कश्मीर के प्रमुख तीर्थ-स्थल प्रो चमनलाल सप्रू

कश्मीर के प्रमुख तीर्थ-स्थल प्रो चमनलाल सप्रू


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कश्मीर  के प्रमुख तीर्थ-स्थल

प्रो चमनलाल सप्रू   

कश्मीरी जनमानस ने अनन्तकाल से अपनी मूल संस्कृति से जुड़े रहने हेतु घाटी में भी कई प्रमुख तीर्थ- स्थलों की प्रतिष्ठा की है। वे गंगा बल में गंगा को देखते हैं और वितस्ता और सिन्धु के संगम में ही प्रयाग को देखते हैं।

कश्मीर का प्राकृतिक सौन्दर्य विश्वविख्यात  है और असंख्य पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि पर्यटन स्थलों से कहीं अधिक घाटी में महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल भी विद्यमान हैं। नीलमत पुराण के अनुसार:

'पृथिव्यां यानि तीर्थानि तानि कश्मीर मण्डले' प्राचीन काल में भौगोलिक कठिनाइयों के कारण देश के शेष भागों से (जाड़ों में विशेषकर) कटा-सा रहने के कारण कश्मीरी जनमानस ने अनन्त काल से अपनी मूल संस्कृति से जुड़े रहने हेतु घाटी में भी कई प्रमुख तीर्थ-स्थलों की प्रतिष्ठा की है। वे गंगा बल में गंगा को देखते हैं और वितस्ता और सिन्धु के संगम में ही प्रयाग को देखते हैं।

वैदिक काल से लेकर बारहवीं शताब्दी तक कश्मीर हिन्दू संस्कृति, धर्म और दर्शन का एक प्रधान केन्द्र रहा है। कश्मीरी हिन्दू समाज में अभी भी प्राचीन संस्कृति की शाश्वत ऊर्जा- अपनी श्रद्धा-विश्वास, परम्परा और जीवन पद्धति में निरन्तर प्रकाशमान है। प्रत्येक सनातनी हिन्दू परमात्मा की 'पंचायतन' के रूप में उपासना करता है। पंचदेव- अर्थात गणेश, शिव, विष्णु, देवी और सूर्य। कश्मीर में इन सभी देवों से सम्बंधित तीर्थ-स्थल हैं और प्रमुख अवतारों यथा-श्री राम और श्रीकृष्ण से सम्बंधित पूजा स्थल भी हैं। यहां केवल हम इन पंचदेवों से सम्बंधित तीर्थ-स्थलों का ही वर्णन कर रहे हैं:

 

गणेश

गणेश की पूजा आदि देव के रूप में होती है वे शिव के पुत्र हैं। इन्हें सिद्धिदाता और विघ्नहर्ता के रूप में पूजा जाता है। श्रीनगर के मध्य में गणेश जी का एक प्रमुख तीर्थ-स्थल है। इनके नाम से ही पूरे मुहल्ले का नाम गणपतयार पड़ा। वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को यहां वार्षिक उत्सव और मेले का आयोजन होता है। ब्राह्मण महामण्डल कश्मीर के तत्त्वावधान में यहां ब्रह्म-जयन्ती' के दिन एक महायज्ञ भी होता रहा है। एक किंवदन्ती के अनुसार पठानों के शासन में, इस तीर्थ पर अनन्तकाल से पूजित गणेश जी की मूर्ति को कश्मीरी पंडितों ने वितस्ता के जल में छिपा दिया-इस भय से कि जालिम पठान मूर्ति की पवित्रता को भंग न करें! डोगरा शासन में श्रद्धालुओं ने इसे जल के बीच से ढूंढ निकाला और वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को  इसकी पुनः प्राण प्रतिष्ठा की। यह प्राचीन मूर्ति । आजकल मुख्य मन्दिर के साथ ही शिवालय में शंकर भगवान के लिंग के साथ स्थापित है। मुख्य मन्दिर के गर्भगृह में दो विशाल और भव्य गणपति-मूर्तियों को बाद में प्रतिष्ठित किया गया है। यह दोनों संभवत: डोगरा शासकों के सौजन्य से ही प्रतिष्ठित हुई हैं।

