1996 11 आपकी बात  - फरियाद यज्ञोपवीत की


1996 11 आपकी बात  - फरियाद यज्ञोपवीत की

Dr. Baljitnath Pandit  

मुझ बेलवान की फरियाद कोई सुने- मैं हूं यज्ञोपवीत भारतीय धर्म के मूल आधार हैं वेद। वैदिक धर्म का एक प्रधान केन्द्र मैं ही हूं। मुझे यज्ञोपवीत कहते हैं। कोई भी देव कार्य करना हो तो मुझे बाएं कंधे पर, 'सव्येन' कहते हुए. डाला जाता है और मैं दाईं ओर तिरछा लटका रहता हूं। पितृ कार्य करते हुए मुझे दाएं कंधे पर डाल कर बाईं ओर लटका कर धारण किया जाता है। मेरी उस स्थिति को 'अपसव्येन' कहा जाता है। 'अपसव्यं तु दक्षिणम्'। ऋषि कार्य करते समय मैं सीधा गले से लटका रहता हूं। तब मेरे लिए 'कण्ठोपवीती' शब्द का उच्चारण किया जाता है। मेरे सहयोग के बिना इन तीनों धार्मिक कार्यों को विधिपूर्वक निभाया ही नहीं जा सकता है। सत्य युग में ब्रह्मचारिणी कन्याएं भी मेरा उपयोग करके वेदाध्ययन, यज्ञ, होम आदि किया करती थीं। हारीत स्मृति में स्पष्ट कहा गया है :

"दुरा कल्पे कुमारीव्यं माँजीवन्धनमिष्यते।

अध्यापनं च वेदानां सावित्री वाचनं तथा ॥ "

समय बीतने पर व्यवस्था ढीली पड़ती गई और मेरा क्षेत्र केवल पुरुषों तक ही सीमित रह गया। अतः बाद में गार्गी वाचकवी जैसी महिलाएं या गंगम्भृणी जैसी ब्रह्मचारिणी कन्याएं देखने में नहीं आने लगीं, न ही मैत्रेयी जैसी वेदवित् महिलाएं ही कहीं रह गईं। अस्तु यह तो समय का फेर रहा।

भारत से पश्चिम की ओर पारसीक देश में प्राचीन आर्य लोग मुझे यज्ञोपवीत के रूप में गले में नहीं पहना करते थे। परंतु मेरे एक और स्वरूप की सुव्यवस्था वहां भी विद्यमान रही। उस स्वरूप को 'मेखला' कहते हैं। भारत वर्ष में गले में यज्ञोपवीत को पहनाते समय बालक की कमर में भी एक तिगुणे सूत को बांधा जाता था। उसे 'मेखला' कहा करते थे। अब भी यज्ञोपवीत संस्कार को मेखला संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार का यह नाम विशेष करके कश्मीर में अभी तक लोकप्रिय बना रहा। फारस देश के आर्य, जिन्हें आजकल पारसी कहा जाता है। अभी तक इस मेखला को पहना करते हैं। उनकी भाषा में इसका नाम 'कुस्ती' है। अस्तु, यह रहीं मेरे इतिहास की वह अति प्राचीन बातें जो अभी तक चलती आ रही हैं। अब जरा देरी वर्तमान स्थिति की ओर ध्यान दीजिए और यह देखिए कि लोगों ने मुझे कहां से कहां पहुंचा दिया है।

इस विषय में मेरे शरीर की स्थिति में लाए गए परिवर्तनों की ओर जरा ध्यान दीजिए-

वैदिक युग से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक मेरे शरीर का निर्माण इस तरह से किया जाता रहा-मेरा शरीर निर्माण हाथ से कते हुए सूत के धागे से किया जाता था। उस सूत को अविवाहित कन्याएं या सच्चरित्र महिलाएं काता करती थीं। बीसवीं शताब्दी से लोगों ने मशीन से कते हुए सूत का प्रयोग करना आरंभ कर दिया। अस्तु। उससे मेरे शरीर का महत्व विशेषतया घट नहीं गया। मैंने भी युग की गति से समझौता कर लिया मेरे शरीर का निर्माण इस तरह से होता रहा-

