ड्यजिहोंर - हमारा जातीय आभूषण


फ्यरन, काँगुर (कांगड़ी) और ड्यजिहोंर कश्मीरियत की पहचान की तीन प्रमुख वस्तुएं कही जा सकती हैं। इनमें भी ड्यजिहोंर को अतिविशिष्टता प्राप्त है क्योंकि जहां यह कश्मीरी पण्डित महिला के वैवाहिक जीवन एवं इसमें प्रविष्ट होने की निशानी है वहीं यह उसके (महिला के) जगन्माता महाशक्ति के एक अंश होने का भी प्रतीक है। यह भी कहा जाता है कि ड्यजिहोंर कन्या के लिए माता पिता का आभूषण में आशीर्वाद देवी मां का षड्कोणात्मक स्वरूप एवं एक देवी-यंत्र है। यह एक ऐसा आभूषण है जो आड़े समय में काम आने वाली सम्पत्ति का काम भी देती है। कहने का तात्पर्य यह कि ड्यजिहौर भौतिकता एवं आध्यात्मिकता में समन्वय पैदा करने वाला एक अनोखा दाय है।

कश्मीरी पण्डित परिवारों में बचपन से ही कन्या को ड्यजिहोंर पहनने के लिए तैयार किया जाता रहा है। बच्ची के चार-पांच साल की होने पर ही शुभ मुहूर्त में कनछेदन करवाया जाता था। पहले कान छेदने में प्रवीण महिलाएं ही बच्चियों के कान छेदती थीं और कानों के छेदों में शुद्ध ऊनी धागा पिरोए रखती थीं। छेद पके नहीं इसके लिए वे बच्ची की मां को इन पर सद्यः पके चावलों के बर्तन के ढक्कन पर एकत्रित हुए जलकणों को किसी साफ प्याले या कटोरी में जमाकर और जल में हल्दी मिला प्रतिदिन (सात-आठ दिन के लिए) लेप करने को कहती थी। पर यह कार्य अब कम्पाउडरों से ही करवाया जाने लगा है। देश के अन्य भागों में प्रायः कानों के निचले नर्म भाग को ही छिदवाया जाता है पर कश्मीरी पण्डित परिवारों में कर्ण विवर मुख के ठीक सामने के नर्म हड्डी वाले भाग को विशेष रूप से ड्यजिहोंर पहनने के लिए छिदवाया जाता है। जब कन्या विवाह योग्य हो जाती है तो 'दिवुॅगोन' नामक अनुष्ठान पर लाल डोर या मौलि में ड्यजिहोंर को पिरोकर कर्ण विवर मुख के सामने के छेदों में डोर या मौलि को गुजार कर पहनाया जाता है।

ड्यजिहौर एक स्वर्णाभूषण है जो गोलाई लिए षड्कोण के आकार को होता है। कश्मीरी 'हॉर' शब्द का अर्थ जोड़ी होता है। दोनों कानों में पहनने के लिए 'ड्यजिहोंर' क्यों पड़ा? इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर मुझे अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। जितने विद्वानों या कश्मीरी संस्कृति से जानकर व्यक्तियों से मिला सबने अपने-अपने अनुमान के आधार पर उत्तर दिए। किसी ने इसे 'दित्यहोर' का बिगड़ा रूप बताया, किसी ने 'द्विजहोर' शब्द से इसका सम्बंध बिठाने की कोशिश की और किसी ने इसे 'डिजि-डिजि' याने दोलन (swing) या दोलायमान होने के कारण को इसके नामकरण का आधार बताया। मेरे विचार से अभी तक इस आभूषण के नामकरण के सम्बंध में सही दिशा में खोज करने का प्रयत्न किसी ने नहीं किया है।

यह आभूषण अन्दर से पोला होता है और इसके समानान्तर छोरों के मध्य दो छेद होते हैं। इन छेदों से एक डोर के दो छोरों को गुजारा जाता है। इस डोर के ठीक मध्य में एक लम्बा सा फुन्दना पिरोया रहता है। इस फ़न्दने को ' अटुॅहोर

