चिंतन - कश्मीरी पंडित और काल सर्पयोग
डॉ बैकुण्ठ नाथ शर्ग़ा
कश्मीरी पंडित, अपने को कश्यप ऋषि की संतान मानते हैं जिनका कश्यप सागर जिसे आज हम कैस्पियन सागर के नाम से जानते हैं के निकट आश्रम था जहां वे अपने अनुयायियों को शिक्षा-दीक्षा देते थे। एक दिन वे अपने भक्तों के साथ विश्व भ्रमण पर निकले और अनेक क्षेत्र की यात्रा करते हुए अंत में कश्मीर पहुंचे जहां उस समय सतीसर के चारों ओर की पर्वत श्रृंखलाओं पर नाग जाति का आधिपत्य था। जिनका राजा नील नाग था। सतीसर नाम की झील में जलोद्भव नाम का एक राक्षस रहता था जो ऋषियों-मुनियों की तपस्या तथा पूजा-अर्चना में विघ्न डालता था, और इस पूरे क्षेत्र में अपना आतंक मचाये हुए था। उसका वध करने के लिए कश्यप ऋषि ने भगवान विष्णु की आराधना की जिन्होंने आने बाण से बारामुला की दिशा में पर्वत श्रृंखला को भेदकर सतीसर झील का पानी निकाल कर उस दैत्य का संहार किया, इस प्रकार उस सपूर्ण भू-भाग को उसके आतंक से मुक्त किया। सतीसर झील का पानी निकल जाने के पश्चात जो समतल भूमि प्रकट हुई उसका नाम कश्यप मीरू या कश्मीर पड़ा।
प्रिय बंधुओ यहां पर विशेष रूप से यह बात ध्यान देने योग्य है कि कश्यप ऋषि और उनके भक्त कश्मीर के मूल निवासी नहीं थे वे कश्यप सागर के क्षेत्र से भ्रमण करते हुए वहां पहुंचे थे। रामायण काल में अयोध्या नरेश दशरथ के राज्य की सीमा का विस्तार कोहेकाफ पर्वत श्रृंखला तक हो चुका था। जिस क्षेत्र को आज उजबेकिस्तान कहा जाता है। उनकी तीसरी पत्नी केकैथी जो बहुत अधिक सुंदर महिला थीं, इसी क्षेत्र की निवासी थीं। यह इस बात का भी संकेत देता है कि उस काल खंड में यहां आर्य जाति का वर्चस्व था जिनको कश्मीरी पंडित अपना पूर्वज मानते हैं। यहां पर यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि महाभारत के युद्ध में जिसका काल खंड 3128 ईसा से पूर्व आंका गया है कश्मीर की इस प्राचीनतम नाग जाति का वर्चस्व दिल्ली तक था । पांचों पांडवों की मृत्यु के उपरांत अभिमन्यु पुत्र राजा परिक्षित का जन्म हुआ था जो हस्तिनापुर का शासक बना। उसने सिंहासन पर बैठते समय पाप से अभिशप्त मुकुट धारण किया जिसके कारण उसकी बुद्धि एकदम भ्रष्ट हो गई। उसने अपने अहंकार में शिकार करते समय, अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी न मिलने के कारण ऋषि समीप के गले में एक मरा सर्प डाल दिया जिससे क्रोधित होकर ऋषि समीप ने उसको सात दिन के भीतर तक्षक द्वारा काटने से मृत्यु को प्राप्त होने का शाप दिया। इस घटना को टालने के लिए राजा के पुत्र जनमेजय ने संपूर्ण नाग जाति के विनाश के लिए दिल्ली के निकट एक भयंकर युद्ध लड़ा और नाग जाति को मध्य भारत तक खदेड़ा। इस नाग जाति ने जिन स्थानों पर जाकर शरण ली वे अब नागपुर और छोटा नागपुर कहलाते हैं।
कश्मीरी पंडित और नागों के मध्य वैमनस्य उत्पन्न होने का यही मूल आधार है जिसके प्रकोप को कश्मीरी पंडित आज तक झेल रहे हैं और उनकी जनसंख्या में समाज के अन्य वर्गों की तुलना में अपेक्षाकृत वृद्धि संभव नहीं हो पा रही है। वास्तव में कश्मीर की संस्कृति का आदिकाल से नागों से अटूट संबंध रहा है। अतः चीजों को भलिभांति समझने और उनका सही मूल्यांकन करने के लिए हमें विषय वस्तु का गहराई के साथ अध्ययन करना परम आवश्यक है ताकि हम किसी उचित निष्कर्ष पर पहुंच सकें।
हमारे ऋषि मुनि वास्तव में मौलिक दार्शनिक और वैज्ञानिक थे जिन्होंने विभिन्न विषयों पर जीवन पर्यंत अनुसंधान करके अपने प्रयोगों द्वारा प्राप्त ज्ञान को शोध प्रबंध के रूप में लिपिबद्ध किया जिनको जनमानस में ग्राहय बनाने के लिए धर्म ग्रंथ की संज्ञा दी गई। सनातन धर्म का न कोई आदि है और न कोई अंत है। वह निरंतर है। हमारे वेदों और पुराणों में नागों को काफी महिमामंडित किया गया है। ऐसी मान्यता है कि नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप व उनकी पत्नी कद्दू के समागम से हुई है। भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या पर विराजमान हैं वहीं भोलेनाथ शंकर, अपनी जटा में नाग को धारण किए हुए हैं। सूर्य के रथ में बारहों मास बारह नाग बदल-बदल कर रथ का वहन करते हैं।
