लेख में तर्क दिया कि, 'कब तक भारत कश्मीर में लगातार हो रहे खूनखराबे के परिणामस्वरूप वहां की स्थिति को पहुंच रही क्षति के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाए रहेगा।
दृढ़ दिल्ली चाहिए
परिस्थिति पर विहंगम दृष्टिपात करने तथा इस क्षेत्र में अमरीका के दीर्घगामी हितों को देखते हुए लगता है कि उसके नीति निर्माता गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार कर रहे हैं कि एक स्वतंत्र या अर्ध-स्वतंत्र कश्मीर उनके लिए सबसे अच्छा रहेगा। यदि भविष्य में जरूरत पड़ी तो ऐसा राज्य चीन पर दबाव डालने के लिए इस्तेमाल किया जा
सकेगा। यह मध्य एशियाई गणराज्यों में गहरी पैठ जमाने के लिए भी मददगार रहेगा तथा रूस में पुनः एक अमैत्रीपूर्ण सत्ता ढांचे के उभार को देखते हुए यहां की घटनाओं को मोड़ने में भी सहायक होगा। पाकिस्तान पहले से भी अधिक उसका एक 'दलाल-राज्य' बन सकता है और इस प्रकार परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर के लिए भारत की बांह और कठोरता से मरोड़ी जा सकती है।
यदि भारत कश्मीर के मामले में अमरीकी कदमों का निश्चयात्मक ढंग से सामना करे और अपने पक्ष में तीव्र जनमत तैयार कर ले तो अमरीका अपने वर्तमान रवैये को छोड़ सकता है। या उसमें बदलाव ला सकता है। आखिरकार अमरीका ८८ करोड़ लोगों के देश की शत्रुता मोल नहीं लेना चाहेगा। इस संदर्भ में यह स्मरणीय होगा कि जब ब्रिटिश संसद के कट्टर टोरी सदस्य जैसे आर.ए. बटलर और चर्चिल ने हैदराबाद के निजाम की मांग की वकालत करते हुए भारत पर दबाव डालना चाहा था तो सरदार पटेल ने दृढ़तापूर्वक उनको' पुरानी दुनिया में न जीने की सलाह दी थी। तब उन्होंने कहा था कि 'केवल सद्भावना के आधार पर, न कि चर्चिल की जुबान के जहर के आधार पर, भारत और ब्रिटेन तथा अन्य राष्ट्रकुल के सदस्यों में स्थाई मैत्री बनाई जा सकती है। इस प्रकार उन्होंने सफलतापूर्वक हैदराबाद को, जिसे उन्होंने 'भारत के पेट में फोड़ा' कहा था, कैंसर बनने से रोक दिया। इसी प्रकार का निर्भीक और स्पष्ट रुख अमरीका के प्रति अपनाकर ही भारत की स्थिति को अपने अनुकूल बना सकता है। साथ ही साथ घाटी के आतंकवादियों को भी सही संकेत दे सकता है।
कश्मीर के बारे में बात करते हुए अनेक अमरीकी अपने स्वयं के इतिहास को भूल जाते हैं। मेरी अमरीका यात्रा के दौरान मुझसे अक्सर पूछा गया था, 'यदि अधिकांश कश्मीरी भारत से अलग होना चाहते हैं तो आप इसकी अनुमति क्यों नहीं दे देते?' इस प्रश्न का मेरा उत्तर सीधा और सरल होता था, आपस्वयं अपने इतिहास को देखिए। अमरीका का एक बहुत बड़ा हिस्सा-दक्षिणी राज्य, अलग होना चाहता था। परंतु आपने उसकी अनुमति नहीं दी। आपने गृह-युद्ध लड़ा। दोनों उत्तरी और दक्षिणी भागों को भारी क्षति पहुंची। शायद ही ऐसा घर बचा होगा जो इस गृह युद्ध में प्रभावित न हुआ हो। लेकिन आपने अपना देश अखंड रखा। आज आप दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति हैं। आप इब्राहिम लिंकन को राष्ट्र-पिता कहते हैं और यह ठीक ही है। आप अपने देश के महान पात्र' की प्रशंसा करते हैं, जिसमें सब'गलकर एक' हो जाते हैं। तब आप हमें यह सलाह कैसे दे सकते हैं अपने एक राज्य को अलग होने दें? क्या आप नहीं समझते कि इसका अर्थ होगा कगारवाद और मताधता की ताकतों के क्षणिक दवाइयों में हम झुक गए? क्या भारत के विभाजन ने किसी भी समस्या का समाधान किया है? क्या इससे हिन्दुओं या मुसलमानों को लाभ मिला है? इसके विपरीत इसने दोनों को ही सदा के लिए गरीबी में रख छोड़ा। पुरानी शत्रुताएं और तीव्र हो गई हैं तथा नए वैमनस्य पैदा हो गए हैं। अगर भारत अखंड रहता तो वह अमरीका की ही भांति महान शक्तिवान होता। तब वह गतिशीलता और पुनरोदय का ऐसा एक आदर्श देश होता जिसमें भूख, गरीबी, अज्ञानता और रोग दुःस्वप्न की तरह भुला दिए गए होते।
पुराना विष
