भक्त के हृदय से भगवान् की मोेहिनी मूर्ति कभी दूर नहीं होती। वह अपनेे-आपको भुलाकर भग्रवान् के प्रेम में मतवाला रहता है। जाति-पाँति, कुल-धर्म, लोेक-परलोक सबको भक्त अपने भगवान् पर निछावर कर देता हैै। वह सोतेे-जागते, उठते-बैठते, सदा-सर्वदा अपने परम प्रियतम भगवान् का ही नाम-गुण-गान किया करता है। ऐसा भक्त जगत् को पावन करता है, भवसागर में गोते खाते हुए अनेक प्राणियों को पार कर देता है। वह स्वयं तरता है और लोगों को तारता है, ऐसे ही एक तन्मय भक्त की कथा सुनाकर आज लेखनी को पवित्रा करना है। राजपूताने के किसी गँाव में कूबा नामक एक भक्त हो गये हैं। कूबाजी जाति के कुम्हार थे। मिट्टी के बरतन बनाकर बेचना आपका पुश्तैनी पेशा था। परिवार में आपके पुरी नाम्नी धर्मशीला पत्नी थी। महीने भर में मिट्टी के सिर्फ तीस बरतन बनाकर उसी पर स्त्राी-पुरुष अपना जीवन-निर्वाह करते थे। बाकी सारा समय भगवान् के गुणगान और नाम-स्मरण में लगाते। सत्य बोलना इनके जीवन का व्रत था, क्षमा और शान्ति तो मानो इनके अन्दर मूर्तिमान् होेकर विराजती थीं; हर्ष-शोक, लोभ और उद्वेग को इनकेे हृदयमंे कभी स्थान नहीं मिलता। ये सदैव ही परम आनन्द में मग्न हुए भगवान् का निष्काम भजन करते और घर पर आये हुए अतिथियों की भगवद्भाव से सेवा किया करते थे। उनके हृदय में यह दृढ़ विश्वास था कि सुख-दुःखादि भोग कर्मोंके फल और मायारचित हैं, इनसे आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसी से ये सदा समभाव से आनन्द में रहते थे।
कूबाजी का जीवन बड़ा ही पवित्रा था, थोड़े-से मिट्टी के बरतनों से मिलनेवाले पैसों पर ही उन्हें अतिथि सेवा और अपना जीवन-निर्वाह करना पड़ता था, इससे उनके घर अन्न-वस्त्रा की प्रायः कमी ही रहा करती थी, परंतु उन्हें इस बात की कोई परवा नहीं थी। वे सदा संतुष्ट रहते थे, उनका अन्न इतना पवित्रा था कि उसे एक बार खा लेनेवाले भी भक्त बन जाते थे।
भक्तवत्सल भगवान् भक्तवर कूबीजी के द्वारा अपनी भक्ति का प्रचार कराना चाहते थे, इससे आपने एक लीला की। दो सौ साधुओं का एक दल भजन-कीर्तन करता हुआ कूबाजी के गाँव में पहुँचा। साधुओं ने गाँव के लोगों से कहा कि ‘भाइयों! साधुओं की मण्डली भूखी है, कोई उदार सज्जन हम लोगों को भोजन का समान दे दे तो बड़ा उपकार हो।’ गाँव में सेठ-साहूकार बहुत थे, परंतु लोगों ने साधुओं को कूबा का नाम बतला दिया। धनका सदुपयोग किसी बिरले मनुष्य के हाथों से ही होता है, नहीं तो तीनों मेें से एक गति होती है या तो मनुष्य धन को भोगों में लुटाकर पाप-स×चय करता है या जीवन-भर साँप की तरह उसकी रक्षा कर अंत में हाथ पसारे चला जाता है अथवा बीच में किसी कारणवश धन नष्ट हो जाता है। घर आये साधु अतिथियों का सत्कार करना बड़े पुण्य का फल है।