कश्मीर के प्राचीनतम ग्रंथ नीलमत पुराण के अनुसार कश्मीर की सपूर्ण भूमि नील नाग की देन है। इस तथ्य की पुष्टि कश्मीर का अनंतनाग नगर करता है। हमारे धर्मशास्त्रों में इसी कारण नागों की पूजा का प्रावधान है और नाग पंचमी को उनको दूध पिलाया जाता है। ऐसा विश्वास है कि सारी पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है। इसी नाते वीरवर लक्ष्मण ने लखनऊ नगर की स्थापना के समय शेषनाग की पूजा-अर्चना की थी। हमारे धर्मशास्त्रों में इस बात का भी स्पष्ट उल्लेख है कि जब भी कोई व्यक्ति बहुत अधिक काम पिपासा का शिकार हो जाता है तो उसकी समस्त इंद्रिया वासना के वशीभूत हो जाती हैं और उनमें अच्छे और बुरे कर्म के अंतर को समझने की क्षमता का नाश हो जाता है और वह व्यक्ति आपना विवेक तथा मानसिक संतुलन खो बैठता है। उसकी जीवात्मा, अंतोगत्वा सर्पयोनि को प्राप्त होती है। सत्ताईस नक्षत्रों में रोहिणी व मार्गशीर्ष को सर्प योनि माना गया है।
यहां पर यह भी बताना अनुचित न होगा कि मनुष्य के शरीर में बसी कुंडलिनी शक्ति भी सर्प का ही प्रतिरूप हैं। जिसको योगी जाग्रत करके, आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त करते हैं। हर व्यक्ति का भाग्य उसके इस मायावी संसार में जन्म लेने के साथ ही निर्धारित हो जाता है जिसका आंकलन उसकी जन्मकुंडली में विभिन्न ग्रहों की स्थिति से किया जाता है। वास्तव में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु वे प्रमुख नव ग्रह हैं जो किसी व्यक्ति के स्वभाव, आचरण और चरित्र को परिभाषित करते हैं तथा उसके गुणों और अवगुणों की सविस्तार व्याख्या करते हैं कामुकता और क्रोध दो ऐसे अवगुण हैं जो कभी-कभी व्यक्ति को पूर्ण रूप से मटियामेट कर देते हैं। शास्त्रों के अनुसार सभी नवग्रह भगवान विष्णु के विविध अवतारों के प्रतीक हैं। शास्त्रों में सूर्य को रामावतार, चंद्रमा को कृष्णावतार, मंगल को नरसिंहावतार बुद्ध को बौद्धावतार गुरू को वामनवातार शुक्र को परशुरामावतार शनि को कूर्मावतार, राहु को वराहावतार और केतु को मत्स्यावतार कहा गया है।
ज्योतिषाचार्यों के मतानुसार व्यक्ति की कुंडली में राहु-केतु की टेढी दृष्टि से ही काल सर्प योग बनता है। जो व्यक्ति को आजीवन परेशान करता रहता है और उसको सुख और मन की शांति से वंचित कर देता है। वह व्यक्ति एक चकरधिन्नी के समान चक्कर काटता रहता है और किसी भी स्थान पर, अधिक समय तक टिक नहीं पाता है। यह कालसर्प योग 12 प्रकार के होते हैं। ब्रह्माड में 9 ग्रह हैं। जब सारे ग्रह कुंडली में एक ओर एकत्रित हो जाते हैं तब काल सर्पयोग बनता है जिसको पैतृक दोष माना जाता है क्योंकि इसके रहते उसक व्यक्ति का वंश चल नहीं पाता है। कुंडली में ग्रहों की स्थिति के अनुसार अलग-अलग काल सर्प योग बनते हैं जैसे अनन्त काल सर्प, कुलिम काल सर्प, वासुकी काल सर्प, शंखपाल काल सर्प पातक काल सर्प विषाक्त काल सर्प तथा शेषनाग काल सर्प काल सर्प योग की काट के लिए कुछ लोग बाबा भोलेनाथ की आराधना करते हैं पर इसकी वास्तविक शांति के लिए पितरों का उचित अनुष्ठान आवश्यक है। हमारे प्राचीन मनीषियों ने इस संबंध में स्पष्ट किया है कि धन-वैभव, मान-सम्मान और ज्ञान आदि की प्राप्ति देवों और ऋषियों की अनुकंपा से होती है. जबकि आरोग्य लाभ, पुष्टि और वंश वृद्धि के लिए पितरों का अनुग्रह आवश्यक है। देवों और ऋषियों से संबंधित जप, तप और यज्ञ से व्यक्ति को वे वस्तुएं