हारी पर्वत के दामन में आदि देव गणेश का एक और प्रमुख तीर्थस्थल है। हारी पर्वत की प्रतिदिन अथवा विशिष्ट पर्वो अथवा मासों (माघ और आषाढ़) में प्रदक्षिणा करना प्रत्येक कश्मीरी  हिन्दू पुण्य एवं फलदायक मानता है! और परिक्रमा का आरम्भ भी हारी पर्वत के गणेश मन्दिर में पूजन से ही करता है। इस पूजा-स्थल के साथ मखदूम साहब की भी जियारत है। किंवदन्ती है कि मखदूम साहब गणपति-देव के सानिध्य में साधना करते रहे और सिद्धि को प्राप्त किया। श्री अमरनाथ यात्रा का शुभारम्भ भी पहलगाम के निकट प्रसिद्ध गणेश-बल में गणेश जी के पूजन से आरम्भ होती है।

 

शिव

कश्मीर में शायद ही कोई पूजा-स्थल हो जहां  शिवलिंग प्रतिष्ठित न मिले। कहीं-कहीं पर बड़े ही विशालकाय शिवलिंग मिलते हैं । विश्व-प्रसिद्ध अमरनाथ गुफा में तो हिमनिर्मित स्वयंभू शिवलिंग के अनुपम दर्शन होते हैं। प्रत्येक पूर्णमासी को अपने सम्पूर्ण आकार में गुफा में शिवलिंग प्रकट होता है, और चन्द्र कलाओं के घटने-बढ़ने के साथ-साथ अमरनाथ गुफा में स्थित शिवलिंग को भी घटते-बढ़ते हुए देखा जा सकता है सभी प्रकार के देशी-विदेशी मतावलंबी इस अद्भुत हिम-निर्मित शिवलिंग के दर्शनार्थ हजारों की संख्या में आते हैं। श्रावण-पूर्णिमा (रक्षा-बन्धन) के पावन उत्सव पर इस तीर्थ-स्थल की वार्षिक यात्रा बड़ी धूम-धाम से होती है। यात्रा श्रीनगर के अखाड़ा से नाग पंचमी के दिन पवित्र छड़ी' के पूजन के उपरान्त होती है। अखाड़ा के महंत जी 'पवित्र-छडी' को अपने कंधे पर उठाये हजारों साधुओं का नेतृत्व करते हुए यात्रा पर रवाना होते हैं। उनके पीछे-पीछे असंख्य यात्री जुड़ जाते हैं। श्रावण-पूर्णिमा के दिन यह यात्रा ब्रह्ममुहूर्त में अमरनाथ गुफा में पहुंचती है। मार्ग में दुर्गानाग, कानपुर, विजय विहार (बिजबिहाड़ा) अनन्तनाग, मार्तण्ड, गणेशबल, पहलगाम होते यात्रियों का जलूस दशमी/एकादशी को इस तीर्थ-स्थल पर पहुंच जाता है।

पहलगाम तक बस/मोटर से भी यात्रा की जाती है। किन्तु वहां से अमरनाथ गुफा तक केवल पैदल या घोड़ों पर बैठकर ही यात्रा होती है। बीच में चंदनवाड़ी, शेषनाग (झील) वावजन, पंचतरणी तीन प्रमुख पड़ावों से होते हुए भगवान अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुंच जाते हैं।

इस पवित्र तीर्थ की यात्रा आदि शंकराचार्य से लेकर स्वामी विवेकानन्द और स्वामी रामतीर्थ ने भी की है। स्वामी रामतीर्थ ने इस तीर्थ से सम्बंधित अतीव प्रेरणादायी कविताओं की रचना की है। स्वामी विवेकानन्द को गुफा में शिवदर्शन के साथ अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। उन्होंने अपने विदेशी शिष्यों को इस अनुभूति के बारे में बताते हुए कहा-'यह शिवलिंग तो प्रत्यक्ष परमात्मा ही थे। वहां मात्र पूजा और पूजा ही थी। मैंने इतना सुन्दर और प्रेरणादायी स्थल इससे पूर्व कहीं नहीं देखा है।