साधु-मण्डली कूबाजी के घर पहुँची और वहाँ जाकर उसने ‘सीताराम’ की ध्वनि की। भगवान् के प्यारे नाम की गगनव्यापिनी ध्वनि को सुनकर कूबाजी का शरीर पुलकित हो गया। वे दौड़कर बाहर आये। साधु-मण्डली को देखकर उनका हृदय आनन्द के आवेश से द्रवित हो गया। उन्होंने सबको साष्टांग दण्डवत् कर कहा-‘आज मेरा अहोभाग्य है जो आप महानुभावों के दर्शन हुए, कृपा करके कुछ सेवा फरमाइये।’ साधुओं के प्रधान ने कहा-‘साधु बड़े भूखे हैं, इनके लिये जल्दी सामान का प्रबन्ध होना चाहिये।’ कूबाजी ने बड़े आनन्द से आज्ञा को सिर चढ़ाया, परंतु घर में एक छटाक भी अन्न नहीं था। दो सौ आदमियों कोे कहाँ से खिलोवें! कूबाजी ने मन-ही-मन भगवान् को याद किया। तदनन्तर वे एक महाजन के यहाँ जाकर कहने लगे कि ‘सेठ साहेब! मेरे घर दो सौ महात्मा अतिथि आये हैं; उन्हें खाने का सामान दीजिये। सामान की कीमत मै आप चाहेंगे वैसे ही अदा कर दूँगा।’ महाजन कूबाजी की निर्धनता के साथ ही उनकी सत्यवादिता और टेक से पूरा परिचित था। महाजन ने कहा, ‘भाई! मुझे एक कुआँ खुदवाना है, तू अपने हाथों सारा कुआँ खोद देने का वादा करे तो मैं साधुओं के लिये अभी पूरा सीधा दे दूँगा।’ भक्त कूबाजी ने महाजन की शर्त स्वीकार कर ली। महाजन ने चावल, दाल, आटा, घी आदि सामान दिलवा दिया। कूबाजी ने खुशी के साथ सामान लाकर साधुओं को दे दिया। साधुवेषधारी भगवान् कूबा को अचल भक्ति का आशीर्वाद देकर मण्डलीसहित चले गये।
साधुओं के जाते ही बताके पक्के कूबाजी अपनी पतिव्रता स्त्राी पुरी समेत सेठ के यहाँ जाकर कुआँ खोदने के काम में लग गये। कूबा कुआँ खोदते जाते और उनकी स्त्राी मिट्टी फेंकती जाती थी। हरिनाम की ध्वनि निरंतर दोनों करते रहते। बहुत दिनों तक इसी प्रकार खोदने पर अंत में एक दिन कुएँ में जल निकल आया। जल बहुत ही मीठा था; परंतु नीचे बालू बहुत ज्यादा होने के कारण ़ऊपर की जमीन को कोई सहारा नहीं रह गया, इससे एक दिन जब कूबाजी नीचे उतरकर कुछ काम कर रहे थे कि अचानक ऊपर की सारी मिट्टी धँसकर उनपर गिर पड़ी। ‘पुरी’ तो दूर चली गयी थी, परंतु कूबाजी मिट्टी के नीचे दब गये। पुरी रोने लगी। हो-हल्ला सुनकर गाँव के लोगों के साथ महाजन भी वहाँ आ पहुँचा। कूबाजी को मिट्टी के ढेर के नीचे दबा जानकर सभी को बड़ा दुःख हुआ। मिट्टी निकालना एक दिन का काम नहीं था, तब तक श्वास रुककर कूबा मर जायँगे, इस बात को सोचकर लोगों ने पुरी को समझाना-बुझाना शुरु किया। उन्होंने कहा-‘देखों, उपाय करते हैं; मिट्टी निकलने तक बच गया तो बड़ी अच्छी बात है, नहीं तो क्या उपाय है? तुम घर जाकर भगवान् का भजन करो, भावी ऐसी ही थी।’ कुछ सहृदय लोगों ने आश्वासन देते हुए खाने-पीने का सामान पहुँचा देने का भी वचन दिया, परंतु सती स्त्राी का दुःख इन बातों से कैसे मिटता?