प्राप्त हो सकती हैं जिन्हें प्रदान करने का उन्हें अधिकार है परंतु जिन व्यक्तियों पर पितृकोप होता है उनके लिए पितृकोप को शांत करने वाले अनुष्ठान आवश्यक हैं। काल सर्प योग के प्रकोप को कम करने के लिए अधिकतर लोग-बाग, अनुष्ठान के लिए नासिक या उज्जैन जाते हैं ताकि उनका वश चलता रहे। वहीं कुछ विद्वान शनि देव की उपासना से काल सर्प योग के प्रभाव को कम करने की बात कहते हैं। पुराणों के अनुसार शनि देव कश्यप ऋषि के पुत्र सूर्य देव की संतान हैं। अतः शैनचरी अमावस्या को विशेष अनुष्ठान करने से पितृ कौप और काल सर्प योग से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ और पंडित जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने जिनकी उत्तराधिकारी आजकल श्रीमती सोनिया गांधी हैं। जो मूल रूप से एक इतालवी महिला हैं। यदि पंडित नेहरू को पुत्र रत्न प्राप्त होता तो क्या देश और कश्मीरी पंडितों की दशा कुछ और होती यह एक बहस का मुद्दा हो सकता है।
आजकल की भागदौड़ की जीवन शैली में व्यक्ति के पास उचित रूप से धार्मिक अनुष्ठान करने का समय नहीं रह गया है जिसका परिणाम किसी न किसी रूप में उसको कष्ट प्रदान करता है। मुख पुच्छ से वंचित अंग के सर्प को राहु कहते हैं। इसी को काल मृत्यु या गति कहा गया है। जब राहु-केतु की कैद में सातों ग्रह या छः ग्रह हो तो काल सर्प योग की सृष्टि होती है। पूर्व जन्म के शापों के कारण पुरुषार्थ का उचित फल प्राप्त नहीं होता है। पितरों का उचित अनुष्ठान करने से वे बंधन से मुक्त होकर आर्शीवाद प्रदान करते हैं और अपनी संतान को वंश वृद्धि का वरदान देते हैं जिससे वंशावली की निरंतरता बनी रहती है।
इसी संदर्भ में मैं जब कभी अपने रिक्त पलों में एकांत में बैठकर विस्थापित कश्मीरी पंडित परिवारों की T "दशा और व्यापक समाज द्वारा की जा रही उनकी घोर उपेक्षा के बारे में चिंतन-मनन करता हूं जो अपना सब कुछ गंवा कर विगत 18 वर्षों से नरक के समान जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो अनायास ही मन में इस शंका को ने बल मिलता है कि कहीं यह समुदाय काल सर्प योग से अग्रसित तो नहीं है जिसका निदान कहीं ओर है। कई इसी कारण अब तक अर्श से फर्श पर आ चुके हैं।
T कश्मीरी पंडित समुदाय की जनसंख्या में निरंतर ने गिरावट हो रही है जिससे उसके लुप्त होने की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं। कश्मीरी पंडितों द्वारा उत्तर भारत के त्र विभिन्न प्रमुख नगरों में बसाए गए मोहल्ले अब पूर्ण रूप से उजड़ चुके हैं। लखनऊ का प्रसिद्ध कश्मीरी मोहल्ला जो कभी कश्मीरी पंडितों की गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र हुआ करता था अब इतिहास के पृष्ठों में सिमट कर रह गया है। क्या यह सब कुछ काल सर्प योग के प्रभाव से तो नहीं है कि कश्मीरी पंडित अब विचलित होकर इधर-उधर भटकने को लाचार हैं, और उसके कई सदस्य अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। वहीं कश्मीरी पंडितों के संगठन और समाज आजकल भवन और हवन पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। जबकि वास्तविक समस्या का समाधान कहीं और है जो कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना वाली कहावत को चरितार्थ करता है। जब तक अपने लक्ष्य का सही ज्ञान न हो सफलता की अपेक्षा करना मूर्खता है। क्या कोई ईश्वर के विधान के विपरीत कार्य करने का साहस कर सकता है क्या उसकी मर्जी के बिना कभी कोई पत्ता भी हिला है जितनी जल्दी हम T इस सत्य को समझ लें हमारे भविष्य के लिए अच्छा होगा।
अभी से पाव के काटे निकालते क्या हो।
अभी तो पहला कदम मंजिलें हयात में हैं।
अस्वीकरण :
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साभार:- डॉ बैकुण्ठ नाथ शर्ग़ा एंव कौशुर समाचार, जनवरी, 2009