शिव और शक्ति


शिव और शक्ति

प्र०-शिवतत्त्व क्या है?

उ०-हमारे विचार से शिवतत्त्व वही है, जिसका वर्णन श्वेताश्वतरोपनिषद्के निम्न मन्त्र में किया गया है

सर्वांननशिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः।

सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगतः शिवः॥   (३।११)

आशय यह है कि भगवान् शिव समस्त मुख, समस्त सिर और समस्त ग्रीवाओं वाले हैं तथा समस्त प्राणियों के अन्त: कारणों में स्थित हैं। अतः सर्वगत होने के कारण वे सर्वव्यापी हैं।

प्र०-लिङ्गोपासना का क्या रहस्य है? उसका अधिकारी कौन है और उसका मुख्य फल क्या है?

उ०-लिङ्ग का अर्थ प्रतीक (चिह्न) है शिवलिङ्ग पुरुष का प्रतीक है और शक्ति प्रकृति का चिह्न है। पुरुष और प्रकृति का संयोग होने पर ही सृष्टि होती है; जैसा कि कहा है-'शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुम्।' उन पुरुष और प्रकृति को संयुक्त उपासना करने से बहुत शीघ्र फल मिलता है। इसी से शक्तिस्थ शिवलिङ्ग की उपासना की जाती है।

भगवान् शिव आशुतोष हैं। वे यों तो जिसकी जैसी इच्छा होती है, उसे तत्काल पूर्ण कर देते हैं; परंतु मुख्यतया मोक्ष और विद्याप्राप्ति के इच्छुकों को शिवोपासना करनी चाहिये। मोक्षदाता देव मुख्यतया भगवान् शंकर ही हैं। इसीलिये शिवपुरी काशी के विषय में 'काशीमरणान्मुक्तिः' ऐसा प्रसिद्ध है। अन्य देवों और अवतारों की पुरियों में निवास करनेवालों के लिये उन्हीं के लोकों की प्राप्ति शास्त्र में बतलायी गयी है-कैवल्य-मोक्ष की नहीं।

प्र०-शिवोपासना के विशेष चमत्कार से युक्त कोई ऐसी घटना सुनाइये, जो आपके अनुभव में आयी हो।

उ०-एक बार एक ब्रह्मचारी जी और एक बंगाली नवयुवक ने श्रीवैद्यनाथधाम में धरना देने का निश्चय किया। ब्रह्मचारी महोदय के पास एक छतरी और दस-ग्यारह रुपये थे। वे कविवर श्रीहर्ष के समान कवित्व-शक्ति प्राप्त करने की कामना से धरना देना चाहते थे। बंगाली नवयुवक को । शुलरोग था, वह उससे मुक्त होना चाहता था। उसके पास सौ-सवा सौ रुपये की सम्पत्ति थी। दोनों ने अपना रुपया पैसा और सामान एक पण्डे को सौंप दिया और अपने लिये चरणामृत एवं प्रसाद पहुंचाने की व्यवस्था भी उसी पण्डे को सौंपकर वे स्वयं धरना देकर पड़ गये। परंतु वह पण्डा उनका सारा सामान लेकर चला गया और उनके प्रसाद आदि की भी कोई व्यवस्था न रही।

चार दिन बीतने पर ब्रह्मचारी महोदय के चित्त में अकस्मात् वैराग्य का प्रादुर्भाव हुआ। वे सोचने लगे-'आखिर, श्रीहा भी तो काल के गाल में ही चले गये। फिर उनके कवित्व मे ही मुझे क्या लेना है?' ऐसा सोचकर उन्होंने धरना छोड़ दिया और अपने बंगाली मित्र के लिये प्रसाद आदि की सुव्यवस्था करा दी। ग्यारह दिन बीतने पर उस बंगाली नवयुवक को स्वप्र में भैरवजी का दर्शन हुआ। उनसे उसने अपना दुःख निवेदन किया। तब वे बोले-'तुम पूर्वजन्में शिवोपासक थे। उस समय तुम्हें भगवान् शंकर की उपासना के लिये जो द्रव्य दिया जाता था, उसमें से बहुत-सा तुम हरण कर लेते थे। उस पाप के कारण ही तुम्हें यह रोग हुआ है। यह रोग तुम्हारे इस जन्म में दूर नहीं हो सकता, परंतु तुमने भगवान् शिव की शरण ली है, इसलिये इस जन्म में यह और नहीं बढ़ेगा।'

तदनन्तर उस बंगाली नवयुवक ने धरना छोड़ दिया और उसका रोग जो अबतक निरन्तर बढ़ रहा था और अधिक नहीं बढ़ा तथा वह भगवान् शिव का अनन्य भक्त हो गया।

प्र०-शक्तितत्त्व क्या है?