इतने में भीड़ में से एकने कहा कि वह तो बड़ा भक्त था। उस पर ईश्वर का इतना कोप क्योंकर हुआ? दूसरे ने कहा, यह घटना तो होनी थी, उसके प्रारब्ध का फल था, परंतु भगवान् को अपने भक्त की रक्षा तो जरूर करनी चाहियेे थी। तीसरे ने कहा कि धर्म-धर्म चिल्लानेवाले मूर्खों की यही दुर्गति हुआ करती है; इस पर उन मुफ्तखोरों कोे खिलाने की धुन न सवार होती तो आज इसकी क्यों ऐसी दशा होती। चैथे नेे कहा, रखा क्या है भगवान् की भक्ति में! इस तरह लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार मनमानी चर्चा कर रहे थे। अंत में कूबेकी पत्नी पुरी को समझा-बुझाकर लोग अपनेे साथ ले जाकर उसके घर पहुँचा आये। पुरी के दुःख का दूसरों को कैसे अनुभव होता? वह बेचारी घर पहुँचकर आँसुओं की धारा से शरीर को भिगोने लगी।
गाँव के लोग इस दुर्घटना को भूल गये। ममता के बिना कौन किसको याद रखता है? दिन जाते देर नहीं लगती। एक वर्ष बीत गया। बरसात में पानी के साथ बहकर आनेवाली मिट्टी से कुएँ का गड्ढा भी भर गया। उधर से कुछ यात्राी जा रहे थे। रात हो जाने से उन लोगों ने वही डेरा लगाया। रात को उन्हें अचानक जमीन के अन्दर से करताल, मृदंग और वीणा के साथ हरि-कीर्तन की मधुर ध्वनि सुनायी दी। वे आश्चर्य में डूब गये। रातभर वे उसी प्रकार ध्वनि सुनते रहे, उस ध्वनि का इतना प्र्रभाव पड़ा कि उन लोगों ने भी मस्त होकर कीर्तन करते रात बितायी। सबेरा होते ही उन्होंनं रात की घटना गाँव वालों को सुनायी। पहले तो उनको विश्वास नहीं हुआ, परंतु जब लोगों ने जमीन पर कान टेककर सुना तो उन्हें भी वहीं ध्वनि सुनायी दी। अब तो उनके अचरज का पार नहीं रहा; बात की बात में आग की तरह चारों ओर यह खबर फैल गयी। आस-पास के गाँवो तक के हजारों स्त्राी-पुरुष, वृद्ध-बालक भजन की ध्वनि सुनने को वहाँ इकट्ठे हो गये। राजा के कान तक बात पहुँची, वह भी अपने मन्त्रिायों सहित वहाँ आया। भजन की ध्वनि सुनकर उसने गाँव वालों से सारा इतिहास जानकर सैकड़ों आदमियों को धीरे-धीरे मिट्टी निकालने लगा दिया! कुछ ही घंटों में मिट्टी निकल गयी, कुआँ साफ हो गया। भीतर का दृृश्य अदभूत था, सौभाग्यशाली राजासहित सभी लोग उस मनोहर दृश्य को देखकर चकित हो गये। लोगों ने देखा, एक ओर निर्मल जल की धारा बह रही है, भगवान् श्री हरि, जिनका नील कमल के समान सुन्दर वर्ण है, चारों भुजाओं में शंख-चक्र-गदा-पदम धारण किये हुए हैं, पीताम्बर की शोभा अनुपम है, मधुर मुसकराते हुए आसन पर विराजमान हैं। भक्तवर कूबाजी उनके सामने आनन्द में मतवाले होकर गुणगान करते हुए नाच रहे हैं, उनके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बह रही है, तन की कुछ सुधि नहीं है, दिव्य बाजे बज रहे हैं, जिनकी मधुर ध्वनि से सारा आकाश गुँज रहा है।
यह दिव्य दृश्य देखकर सबके अन्तः करण में श्रद्धा, भक्ति और प्रेेम की बाढ़ आ गयी। धर्म और भगवान् के निन्दक भी प्रेम के प्रवाह में बह गये। राजाने हाथ जोड़कर साष्टांग प्रणाम किया। भगवान् की मूर्ति अचानक अन्तर्धान हो गयी। राजाने कूबाजी को बाहर निकलवाकर लोगों से कहा कि देखों यह कोई साधारण पुरुष नहीं हैं, सब लोग इनके चरणों में प्रणाम करो। सब ने कूबा की चरणधूलि मस्तक पर चढ़ायी।
कूबाजी घर आये। पत्नी ने भक्त पति को पाकर परमानंद लाभ किया। थोड़े ही काल में कूबाजी की कीर्ति-सौरभ सब तरफ फैल गयी। दूर-दूर के लोग उनके दर्शन और उपदेश से लाभ उठाने लगे। राजा तो प्रतिदिन नियम से उनके दर्शन को आता था।
कहते हैं कि कूबाजी की भक्ति के प्रताप से एक बार अकाल के समय लोगों को प्रचुर अन्न मिला था। और भी अनेक बातें उनके जीवन में हुईं। अनेकों स्त्राी-पुरुष उनके संग को पाकर भवसागर से तर गये।
बोलो भक्त और उनके भगवान् की जय!
