मनुस्मृति


मनुस्मृति

राजदुलारी कौल पठानकोट   

 

मनुस्मृति को सभी प्रकार के आचार विचारों का एकत्र संकलन लिए होने के कारण भारतीय आचार संहिता का विश्वकोश माना जाता है। इसके बारह अनुक्रमों में भृगु माहराज ने एक विशेष विषय सूची प्रस्तुत की है जिसको मनुस्मृति नाम दिया गया है। यह ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखा गया है लेकिन इस ग्रंथ को सहज एवं प्रत्यक्ष रूप से समझने के हेतु पाठकों के लिए मैंने हिंदी अनुवाद करने का एक साहसी प्रयत्न किया है। आने वाले दिनों में मैं आपकी शुभकामनाओं से अवश्य इसमें सफल हो जाऊगी। अब तक मैं नारी के विभिन्न परिवेश पाठकों तक पहुंचाती रही। कोशुर समाचार के हिंदी विभाग के और श्री महाराज शाह जी के प्रोत्साहन से अब मैं मनुस्मृति के विचार आप तक पहुंचाने के प्रयत्न में रत रहने का बीड़ा उठाने लगी हूं। समय परिवर्तनशील है, परिवर्तनों के ही आधार पर आचरनीय नियमों में भी परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि पुरानी मान्यताएं बदले युग में असामयिक होने से अनुपयोगी हो जाती है, यही कारण है कि विभिन्न युगों में विभिन्न स्मृतियों की रचना के प्रमाण मिलते हैं जैसे विष्णु स्मृति, नारद स्मृति, असित स्मृति, देव स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति तथा मनु स्मृति। उपरोक्त स्मृतियों से मनोस्मृति को विशेष महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ब्रिटिश शासकों ने भी भारत पर अधिकार करने के पश्चात मनोस्मृति के आधार पर इंडियन पेनल कोर्ट की स्थापना की और बाबा साहब अबेडकर एवं उनकी कमेटी भारत का संविधान इसी पुस्तक को आधार बनाकर तैयार किया। हा. इसको बनाने में याज्ञवल्क्य स्मृति को भी दृष्टिगत किया गया। कुछ हद तक मनुस्मृति के अनुसार समस्त समाज को चार वर्णों में और मनुष्य के जीवन को चार आश्रमों में बांट दिया गया है जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से और व्यक्ति दृष्टिकोण से तर्कसंगत है। मनोस्मृति के अनुसार समस्त समाज को चार वर्णों और जीवन के चार भागों में बांटा है। यह महत्वपूर्ण शास्त्र ग्रंथ है जिसे पिछले दो हजार वर्षों से हिंदू समाज की सरचना में मुख्य स्थान दिया गया है। प्रथम अध्याय ये लेकर बारहवीं अध्याय तक भारतीय विचारधारा को आधार बनाकर निम्न विषयों की विवेचना की है।

प्रथम अनुभाग में प्रलय के बाद सृष्टि की उत्पत्ति को विभिन्न अवस्थाओं का मनोस्मति के आर्विभाव तथा उसकी परंपरा के प्रवर्तन का वर्णन किया गया है

