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कार्तिक कृष्ण पक्ष पंचमी Karthik Krishna Paksha, Panchami

Mahishasura Mardan महिषासुर मर्दन

Mahishasura Mardan महिषासुर मर्दन

भक्तजनों ने देखा कि मंदिर की भित्ति पर एक धुंधली, सौम्य नारी की मुखाकृति अंकित है। उसके प्रशांत, स्थिर ज्योतिर्मय नेत्रों से अनुशासन भाव टपक रहा है। सामने सींग-पूँछ युक्त एक क्षीणकाय मानव है, जो अपने सींग तोड़कर फेंक रहा है। महिषासुर मर्दन है? क्या इसी के लिए मूर्तिकार को वर्ष भर सौ स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन मंदिर से दी जाती रहीं? जनकंठों से नाना प्रकार के प्रश्नबाण छूट पड़े। नगर का | वृद्धतम मंदिरशिल्पी गरजा–“छोकरे, यह क्या है?" उत्तर मिला—“महिषासुर मर्दन।" "तो इसमें महिषमर्दिनी की बीस भुजाएँ कहाँ हैं? शक्ति, तोमर, त्रिशूल आदि अस्त्रास्त्र कहाँ हैं? वाहन भूतसिंह कहाँ है? संहार दृश्य कहाँ है और महिषासुर क्या ऐसा मरियल मानव था ? तुम्हारी कृति भ्रष्ट है, शास्त्रविरुद्ध है।" तरुण मूर्तिकार शांत भाव से बोला- "शिल्पिवर्य ! मेरी कृति को शास्त्र नहीं, सत्य की तुला पर तौलिए। आपके शास्त्रकार मानव थे, मानव की सीमित दृष्टि से उन्होंने देवी महिषमर्दिनी को देखा, | अन्यथा जो शक्तिरूपा है, क्या उसे भुजाएँ और शस्त्र चाहिए? वे तो पूरक और सहायक होते हैं, पूरक सहायक चाहिए उसे, जो अपूर्ण असहाय है। फिर शस्त्र और संहार ! कैसी द्वेषमूलक, निर्बलतामूलक कल्पना! आद्या माँ किससे द्वेष करेगी ? सभी दानव भी तो उसके वत्स हैं। दानव कौन हैं? दिव्य सत्त्वहीन निर्बल मानव ही तो। उसके अनुशासन के लिए तो माँ का एक दृष्टिनिक्षेप पर्याप्त है। क्या अब भी मेरी रचना आपको भ्रष्ट लगती है ? " निरुत्तर बूढ़े शिल्पी ने सिर झुका लिया।

साभारः- अगस्त, 2004, अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या - 42