कूबा कृपानाथ की कृपा
हरि अनन्त हैं, उनकी कथाएँ भी अनन्त है। इसी प्रकार उनकी कृपा के पारावार की भी कोई सीमा नहीं है। कोई सौ वर्ष पूर्व राजस्थान के एक गाँव में एक कुम्हार रहता था। नाम था कूबा। एक तो कुम्हार वैसे ही सम्पन्न नहीं होता, फिर कूबा तो संसार-व्यापार को भगवान के भजन में बाधा मानकर जीविकोपार्जन की ओर भी पूरा ध्यान नहीं देता था। ध्यान देने योग्य वस्तु जो केवल भगवान का ही भजन है। इस दृष्टि से कूबा मास में केवल तीन बर्तन गिन कर गढ़ता और उनकी साधारण-सी आय से ही उदरपू£त का साधन जुटाता। शेष समय उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते वह अपने प्रभु का ही ध्यान करता। लोभ या तो भजन का, मोह था तो भजन का, संग्रह था तो भजन का। दूसरा कोई काम था तो वह घर आए अतिथियों की, प्रभु की भावना से ही यथाशक्ति सेवा करना। इस प्रकार कूबा का जीवन ‘यथा लाभ संतोष’ का प्रभु-परायण जीवन था। एक बार कूबा भक्त की ख्याति सुनकर उसके ग्राम में से जाती हुई साधु मण्डली उसकी कुटिया पर आ पहुँची। उस समय के अनुसार वहाँ भी धनी-मानी व्यक्ति थे। पर साधु भी तो भगवान की तरह ही भाव के भूखे होते हैं। कूबा ने बड़ी प्रसन्नता से साधुओं का स्वागत किया और यथा-शक्ति उनके ठहरने की व्यवस्था की। अब उस निर्धन कूबा के सम्मुख साधुओं को भिक्षा कराने का धर्म संकट उपस्थित हुआ। साधु थोड़े-न-बहुत, दो सौ थे। उसके घर में अन्न दो जनों के लिए भी न था। पर उसे क्लेश किस बात का होता? वह तो अपने भाग्य पर फूला न समा रहा था। वह सोच रहा थाµ “साधु भगवान का ही स्वरूप होते हैं। उनकी सेवा करके मेरा जन्म सफल हो जाएगा।” इसी उधेड़बुन में वह ग्राम के एक धनी महाजन के यहाँ पहुँचा। अपनी समस्या उसके सामने रखी। महाजन ने वणिक-बुद्धि से सौदा किया। बोलाµ “कूबा भगत! आटा, दाल, चालव, दूध, घीµ सब सामग्री जुटा देता हूँ, पर मेरी एक शर्त है। मुझे ग्राम के पूर्वी छोर पर कुआँ बनवाना है। यदि तू बिना किसी और श्रमिक की सहायता लिए यह कार्य कर सके तो.......“
कूबा को और क्या चाहिए था। परिश्रम भी तो भगवान् का ही स्वरूप है। उसने महाजन को आगे बोलने का अवसर ही नहीं दिया। सौदा तय हो गया। भोजन की सामग्री कूबा की कुटिया में पहुँच गई। भण्डारा हुआ। बड़ी शान्ति से उस छोटे-से गाँव में एक ऐसा महायज्ञ हो गया जैसा पहले कभी नहीं हुआ था, और वह भी एक अकिंचन कुम्हार के घर। कैसी विलक्षण बात! साधु-संगत बहुत संतुष्ट हुई। कूबा की श्रद्धा-भक्ति देखकर तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। कूबा को उन्होंने भगवद्भक्ति का आशीर्वाद दिया और