' तथा डोर को 'अठ' कहा जाता है। ड्यजिहोंर के छेदों से गुजारे जाने के बाद 'अठ' के एक छोर को कान के छेद से गुजार कर कान के पीछे डोर के दूसरे सिरे के साथ गांठ मारकर रखा जाता है। इस प्रकार 'अठ' के सहारे ड्यजिहोंर तथा इसके नीचे अटुहोर' रहता है। 'अठ' की लम्बाई इतनी रखी जाती है कि ड्यजिहोंर तथा 'अहोर' अंगना के वक्ष तक लटकते रहें। ' अटुॅहोर

' रेशमी धागों, धागों में पिरोई मोती की लड़ियों, तथा कला बत्तू आदि से बनाए जाते हैं। कुछ समय पहले तक 'अठ' के साथ ड्यजिहोंर के छेदों में एक ओर डोर गुजारी जाती थी। इस डोर में सोने की विभिन्न आकार की वस्तुएं पिरोई जाती थीं, इस समाहार को 'तालुरज़' कहा जाता था। 'तालुरज' में दो माला के दाने जैसे दाने (इस दाने को त्वखमुॅ फ्वोल' कहा जाता है) दो शहनाई के आकार से मिलते-जुलते लगभग डेढ़-डेढ़ सेंटीमीटर लंबे टुकड़े (टंगॅुल्वोट), दो गोलाकार सिक्के जैसी वस्तुएं (च्रंट) और चौदह, लगभग आधा सेंटीमीटर चौड़े व डेढ़ सेंटीमीटर लंबे, समकोण चतुर्भुज टुकड़े होते हैं। ड्यजिहोंर के ऊपरी छोर की ओर पहले 'त्वखमुँ फ्वोल' फिर ' टंगॅुल्वोट', फिर 'च्रंट' और बाद में सात-सात समकोण चतुर्भुज टुकड़े पिरोए जाते हैं। दोनों डोरों के चारों छोरों को आपस में बांधने के बाद

इस अंग्रेजी के उलटे 'यू' आकार (n) की डोर को महिला अपने शिरस्त्राण (तरुंगॅु) पर टिका देती है। ' तालॅुरज़' से महिला को दोहरा लाभ होता था- एक ड्यजिहोंर के पूरे भार का प्रभाव कानों के छेदों पर नहीं पड़ता था दूसरे चेहरे के दाएं-बाएं समानन्तर सोने को टुकड़ो के लटकने से उसकी मुख कांति में चार चांद लगते थे। आजकल ' तालॅुरज़' का रिवाज समाप्त हो गया है। अब सूती 'अठ' भी नहीं पहनी जाती, इसके स्थान पर सोने की चेन का रिवाज चल पड़ा है। आधुनिक कश्मीरी पण्डित महिलाएं ड्यजिहोंर को वक्ष तक लटकाने की बजाए इसे जूड़े में खोंस के रखना अधिक पसन्द करती हैं। ' अटुॅहोर ' भी अब खास अवसरों जैसे पति के जन्मदिन, विवाह या उत्सव आदि पर ही पहना जाने लगा है।

कश्मीर प्राचीन काल से शक्ति के सुप्रसिद्ध साधना स्थलों में से एक प्रमुख स्थल रहा है। यहां नारी शक्ति के प्रतीक के रूप में समादूत होती रही है। अनेक कश्मीरी विद्वान इस मत के हैं कि ' ड्यजिहोंर ' का षड्कोणाकार इस कारण है कि शक्ति या देवी मां छह(तृप्ति, अनादिबोध, स्वतंत्रता, अलुप्तशक्ति तथा अनन्तता) गुणों से युक्त है। इन छह गुणों से युक्त भवानी सदा महिला के हृदय में वास करे, इसे गृहस्थाश्रम एवं जीवन का भार उठाने की निरन्तर शक्ति प्रदानती रहे। वह हर क्षण अपने को उसी महाशक्ति का अंश समझती रहे। 'ड्यजिहोंर' को कानों से वक्ष तक लटकाने का विधान इसीलिए रखा गया था कि छह गुणों से युक्त षड्कोण स्वरूपा देवी मां क्षण-प्रतिक्षण महिला के ध्यान में रहे। वह भौतिक जगत के कर्तव्यों का सफलता से पालन करते हुए आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होती रहे। और जननी के रूप में अपनी सन्तति को निरन्तर सही संस्कार देती रहे।

