हमारे संस्कार - यज्ञोपवीत


हमारे संस्कार - यज्ञोपवीत

( गतांक से आगे....)

पं ओंकार नाथ शास्त्री

 

मेखलाः धर्म (कुशा) के घास से बनी हुई तीन लड़ी वाली रस्सी को मेखला कहते हैं। यह रस्सी गुरु ब्रह्मचर्य के कमर में बाधता है।

कौपीनः कौपीन का अर्थ है-लगोट । लगोट का उद्देश्य ब्रह्मचारी को वीर्य-रक्षा में सहायता करना है। कौपीन धारण करने से जहा मनुष्य चुस्त रहता है वहीं उसका ध्यान विषय वासना की तरफ भी नहीं जाता। कौपीन धारण करना इस संस्कार का अंग बना दिया गया है और कौपीन धारण करते समय यह मंत्र पढा जाता है।

'युवा सुवासाः परिवीत आगात्'

आचार्य ब्रह्मचारी को उपदेश देता है.

1. सत्यं वद- हमेशा सत्य बोलना चाहिए। क्योंकि 'सत्यमेव जयते'

2. धर्मं चर-धर्म का आचरण करना चाहिए। धारणात् धर्ममित्याहुः । जिन नियमों से समाज टिका 'हुआ है वह 'धर्म' है।

3. स्वाध्यायान्मा प्रमद-स्वाध्याय के दो अर्थ हैं एक उत्तम ग्रंथों का अध्ययन जिससे भौतिक, मानसिक तथा आत्मिक उन्नति हो। दूसरा 'स्व' अर्थात अपने आपका अध्ययन

4. आचार्याय प्रियं धनं आहृत्य प्रजा तंतु मा व्यवच्छेत्सी-अर्थात आचार्य को जो धन प्रिय है वह लाकर उसे देना। अर्थात आचार्य की शिष्यों की जो प्रजा है उसका तंतु-सिलसिला तोड़ना नहीं - आचार्य का प्रिय धन रुपया नहीं, आचार्य का धन उसके शिष्य हैं। इसी प्रकार तेरे अन्य कुटुम्बी, तेरे पुत्र-पौत्र भी आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए आते रहे।

5 सत्यान्न प्रमदितव्यम् - धार्मन्न प्रमदितव्यम्- अर्थात सत्य और धर्म के लिए प्रमाद मत करना। आध्यात्मिक (सत्य और धर्म) ।

6. कुशलान्न प्रमदितव्यम् - भूत्यै न प्रमदितव्यम् आधिभौतिक (कुशल और भूति) । भौतिक तथा सांसारिक- उन्नति की तरफ ध्यान देना। मनुष्य का विकास दोनों आध्यात्मिक तथा अधिभौतिक एक जैसा होना चाहिए।

7. स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् - स्वाध्याय तथा प्रवचन से कभी भी दूर नहीं रहना चाहिए स्वाध्याय से जो कुछ आप प्राप्त करोगे उसका प्रवचन अवश्य करना चाहिए। इससे ज्ञान बढ़ेगा। जब हम ज्ञान की बात दूसरे को समझाते हैं तब पहले उस का तार-तार अपने को समझना पड़ता है ।

8. देव पितृ कार्याभ्याम् न प्रमदितव्यम्- अपने से जो ज्ञान में बड़े हैं 'देव' कहलाते हैं, जो आयु में बड़े हैं वे 'पितर' कहलाते हैं। ज्ञान में जो आपसे बड़े हैं उनके कहे को मत टालो, इसी प्रकार आयु में बड़े हैं उनकी बात नहीं टालनी चाहिए। ज्ञान तथा आय में जो भी बड़ा है उसकी बात ध्यान से सुननी चाहिए।

9. मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव- अर्थात् माता, पिता, आचार्य तथा अतिथि को देवता मानकर सत्कार करना चाहिए। यदि आप इन सबको देवता समान मानोगे तो तुम्हारी संतान भी तुम्हें देवता समान ही मानेगी। गृहस्थ धर्म का यह सिलसिला वैदिक-संस्कृति का अभिन्न अंग हैं।

10 यानि अनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितानि नो इतराणि- अर्थात जो मानने योग्य बात हो उसी को मानना, या जो आचरण अनुकरणीय हो उसकी का अनुकरण करना ।