एक और भव्य शिव मन्दिर शंकराचार्य पहाड़ी पर श्रीनगर शहर में डल झील के किनारे बड़ी शान से पूरी घाटी के पहरेदार के रूप में विराजमान है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इस पर्वत की चोटी पर तपस्या की होगी तभी तो इस पहाड़ी का नाम शंकराचार्य पर्वत पड़ा है। स्वामी विवेकानन्द ने इस मन्दिर के दर्शनोपरान्त कहा-'देखो! हिन्दू मन्दिर स्थापना करते समय किस बुद्धिमता का प्रदर्शन करता है। वह सदा प्रभावशाली भव्य प्राकृतिक, परिदृश्य ही चुनता है। देखो! इस पर्वत से पूरे कश्मीर का नियंत्रण होता है।

घाटी के चारों ओर उत्तुंग हिमाच्छादित चोटियों के नाम भगवान-शिव से ही सम्बंधित हैं जैसे महादेव, हरमुख आदि। महादेव पर्वत के दामन में ही हारवन नामक स्थान पर ही शिव सूत्रों (जो शैव दर्शन का आधार हैं) की रचना हुई थी। जो भक्त अमरनाथ नहीं जा सकते हैं वे श्रावण-पूर्णिमा के दिन महादेव की यात्रा करते हैं। इसी दिन निम्नलिखित शिवस्थलियों के दर्शनार्थ भी श्रद्धालु यात्रा करते हैं- ध्यानेश्वर गुफा (बांडीपुर) थजवोर (विजबिहाड़ा) हरिश्वर (खोनमुह) आदि। घाटी के असंख्य शिवमन्दिरों में शुराह यार (दुर्गानाग के निकट), सदाशिव मन्दिर (पुरुषयार) सोमेश्वर (सोमयार) शिवालय (कर्णनगर) आदि का भी वर्णन प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।

 

विष्णु

भगवान विष्णु से सम्बंधित एक मात्र तीर्थ विष्णुपाद या कौसरनाग है। अनन्तनाग जिले में प्रसिद्ध अहरबल जलप्रपात से आगे १४,००० फुट की ऊंचाई पर स्थित यह झील अनुपम है। किंवदन्ती के अनुसार भगवान विष्णु ने अपना पांव यहां रखा है इस कारण पादाकार यह झील विष्णुपाद के नाम से ही प्रसिद्ध है।

 

दैवी शक्ति

कश्मीर में शिवस्थलियों की ही भांति अनेक शक्ति-पीठ भी हैं। इनमें क्षीरभवानी, श्री शारिका . भगवती (हारी पर्वत) महाकाली ( श्रीनगर और वाडूरा) ज्वालामुखी (ख्रिव) शैलपुत्री (बारामूला) शारदा (गुलाम कश्मीर) बालादेवी आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।

भगवती महाराज्ञी जिन्हें स्थानीय लोग क्षीरभवानी के नाम से उपासना करते हैं, श्रीनगर से १४ मील दूर है। यह तीर्थ तुलमुला नामक ग्राम में है और सिंधुघाटी के रम्य वातावरण में असंख्य चिनारों के मध्य अवस्थित है। क्षीरभवानी के जाने वाले मार्ग का आध्यात्मिक महत्त्व भी है। क्षीर भवानी जाते हुए पहले विचार नाग (विचार का स्रोत) आता है। उसके बाद आचार झील (आचार) त्यंगल बाल (अंगारों की पहाड़ी) एंव कांवुज नार (श्मशानाग्नि) तथा अमर हेर (अमरता की सीढ़ी) यह तीनों नाम विवेक के ही प्रतीक हैं। इन पड़ावों से गुजरते हुए इष्ट देवी जगज्जनी के पास पहुंचते हैं जहां शुद्ध और आध्यात्मिक प्रेम का घर है। यहां फिर जगद्धात्री के साथ एकाकार हो जाते हैं।