कई लोगों की मान्यता है कि मंगलसूत्र की तरह ही ड्यजिहोंर भी सुहाग की निशानी है; पर, यह धारणा बिल्कुल गलत है। यदि ड्यजिहोंर सुहाग की निशानी होता तो इसे सप्तपदी से पहले कन्या को न पहनाया जाता तथा विधवाएं पति के स्वर्गवास होने पर इसे पहने ही न रखती। कश्मीरी पण्डित जाति चूंकि यंत्र एवं ज्योतिष विद्या से काफी प्रभावित रही है। इसी कारण ड्यजिहोंर पहनने की परिपाटी चली है। कौन नहीं जानता कि स्वर्ण एवं उपयुक्त रत्नों के पहनने से शरीर एव मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता। है और यह तथ्य अब वैज्ञानिकों द्वारा भी प्रमाणित किया जा चुका है। ड्यजिहोंर और ' तालॅुरज़ ' पहनने का यही सबसे पुष्ट कारण लगता है।

कश्मीरी पण्डित महिलाओं ने ड्यजिहोंर कब से अपनाया इस सम्बंध में सप्रमाण कुछ भी नहीं कहा जा सकता हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कश्मीर में ड्यजिहोंर आठवीं-नौवीं शताब्दी से पहले पहना जाता रहा होगा। इस बात का प्रमाण न्यूयार्क के मैट्रोपॉलिटन म्यूजियम में रखी एक 52 सेंटीमीटर लंबी बुद्ध मूर्ति है। यह मूर्ति किसी कश्मीरी शिल्पी द्वारा निर्मित है और इस मूर्ति के कानों में ड्यजिहोंर लटका दिखाया गया है। श्री प्रताप म्यूजियम, श्रीनगर (कश्मीर) में भी एक देवी-मूर्ति है जिसके कानों से भी ड्यजिहोंर लटका दिखाया गया है। कश्मीरी सभ्यता एवं संस्कृति में ड्यजिहोंर का क्या स्थान है इन बातों से इसका भी सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

पण्डित मोतीलाल साकी 'शीराज़ा' (कश्मीरी) अजायबाति कश्मीरी नम्बर में संकलित अपने एक लेख 'कॉशिरि ल्वयि मुरुॅच़ में लिखते हैं- 'ड्यजिहोंर बौद्ध धर्म की देन है.... कश्मीरी पण्डितों ने जिस प्रकार बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव ग्रहण किया उसी प्रकार इन्होंने ड्यजिहोंर भी इनसे ग्रहण किया। ड्यजिहौर का महिला से जुड़ना कोई अचरज की बात नहीं। हिन्दू विश्वास के अनुसार नारी शक्ति सरस्वती, लक्ष्मी तथा दुर्गा का रूप मानी जाती है। चातुर्य एवं बुद्ध का प्रतीक होने के कारण हिन्दुओं, विशेष कर कश्मीरी पण्डितों ने ड्यजिहोंर को महिलाओं से जोड़ दिया। इसी प्रकार कश्मीरी संस्कृति के एक और जिज्ञासु पण्डित मोतीलाल 'पुष्कर' 'चिनार के पत्ते' नामक पुस्तक में संकलित अपने लेख 'चिरतन कश्मीर में लिखते हैं कि ड्यजिहोंर पिशाचों से सम्बंध रखता है। इन दोनों महानुभावों की मान्यताओं पर गम्भीरता से खोज होनी चाहिए। वैसे यदि ड्यजिहोंर बौद्ध धर्म से सम्बंधित होता तो इस धर्म से सम्बंधित पुस्तकों एवं बौद्ध धर्म पर लिखने वाले इसका उल्लेख अवश्य करते। बुद्ध की अन्य अनेक मूर्तियों को किसी अन्य शिल्पी ने ड्यजिहोंर पहने नहीं दिखाया है। केवल कश्मीरी शिल्पी का बुद्ध को ड्यजिहोंर पहने दिखाना बुद्ध की मूर्ति का कश्मीरीकरण करना ही माना जा सकता है। रही बात ड्यजिहोंर की पिशाचों से सम्बंध की, इससे भी यही स्पष्ट होता है कि ड्यजिहोंर कश्मीरवासियों की अपनी बुद्धि की ही उपज है।