हथेली के चौड़े भाग के चारों ओर सूत को 96+3-99 बार घुमाकर लपेटा जाता था। फिर उसी सूत के साथ उतनी ही लंबाई वाला सूत उसी तरह दो बार हथेली पर लपेटा जाता था कि सारा सूत 99 x 3 हथेली परिमाण का हो और तीन गुणा किया गया हो, बीच में कहीं छेद न हो। उस तिगुणे सूत की परीक्षा करने पर देखने में यही आता था कि उसका एक किनारा एक ओर है और दूसरा किनारा दूसरी ओर है; बीच में न तो कहीं कोई किनारा ही होता था और न ही कोई गांठ ही। यह तो मेरे शरीर के निर्माण की प्रक्रिया का प्रथम सोपान है। दूसरे सोपान पर इस तिगुणे सूत को या तो चर्खे के द्वारा, या तकली के द्वारा बाएं हाथ के घुमाव से बटते-बटते पक्का कर दिया जाता था। इस क्रिया को कश्मीरी भाषा में 'अबखुन' कहा करते थे। तब यह पक्का सूत लगभग 96 हथेली परिमाण का रह जाता था। तदनंतर इसे फिर से तिगुणा करके दाएं हाथ के घुमाव से पुनः पक्का कर दिया जाता था। यह काम भी तकली से या चर्खे से किया जाता था। हाथों से भी किया जा सकता था। ऐसा करने पर एक नौगुणा, दो बार पक्का बटा हुआ सूत बन जाता था। उसकी लंबाई लगभग दूर या 30 हथेलियों की रह जाती थी, क्योंकि पक्का करने से लंबाई कुछ घट जाती थी।

इस नौगुणे और कहीं भी छेद के बिना होते हुए सूत से यज्ञोपवीत का निर्माण एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया से किया जाता था। उस प्रक्रिया को आंखों से ही देखा जा सकता है, वाणी से स्पष्ट कहा नहीं जा सकता। अनेकों पुरोहित महानुभाव अब भी उस अंतिम प्रक्रिया को जानते हैं। उस प्रक्रिया में नौगुणे धागे के दो छोरों को टक विशेष प्रकार की गांठ लगा कर बांधा जाता है। उस गांठ को बाल ग्रन्थि कहते हैं। उसे भी करके ही दिखाया जा सकता है। बना हुआ यज्ञोपवीत तीन लड़ियों का होता है। विवाहित महानुभावों के लिए प्रक्रिया के आरंभ से ही दो गुणे लंबे सूत को लेकर के छह लड़ियों वाला यज्ञोपवीत बन जाता है। उसमें तीन लड़ियों की ब्रह्म ग्रन्थियां अलग-अलग लगती हैं, परंतु कहाँ धागे में छेद नहीं किया जाता है।

कश्मीर देश में बीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर दिल्ली से बने बनाए नौ तारों वाले पक्के सूत के गट्टे आने लगे और पुरोहित लोग उसी को खरीद कर और उसमें से अंदाज से सूत को काट कर यज्ञोपवीत बनाने लगे। उन यज्ञोपवीतों के मूलभूत सूत नौ बार कटते रहे। जो बात शास्त्र विरुद्ध है और परंपरा के भी विरुद्ध है। अब तो स्वातंत्र्य का युग है। कोई किसी पर दबाव नहीं डाल सकता है। जो जैसा माल देते, उससे उसे लेना पड़ता है। कहीं तो बाजारी पक्के धागे को लेकर वे ही यज्ञोपवीत बनाए जाते हैं। प्रत्येक नगर में प्रायः वैसे ही यज्ञोपवीत बिकते हैं।