वहाँ से विदा ली। भगवान में पूर्ण निष्ठा रख्ने वाला कूबा साधुओं के प्रस्थान के अनन्तर ही अपनी पत्नी ‘पुरी’ के साथ ग्राम के पूर्वी छोर पर यथा स्थान कुआँ खोदने में संलग्न हो गया। हरिनाम संकीर्तन की ध्वनि के साथ वे पति-पत्नी मिट्टी खोदते और बाहर डाल देते। पग-पग पर मानो श्रम रूप भगवान की ही उपासना हो रही थी। कूबा के लिए तो यह महान नाम-यज्ञ था। अन्त में भक्त के श्रम की विजय हुई, जल का स्रोत निकल आया। पर कुएँ की तली में बालू की परत थी। वह मिट्टी का बोझ न सह सकी। कुआँ बैठ गया और कूबा भक्त नीचे दब गए। पुरी हाहाकार कर उठी। कूबा को जल समाधि मिल गई। प्रभु की इच्छा। कालान्तर में वह स्थान वर्षा जल से बह कर आने वाली मिट्टी से पट गया। ग्रामवासी ऐसे कृतघ्न निकले कि कूबा को भूल ही गए। पर करुणा सागर को क्या कभी किसी ने कृतघ्न सुना है? वह तो अपने अनन्य सेवक की सब प्रकार से सब परिस्थितियों में कृपापूर्वक रक्षा करते हैं। कुछ समय बीतने पर उस ग्राम में यात्रियों के एक दल ने उसी स्थान पर रात्रि के समय विश्राम किया। निद्रा लेने लगे तो नींद आए नहीं। भूमि के नीचे से करतल-मृदंग के मधुर स्वरों के बीच ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव’ का घोष सुनाई दे रहा था। ज्यों-ज्यों रात्रि की नीरवता बढ़ी, यह कृष्ण-कीर्तन और भी स्पष्ट सुनाई देने लगा। ग्राम के लोग इकट्ठा हुए। कोई कहेµ ‘कूबा का भूत है।’ कोई कहेµ ‘ऐसा न कहो, यह भगवान के परमभक्त हैं।’ होते-होते उस प्रदेश का राजा भी अपने अमात्यों सहित वहाँ आया। सावधानीपूर्वक मिट्टी खोदी गई। अनेक श्रमिक थे, राजशक्ति थी। कुछ ही समय में राजा और उपस्थित जनों के सम्मुख प्रकाश हो गया। कुएँ के तल में निर्मल जल की धारा प्रवाहित हो रही थी। एक ओर दिव्य सिंहासन पर शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज भगवान विराजमान थे और दूसरी ओर हाथ में करताल लिए कूबा अपनी देह को भूलकर कीर्तन कर रहा था। भगवान् के विग्रह से अश्रु प्रवाह के बीच दिव्य मुस्कान चमक रही थी, और उधर कूबा की वाणी गद्गद् थी, नेत्रों से नीर बह रहा था और रोमावलि खड़ी थी। ऐसा अनोखा दृश्य देखकर सभी ने अपने भागय को सराहा। भक्त पर प्रसन्न होकर उन कृपानाथ ने सबको ही दिव्य दर्शन दिए और अन्तर्धान हो गए। राजा ने कूबा की चरण धूलि मस्तक पर धारण की। उनके नित्य दर्शन का नियम लिया और अपना जीवन सफल बना लिया। परी की तो जीवन की सम्पूर्ण साधना ही फलवती हो गई। दोनों पति-पत्नी पूर्ववत् भगवद्-भजन और सत्संग में लग गए कूबा तो भगवत्कृपा का स्मरण कर प्रायः विदेहावस्था में ही रहते थे।