इस वर्ष परिस्थिति की विवशता और अमरीका के हल्के दबाव के कारण भारत और पाकिस्तान को १६ महीने के अंतराल के बाद सचिव स्तरीय वार्ता पुन: करनी पड़ी। जैसी कि अपेक्षा थी इन वार्ताओं से भी कुछ परिणाम नहीं निकला। ८ जनवरी को पाकिस्तान के विदेश मंत्री आसिफ अहमद अली ने ताशकंद में एक प्रेस वार्ता में कहा कि जब तक अन्तरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव के अनुसार कश्मीर का विवाद शांतिपूर्ण ढंग से नहीं सुलझाया जाता, तब तक दक्षिण एशिया में स्थाई शांति नहीं हो सकती और एक चौथाई युद्ध का खतरा बना रहेगा और इस बार यह परमाणु युद्ध भी हो सकता है। २ फरवरी को श्रीमती बेनजीर भुट्टो ने जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग में घाटी में कश्मीरियों की स्थिति की तुलना' जर्मनी में यहूदियों के नरसंहार से की। उनकी पार्टी ने ५ फरवरी को पाकिस्तान में कश्मीर के मुद्दे पर सर्वदलीय हड़ताल में भी हिस्सा लिया। इन घटनाओं का संदेश एकदम स्पष्ट है। पुराने विषैले बीज जड़ों में बोए हुए हैं। उनसे जहरीली फसल के सिवाय और कुछ प्राप्त नहीं हो सकता।
मो, अयूब खान ने कहा था कि भारत, हिन्दू भारत और पाकिस्तान एक मुस्लिम पाकिस्तान । इसलिए वैचारिक और सांस्कृतिक रूप से पाकिस्तान का दर्जा ऊंचा और कश्मीर पाकिस्तान का अधूरा काम है, जिसे पूरा करना है। बंगलादेश को अपमानजनक हार के बाद भी जुल्फिकार अलो भुट्टो ने २३ जून, १९७२ को तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल टिबकाखान को भेजे गए एक अत्यंत संदेश में कहा था,' न तो कुछ वर्षों को समायोजित शांति और न ही वर्तमान परिस्थिति हमें इस यथार्थ को उपेक्षा करने की अनुमति देती है कि देर सबेर एक दूसरा युद्ध फिर होगा...इस नए युद्ध में हमारी ओर के शव मुख्यतः साधन की श्रेष्ठता पर निर्भी करेगे, न कि मानवाधिकार शक्ति पर, शक्ति तकनीक की होगी, न कि आदर्श की। इस सम्बंध में उनकी कमजोरी में हमारी शक्ति निहित है. हाल के इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया है कि चीन में, कोरिया में, इस्त्रायल में, वियतनाम में जनता का युद्ध असंख्य उतार चढ़ाव बर्दाश्त कर सकता है। लेकिन अंतिम विजय की ओर उनका बढ़ना रोका नहीं जा सकता...हमारे सुदूरवर्ती गांव और अत्यंत सामान्य लोगों में भी एक आत्म विश्वास है और भारत पर चढ़ाई करने की एक तीव्र इच्छा है। यह एक ऐसी भावना है जो सीमा के उस पार (भारत) नहीं दिखती। हमारी ही ओर से हमेशा भारत पर महान और भयानक हमले हुए हैं। इस ओर से हुए हर हमले ने भारत को हराया है. इस प्रकार आतंकवाद, भय और हमेशा हारने की आदत राष्ट्रीय स्मृति से रातोरात मिटाई नहीं जा सकती...और हमने स्वयं उन पर आठ शताब्दियों तक राज किया है। फिर यह सब बहुत प्राचीन इतिहास नहीं है। यह समकालीन इतिहास है। और भारतीय जनता आज भी अंध विश्वास, 'मजहबी असहिष्णुता, जाति व्यवस्था, नस्लीय वैमनस्य, गरीबी, पिछड़ेपन, अज्ञानता, धोखाधड़ी तथा गुलामी और दब्बूपन की अभी अविजित आदत में रेंग रही है। (स्टैनले वॉपर्टः जुल्फी भुट्टो एंड पाकिस्तान पृष्ठ-१८६)।
यह वह प्रवृत्ति है जिसमें पाकिस्तान रह रहा है और जिसे वह छोड़ने को तैयार नहीं है। इस कारण अतीत में तनाव पैदा हुआ है। वर्तमान में पैदा रहा है और भविष्य में भी पैदा होता रहेगा जब तक भारत अपने नरम और दब्बू रवैये को छोड़ नहीं देता।।
केवल ४ महीने के कालखण्ड में जारी किए गए इन बयानों और पत्रों का संकेत एकदम साफ है। राष्ट्रपति क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने सम्बोधन में कश्मीर की स्थिति को यूगोस्लाविया और सोमालिया के समकक्ष रख दिया: कश्मीर घाटी में आतंकवाद को भड़काने वाले तथा पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति पर काम करने वाले फई को गर्मजोशी से जवाब दिया; सिख अधिकारों के बारे में इस तरह उल्लेख किया मानो सिख अन्य भारतीय, नागरिकों की तरह न हों और श्रीमती रैफेल का अत्यंत उत्तेजक बयान जिनमें कश्मीर के भारत में विलय पर ही प्रश्न जड़ दिया गया-ये सभी भारतीय संवेदनाओं की उपेक्षा करते हुए अमरीका के पाकिस्तान के प्रति झुकाव को दर्शाते हैं तथा इस प्रक्रिया में एक स्वतंत्र अथवा अर्ध-स्वतंत्र कश्मीर बनाने की इच्छा प्रकट करते हैं।
अपनी अदूरदर्शी तथा ठहराव वाली नीति के कारण सत्तारूढ़ नेतृत्व ने न केवल कश्मीर की आंतरिक वेदना को लम्बा कर दिया है, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपने लिए अनेक समस्याएं निर्मित की हैं।
साभार:- जगमोहन एवं 10 अप्रैल 1994, पाञ्चजन्य