11. श्रद्धया देयम् अश्रद्धया देयम्- अर्थात् जिस काम में श्रद्धा है उसमें यथाशक्ति दान देना, श्रद्धा ना भी हो तो भी दान देना क्योंकि हो सकता है जिस पर आप को श्रद्धा न हो वह भी महान हो । इस कारण अश्रद्धा से भी देना चाहिए।

जब ब्रह्मचार्य गुरुकुल से घर वापिस जाता था तो गुरु इसी प्रकार का उपदेश उसको देता था।

यज्ञोपवीत की बनावट

विद्यार्थी जब गुरुकुल में जाता था वहा पर उसके दैनिक कार्यक्रम में सूत कातना भी था, सूत कातते समय ब्रह्मचारी ॐ शब्द का उच्चारण करता था ॐ ब्रह्म को भी कहते हैं। इसलिए यज्ञोपवीत को ब्रह्मसूत्र' भी कहते हैं। यज्ञोपवीत की लंबाई 96 चप्पे होती है अर्थात् एक मनुष्य की चार अगुलियों की चौड़ाई 96 गुणी होती है। यज्ञोपवीत के तीन सूत्र, नौतार और एक ब्रह्मगाठ होता है।

तैतरीय संहिता के अनुसार- तीन सूत्र तीन ऋणों ऋषि ऋण, देव ऋण तथा पितृ ऋण, तीन गुणों सत्त्व, रज तथा तमः तीनों वेदों ऋक्, यजु तथा साम तीनों लोकों भः भुवः स्वः तीनों गुरुओं माता, पिता तथा आचार्य का बोध कराते हैं।

सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र में लिखा है- ब्रह्मा जी ने तीन वेदों से तीन लड़ों का सूत्र बनाया, विष्णु ने ज्ञान, कर्म तथा उपासना से तीनो लडों को तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री की उपासना करके उसमें ब्रह्म गांठ लगा दी। इस प्रकार यज्ञोपवीत तैयार हुआ।

यज्ञोपवीत के नौ सूत्रों में नौ देवता वास करते हैं।

1. ओंकार = ब्रह्म 2 अग्नि = तेज, 3 अन्नत = धैर्य, 4 चन्द्र = शीतल प्रकाश, 5 पितृ गण = स्नेह, 6 प्रजापति = प्रजापाल, 7 वायु स्वच्ता, 8 = सूर्य = प्रताप, 9 सब देवता = सम दर्शन

अर्थात: यज्ञोपवीत धारण करने वाले को नौ गुण: ब्रह्म (प्रणव, सत्य तत्व) परायणता, तेजस्विता, धैर्य, नम्रता, दया, परोपकार, स्वच्छता तथा शक्ति संपन्नता को अपनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।

गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं

1: तत् = सफलता, 2 स= पराक्रम, 3. वि = पालन, 4 तुर् = कल्याण, 5 व योग, 6 रे = प्रेम, 7 णि= धन, 8 यम् = तेज, 9 भर् = रक्षा, 10. गो = बुद्धि, 11. दे= दमन, 12 व= निष्ठा, 13 स्य = = धारण, 14 धी = प्राण, 15 म= संयम, 16 हि तप 17. घि दूरदर्शिता, 18 यो जागृति, 19. यो = = = उत्पादन, 20 न= सरसता, 21. प्र= आदर्श, 22 चो साहस, 23. द विवेक, 24 यात्सेवा

गायत्री उपरोक्त 24 शक्तियों को साधक में जागृत करती है। यह ऋण इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनके जागरण के साथ-साथ अनेक प्रकार की सिद्धिया एवं सफलताएं प्राप्त होती हैं तथा जीवन संपन्न हो जाता है। =

गायत्री मंत्र 24 अक्षर का है और वेद 4 हैं। इस प्रकार चारों वेदों के गायत्री मंत्रों के गुणनफल 24 x 4 96 आते हैं।

सामवेदी = छान्दोग्य सूत्र के अनुसार

तिथि: = 15 + वार 7 नक्षत्र = 27 + तत्व 25 + वेद 4 + गुण 3 + काल 3 + मास = 12 = 96