भुंगेश संहिता नाम से एक प्राचीन ग्रंथ में एक अध्याय में राज्ञा प्रादुर्भाव का वर्णन है। इस ग्रंथ के अनुसार लंकाधीश रावण असीम शक्तियों की प्राप्ति हेतु महाराज्ञी की उपासना करता था। रावण की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर महाराज्ञी ने उसे अनेक वरदान दिए। इसके उपरान्त रावण भोग विलास का जीवन बिताने लगा। देवी सीता का अपहरण करके श्रीरामचन्द्र से युद्ध की तैयारी करने लगा। रावण के दुर्व्यवहार को देखकर महाराज्ञी ने हनुमान जी से कहा कि मुझे ३६० नागों सहित सतीसर (कश्मीर) ले चलो। हनुमान जी ने देवी को तुलमूल गांव में प्रतिष्ठित किया। यहां तब से देवी मां को क्षीरभवानी अथवा महाराज्ञी के रूप में पूजा जाता है। केवल फूल, दूध और मिष्ठान्न से  ही यहां देवी की उपासना होती है।

राजतरंगिणी में तुलमूल के ब्राह्मणों को अदभुत आध्यात्मिक शक्तियों वाला बताया गया है। काफी समय तक यह तीर्थस्थल जलमग्न रहा। बाद में श्री कृष्ण पंडित नाम के एक भक्त ब्राह्मण को स्वप्न में इस स्थान को पुन: प्रकाश में लाने का आदेश  हुआ। वह एक महान भक्त था उसी ने राज्ञा स्तोत्र की भी रचना की है। कालानतर में डोगरा - महाराजाओं ने कुंड के मध्य में संगमरमर का एक सुन्दर मन्दिर यहां पर बनाया। इस कुंड का आकर शारदा लिपि में लिखे गए ॐ की भांति है। ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी को यहां पर वार्षिक मेला लगता है।

अपने कश्मीर प्रवास के समय स्वामी विवेकानन्द ने दो-तीन बार इस तीर्थ-स्थल की भी यात्रा की। श्रीनगर में किसी एकान्त स्थल पर मां काली के साक्षात्कार को प्राप्त होने के तुरन्त बाद स्वामी जी ३० सितम्बर, १८९८ को क्षीर भवानी गए और वहां पर एक सप्ताह तक घोर तपस्या की और मां का पूजन किया। उनकी जीवनी में इस घटना का विशद वर्णन है।

मार्तण्ड का सूर्य मंदिर

अनन्तनाग जिले से ५ मील की दूरी पर मार्तण्ड अथवा भवन नाम का एक ऐतिहासिक गांव है। प्राचीन ग्रंथों में इस स्थान का नाम मार्त्तण्ड कहा गया है। यहां एक अत्यन्त रमणीय स्वच्छ जल का विशाल कुंड है। इसी के निकट ही एक छोटी नदी चाका (चक्र-सुता) भी बहती है। इस नदी के तट पर अधिक मास (ढाई वर्ष में एक बार आने वाला श्राद्ध तर्पण का मास) में हजारों हिन्दू अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। विजय-सप्तमी के पावन उत्सव पर भी यहां बड़ा भारी मेला लगता है। इस कुंड के दक्षिण में लगभग दो-ढाई मील की दूरी पर भव्य मार्तण्ड-मन्दिर के भग्नावशेष अतीत की गौरव गाथा को सुना रहे हैं। भारतीय एवं यूनानी शैली में निर्मित इस विराट मन्दिर का निर्माण कश्मीर नरेश सम्राट ललितादित्य ने किया था। स्वामी विवेकानन्द इस मन्दिर के पुरातत्त्व से इतना प्रभावित हुए थे कि उन्होंने तीन बार इस स्थान का अवलोकन किया ।

अस्वीकरण:

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साभार:- प्रो चमनलाल सप्रू एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य