उ०-जो निर्विशेष शुद्ध तत्त्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार है, उसी को पुंस्त्वदृष्टि से 'चित्' और स्त्रीत्वदृष्टि से 'चिति' कहते हैं। शुद्ध चेतन और शुद्ध चिति ये एक ही तत्त्वके दो नाम हैं। माया में प्रतिबिम्बित उसी तत्त्व की जब पुरुष रूप से उपासना की जाती है तब उसे ईश्वर, शिव अथवा भगवान् आदि नामों से पुकारते हैं और जब स्त्रीरूप से उसकी उपासना करते हैं तो उसी को ईश्वरी, दुर्गा अथवा भगवती कहते हैं। इस प्रकार शिव- गौरी, कृष्ण-राधा, राम-सीता तथा विष्णु-लक्ष्मी-ये परस्पर अभिन्न ही हैं। इनमें वस्तुतः कुछ भी भेद नहीं है । केवल उपासकों के दृष्टि-भेद से ही इनके नाम और रूपों में भेद माना जाता है ।

प्र०-शक्ति-उपासना का अधिकारी कौन है और उसका अन्तिम फल क्या है?

उ०-शक्ति की उपासना प्रायः सिद्धियों की प्राप्ति के लिये की जाती है। तन्त्रशास्त्र का मुख्य उद्देश्य सिद्धिलाभ ही है। आसुरी प्रकृति के पुरुष शक्ति का पूजन तामसी पदार्थों से करते हैं और दैवी प्रकृति के उपासक गन्ध-पुष्प आदि सात्त्विक पदार्थों से, जिससे उन्हें क्रमश: अनेक प्रकार की आसुरी और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

इस प्रकार यद्यपि शक्ति के उपासक प्रायः सकाम पुरुष ही होते हैं तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें निष्काम उपासक होते ही नहीं। परमहंस रामकृष्ण ऐसे ही निष्काम उपासक थे। ऐसे उपासक तो सब प्रकार की सिद्धियों को ठुकराकर उसी परम पद को प्राप्त होते हैं, जो परमहंसों का गन्तव्य स्थान है और यही शक्त्युपासना का चरम फल है। श्रीदुर्गासप्तशती (११ । ८) -में जिस प्रकार देवी को 'स्वर्गप्रदा' बतलाया गया है, उसी प्रकार उन्हें 'अपवर्गदा' भी कहा गया है।

'स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

प्र०-शक्त्युपासनाका महत्त्व सूचित करने वाली कोई सच्ची घटना सुनाइये।

उ०-प्राय: सवा सौ वर्ष हुए; जगन्नाथ पुरी के पास एक जमींदार थे। लोग उन्हें 'कर्ताजी' कहकर पुकारा करते थे। उन्होंने एक पण्डितजी से वैष्णव धर्म की दीक्षा ली। पण्डितजी ऊपर से तो वैष्णव बने हुए थे, किंतु वास्तव में श्यामा (काली) -के उपासक थे। वस्तुतः उनकी दृष्टि में श्याम और श्यामा में कोई भेद नहीं था। इधर, कुछ लोगों ने कर्ताजी से उनकी शिकायत करनी आरम्भ कर दी, परंतु कर्ताजीको अपने गुरुजीसे इस विषय में कोई प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ। उस देश के लोग अपने गुरु का बहुत गौरव मानते हैं। पण्डित जी रात्रि के समय माँ काली की उपासना किया करते थे। अत: कुछ लोगों ने कर्त्ताजी को निश्चय कराने के लिये उन्हें रात्रि को, जिस समय पण्डित जी पूजा में बैठते थे, ले जाने का आयोजन किया। एक दिन जिस समय पण्डित जी माता की पूजा कर रहे थे, वे अकस्मात् कर्त्ता जी को लेकर आ धमके। कर्त्ताजी को आया देख पण्डितजी कुछ सहमे और उन्होंने जगदम्बा से प्रार्थना की कि 'माँ! यदि तेरे चरणों में मेरा अनन्य प्रेम है तो तू श्यामासे श्याम हो जा।' पण्डितजी की प्रार्थना से वह मूर्ति कर्ताजी के सहित उन सब लोगों को श्रीकृष्णरूप में ही दिखलायी दी। इस प्रकार अपने भक्त की प्रार्थना स्वीकार करके भगवती ने भगवान्के साथ अपना अभेद सिद्ध कर दिया।

साभारः  श्री उड़ियाबाबा जी एवम्  सितम्बर 2005 कल्याण

 

 

                                                                                              

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