पुराणों में लिखा है कि सुर-लोक में देवताओं के पास कामधेनु गौ है, वह अमृतोपम दूध देती है। जिसे पीकर देवता लोग सदा संतुष्ट, प्रसन्न तथा सुसंपन्न रहते थे। इसमे एक विशेषता यह है जो भी कोई अपनी मनोकामना लेकर इसके पास जाता है। उसकी इच्छा पूर्ण होती है। गायत्री भी एक कामधेनु की तरह है जो कोई भी गायत्री माता की स्तुति करता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यज्ञोपवीत संस्कार के समय बच्चे को हम विद्यारभ संस्कार भी करते हैं परंतु यह संस्कारों की श्रृंखला में नहीं है।

गायत्री महिमा

गायत्री के विषय में वेद शास्त्र, पुराण सभी एकमत होकर इसका गुणगान करते हैं।

अथर्ववेद में गायत्री की स्तुति वेद भगवान् ने इस प्रकार की है:

स्तुता मया वरदा वेदमाता

प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्

आयुः प्राणं प्रजा पशुं

प्रदान करें कीर्ति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् ।।

अर्थात्ः मेरे द्वारा स्तुति की गई, द्विजों को पवित्र करने वाली वेद माता गायत्री आयु, प्राण, शक्ति, पशु, कीर्ति, धन, ब्रह्मतेज, उन्हें 1 भगवान व्यास ने कहा है:

यथा मधु च पुण्येभ्यो घृतं दुग्धाद्रसात्पयः

एवं हि सर्ववेदाना गायत्री सारमुच्यते ।।

अर्थात्ः जिस प्रकार पुण्यों का सारभूत मधु दूध का घृत, रसों का सारभूत दूध है। उसी प्रकार गायत्री मंत्र समस्त वेदों का सार है। विश्वमित्र ने कहा है.

तदित्यृचः समो नास्ति मंत्रो वेदाचतुष्टये ।

सर्वे वेदाश्व यज्ञाश्च दानानि च तपांसि च

समानि कलया प्राहुर्मुनयो नतदित्यृचः ।।

अर्थात्ः गायत्री मंत्र के समान मंत्र चारों वेदों में नहीं है संपूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप गायत्री मंत्र की एक कला के समान भी नहीं है ऐसा मुनि लोग कहते हैं।

'उपनिषदों में लिखा है:

"गायत्री चन्दसा मातेति"

अर्थात्ः गायत्री वेदों की माता अर्थात् आदि कारण है।

शास्त्रों में लिखा है..

गायत्री वेद जननी गायत्री चाप नाशनी

गायत्र्यास्तु परन्नास्ति दिविचेह च पावनम् ।

अर्थात् गायत्री वेदों की जननी है, गायत्री पापों को नाश करने वाली है, गायत्री से अन्य कोई पवित्र करने वाला मंत्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है। मनु स्मृति में लिखा है:

एकाक्षर पर ब्रह्म प्राणायामाः परन्तपाः

सावित्र्यास्तु परन्नास्ति पावनं परमं स्मृतम् ।।

अर्थात्ः एकाक्षर 'ओऽम् पर ब्रह्म है, प्राणायाम परम तप है और गायत्री मंत्र से बढ़ कर पवित्र करने वाला कोई मंत्र नहीं है

शंख स्मृति में लिखा है

गायत्र्या परमं नास्ति दिवि चेहन पावनम्

हस्तत्राण प्रदादेवी पततां नरकार्णवे

अर्थात्ः नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली, गायत्री के समान पवित्र करने वाली वस्तु या मंत्र पृथ्वी पर तथा स्वर्ग में भी नहीं है।

गायत्री तंत्र

मननात् पापस्त्राति मननात् स्वर्गं मश्नुते ।

मननात् मोक्षमाप्नोति चर्तृवर्गे मयो भवेत् ।।

अर्थात्ः गायत्री का मनन करने से पाप छूटते हैं स्वर्ग प्राप्त होता है और मुक्ति मिलती है तथा चर्तुवर्ग (धर्म, अर्थ, कान, मोक्ष) सिद्ध होते हैं।

( अगले अंक में जारी )

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साभार:- पं. ओंकारनाथ शास्त्री एंव कौशुर समाचार, जनवरी, 2009

 

 

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