कश्मीर में वर्तमान उपद्रवों से पहले कहीं कोई-कोई धर्मगुरु महानुभाव शुद्ध यज्ञोपवीतों को परंपरागत विधि से बनाया भी करते थे और किसी-किसी सच्चे श्रद्धालु को दे भी दिया करते थे। परंतु वर्तमान काल वाले घोर आपदा ने हम लोगों को इस तरह से तितर-बितर करके रख दिया कि अब कहीं वैसे महानुभाव को ढूंढ निकाल कर उससे यज्ञोपवीत को बनवा लेना कोई आसान काम नहीं है। फिर ऐसे श्रद्धावान महानुभाव प्रायः वृद्ध ही हैं, और शरीर उनके शक्तिहीन हो गए हैं। धर्मकार्यों को निभाने वाले युवा महानुभाव प्राय: यह जानते ही नहीं कि यज्ञोपवीत निर्माण की प्राचीन परंपरागत विधि क्या है। वे अधिक से अधिक इतना ही कर पाते हैं कि पक्के तिगुणे धागे से यज्ञोपवीत बना लेते हैं और तीन-तीन लड़ियों में पृथक-पृथक ब्रह्मग्रन्थि लगा देते हैं। इस तरह वे यज्ञोपवीत निर्माण की परंपरागत अति प्राचीन विधि जो वाराणसी, हरिद्वार, प्रयाग जैसे पवित्र तीर्थस्थानों में स्वतंत्रता के युग से पहले ही लुप्त होने लगी थी, वह विधि अब कश्मीर के पंडितों के हाथों से भी चली ही गई।

इस विषय में धर्म की सुरक्षा का एक उपाय अभी तक किया जा सकता है, यदि कोई संस्था इस विषय में दिलचस्पी लेते। अभी तक कहीं-कहीं कोई-कोई वृद्ध या अर्द्ध वृद्ध धर्मगुरु महानुभाव मिल सकते हैं। यदि कोई संस्था उनकी खोज में दिलचस्पी लेते, फिर उनके द्वारा कई एक युग धर्म गुरुओं को या धर्म में सच्ची श्रद्धा रखने वाले साधारण सज्जनों को यज्ञोपवीत निर्माण की प्राचीन विधि को सिखला दिया जाए। तदनंतर विधि पूर्वक यज्ञोपवीतों को बनाया जाए और श्रद्धालु सज्जनों को उन्हें बेच देने का प्रबंध किया जाए। इस समय एक लघु परिवार भी एक दिन की साधारण सब्जी पर कम से कम दस-पंद्रह रुपये तो खर्च करता ही है, बीस-बीस रुपये के नदरू एक समय खरीद लेता है, मत्स्य, मांस आदि खाने वाले तो एक दिन में पच्चीस-तीस रुपये भी खर्च करते रहते हैं। यदि वर्ष भर में एक सज्जन अधिक से अधिक दो बार शुद्ध यज्ञोपवीत को खरीदने में पांच-दस रुपये खर्च करे तो यह कार्य उसके लिए भारभूत नहीं होगा।

मुझे पूरा विश्वास है कि वर्तमान युग में भी हमारी बिरादरी में से सैकड़ों महानुभाव ऐसे अवश्य निकलेंगे जो इस विषय में कंजूसी नहीं करेंगे। इस काम को एक लघु व्यवसाय के रूप में चलाया जा सकता है। उसे चलाने के साधन हमारी धार्मिक और सामाजिक संख्याओं के द्वारा जुटाए जा सकते हैं। धार्मिक कार्य-कलापों को व्यवसाय के रूप में चलाने वाले ज्योतिषी आदि भी इस कार्य को सफलतया हाथ में ले सकते हैं। ऐसा करने से एक तो उन्हें लाभ होगा, दूसरे श्रद्धालु जनता को शुद्ध यज्ञोपवीत मिल सकेंगे। इस युग में भी कितनी ही धार्मिक संस्थाएं और कितने ही प्रकाशक धार्मिक ग्रंथों के प्रकाशन और वितरण के कार्यों को व्यवसायों की तरह चला रहे हैं। यदि शुद्ध यज्ञोपवीतों के निर्माण और विक्रय के कार्यों को भी हाथ में ले लेवें तो एक ओर से उन्हें अर्थ लाभ होगा, दूसरी ओर से श्रद्धालु महानुभावों को शुद्ध यज्ञोपवीत मिल सकेंगे और तीसरी ओर से यज्ञोपवीत की फरियाद निष्फल नहीं होगी। कोई अकेला महानुभाव इस काम को नहीं कर सकेगा, इसे कर सकने के लिह कार्यकर्ताओं का एक वर्ग चाहिए। वैसी व्यवस्था प्रकाशक महानुभाव या संस्थाओं के अधिकारी निभा सकते हैं जिनके दाएं-बाएं अनेकों काम करने वाले सज्जन सदा रहते हैं।

डॉ. बलजितनाथ पंडित Dr. Baljitnath Pandit

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साभार: 1996 नवम्बर कोशुर समाचार

 

 

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