द्वितीय अनुभाग में आर्यों के निवास प्रदेश, वहा के जलवायु तथा उनके उच्च चरित्र का, उनके द्वारा अपनाए गए सौलह सस्कारों का ज्ञान, उसकी परिभाषा एव महत्व का तथा विद्या अययन काल में गुरुकुल में जाने का, वहां आचार एवं विचार के नियमों का पालन करने का ऐतिहासिक र वर्णन किया गया है। तृतीय अनुभाग में गृहस्थ आश्रम में प्रवेश, आठ प्रकार के विवाहों का, कन्या की पात्रता का, श्राद्ध के लिए निमंत्रित किए जाने वाले ब्राह्मण की योग्यता का तथा श्राद्ध में परासे जाने बाले द्रव्यों की उपयुक्तता एवं अनुपयुक्तता का वर्णन मिलता है। चतुर्थ अनुभाग में गृहस्थ के हेतु अपनाई जाने योग्य आदर्श संहिता का निषिद्ध कर्मों से बचने का तथा चरित्र की रक्षा के प्रतिसदैव सतर्क रहने का वर्णन दिया गया है। गृहस्थ जीवन में सदैव दया दान को भी ध्यान में रखना जैसी बातों का वर्णन किया है। पंचम अनुभाग में मास सेवन के प्रमुख दोषों का वेदविहित हिंसा को अहिंसा मानने का, ज्ञान, तप आदि बारह शुद्धिकारक पदार्थों का ईमानदारी से धन यापन करने को ही सबसे बड़ी शुद्धि मानने का देह के बारह मलों का तथा स्त्री पुरुष के सबधों के आदर्श रूप का वर्णन किया गया है। षष्ठ अनुभाग में आचरणीय नियमों, शराब मासादि पदार्थों का सेवन न करने का, कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहना, प्राणी मात्र के हेतु मैत्री भाव रखना, सबको अभय दान देना, निंदा स्तुति से बचना, आलस्य का परित्याग, संध्या वदना आदि में सतर्क रहता, मोक्ष प्राप्ती के प्रति सचेत रहना तथा सन्यास आश्रम की महता का वर्णन किया गया है। सप्तम अनुभाग में राजा के लिए आचरणीय धर्मों का, दड की महत्ता का, मंत्रियों से परामर्श करने की रीति का, दूतों की ईमानदारी परख का, दुर्ग रचना पद्धति का, राज्य की उपयुक्त व्यवस्था की विधि, कर निर्धारण की उचित पद्धति का, प्रजा की स्मृद्धि के प्रति सतर्कता का, राजनीति में साम, दाम, भेद तथा दंड की व्यवहारिकता का वर्णन मिलता है।

अष्टम अनुभाग राजा को प्रजा के विवादों को निपटाने का उच्चतम ढंग अपनाने का, अपराधियों को दंड देने का, धर्म विरुद्ध एवं मिथ्याचार करने वालों को अनुशासित करने का, व्यक्ति के स्तर और अपराध की मात्रा को विचार में रखकर दंड देने का तथा सीमा और राजकोष आदि की सुरक्षा के प्रति सावधान रहने का परामर्श निहित है।

नवम अनुभाग में स्त्रियों और पुरुषों के एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों एवं अधिकारों का आपतकाल में स्त्रियों द्वारा नियोग द्वारा संतान उत्पन्न करने के अधिकार का पिता की संपत्ति के उत्तराधिकारी का पुत्र के अभाव में उत्तराधिकारी दूढने का तथा दूसरों की संपत्ति को हड़पने वाले अपराधियों को दंडित करने का वर्णन किया गया है।

दशम अनुभाग में मनुष्य जाति को चार बर्णों में बांटने का और हर वर्ण के कर्तव्य का तथा एक वर्ण द्वारा दूसरे वर्ण की स्त्री से संतान (वर्ण संकर) पैदा करने का और उनकी सामाजिक स्थिति का वर्णन किया गया है। एकादश अनुभाग में जाने अनजाने निहित कर्मों का त्याग तथा निषिद्ध कर्मों का अनुष्ठान करने पर प्रायावित का गोहत्या एव ब्रह्महत्या एवं महापलकों के करने पर उनको दंडित के प्रायश्चितों का और बेद अभ्यास तप एव ज्ञान की महत्ता का वर्णन किया गया है।

द्वादश अनुभाग में शरीरोत्पत्ति का, स्वर्ग लाभ और नरक प्राप्ति कराने वाले कर्मों का अभ्युदय, तप और विद्या के फल का ब्रह्मवेता की पहचान का तथा परमपद की प्राप्ति का मार्ग पाने के उपायों का वर्णन किया गया है। यह ग्रंथ सामाजिक एवं लौकिक व्यवस्था को सुनिश्चित रूप देने का अथवा व्यक्ति के लिए उन्नति और पारलौकिक कल्याण का पथ प्रशस्त करने का एक अतुलनीय साधन ग्रंथ माना जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कहा जाता है जो मनुस्मृति ग्रंथ ग्रंथ में है वही कुछ श्रीमद्भगवत गीता आदि में है जो इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है ।

"यदि हास्ति तदनयत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्" अर्थात जो इस स्मृति ग्रंथ में है, वही कुछ अन्य स्मृति ग्रथों में है और जो इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है।

अस्वीकरण :

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साभार:-  राजदुलारी कौल पठानकोट   एंव     मार्च  2019, कॉशुर समाचार

 

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