आजकल ड्यजिहोंरका तौल तथा आकार कम और छोटा हो गया है। इसी प्रकार 'अठ' की लम्बाई कम हुई है या यह बिल्कुल ही विलुप्त हो गई है। आजकल ऐसे इयजिहौर का रिवाज भी चल पड़ा है जिसकी 'अठ' की लम्बाई इतनी होती है कि ड्यजिहोंर कधों के ऊपर झूलता दिखाई देता है। कई महिलाएं अब अति लघु आकार के बिना 'अठ' के ड्यजिहोंर भी पहनने लगी है। यह कानों के अन्दर के भागों के साथ टॉप्स की तरह चिपका-सा रहता है।

ड्यजिहोंर के आकार प्रकार में परिवर्तन का कारण राह चलते या रेल आदि में सफर करते महिलाओं के आभूषण छीनने वालों की तादाद में वृद्धि, उग्रवाद, विस्थापन तथा थोड़ा-बहुत आधुनिक फैशन के अनुरूप ड्यजिहौर को ढालना है। आभूषण छीनने वालों आदि के भय के कारण कई महिलाओं ने ड्यजिहोंर पहनना ही छोड़ दिया है।

कन्या को ड्यजिहोंर पिता की ओर से ही मिलता रहा है। इस बात का स्पष्ट संकेत ब्याह शादी पर गाए जाने वाले लोकगीतों (वनुॅवुन) के अनेक छन्दों में मिलता है। उदाहरण के तौर पर निम्न छन्दों को देखिए :

माल्यसुन्न ड्यजिहोंर नीर्यनय रुतुये

सुय कूर्य पूशनय आदि-अन्त ताम

तथ तलुॅ शूबी म्वोंखतय फयोतॅुये

नारान हयोतॅुये ऑसीनय ।।

अर्थात हे पत्री, पिता का दिया ड्यजिहोंर तुम्हारे लिए सदा शुभ हो! यह आजीवन तुम्हारी सम्पत्ति के रूप में बना रहे। इस (सुन्दर) ड्यजिहौर के नीचे मोतियों की लड़ियों बाला फुंदना (याने अटॅहॉर) ही सजेगा। प्रिय तनया, श्रीमन्नारायण तुम्हें सदा सुखी रखें!

और

डाय मोहरुॅ ड्यजिहोंर ग्वोरुॅय ब्बुॅ ग्वन्दुरी

छावॅुहम तुॅ स्वन्दॅुरी करय हो हो।।

याने ढाई स्वर्ण मुद्राओं से / ढाई स्वर्ण मुद्राओं के तौल का ड्यजिहोंर तुम्हारे पिता ने तुम्हारे लिए बनवाया है। तुम इसे सदा पहने रखोगी, आ मैं (स्नेहाकुल) तुम्हारी पीठ थपथपाऊं।

संभवतः बिजबिहाड़ा (विजयेश्वर) नामक स्थान में रहने वाले सुनार ड्यजिहोंर बनाने में सिद्धहस्त एवं इस कला में प्रवीन रहे होंगे। इस बात का संकेत ' वनुॅवुन ' के निम्न टुकड़े में स्पष्ट रूप से मिलता है।

सामानुॅ क्वोंरुॅमय गोजेवारे

ड्यजिहोंर ग्वोरमय व्यजिब्रारे ।।

अर्थात् पुत्री तुम्हारी दाय का (अन्य ) सामान मैंने गोजिवारा नामक स्थान से मंगवाया पर, तुम्हारे ड्यजिहौर को बिजबिहाड़ा के सुनारों से ही बनवाया।

ड्यजिहोंर का तौल कितना हो यह निश्चित नहीं। प्रत्येक पिता अपनी हैसियत के अनुसार अलग-अलग वजन का ड्यजिहोंर अपनी बेटी को दाज में देने के लिए बनवाता रहा है। पहले उद्धृत वनुॅवुन के टुकड़े में ढाई स्वर्ण मुद्राओं से निर्मित ड्यजिहोंर का जिक्र है, पर निम्न टुकड़े में सात स्वर्ण मुद्राओं से बने ड्यजिहोंर की बात कही गई है :

सतन मोहरन ड्यजिहोंर कस क्युतये

ड्यकय चोय ह्योतये छुम।।

याने सात स्वर्ण मुद्राओं से बना ड्यजिहौर किसके लिए है? (बिटिया, तुम्हारे लिए ही तो है!) तुम्हें बहुत ही हित चिन्तक जीवन साथी मिला है।

अस्वीकरण :

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साभार:     पृथ्वीनाथ मधुप   एवं   जून 1993 कोशुर समाचार

 

 

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