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कार्तिक कृष्ण पक्ष पंचमी Karthik Krishna Paksha, Panchami

Deeya and Jyoti दीया और ज्योति

Deeya and Jyoti दीया और ज्योति

दीपावली पर दीये जलाते समय दीये के सच को समझना निहायत जरूरी है, अन्यथा दीपावली की प्रकाशपूर्ण रात्रि के बाद केवल बुझे हुए मिट्टी के दीये हाथों में रह जाएँगे; आकाशीय-अमृत ज्योति खो जाएगी। अँधेरा फिर से सघन होकर घेर लेगा। जिंदगी की घुटन और छटपटाहट फिर से तीव्र और घनी हो जाएगी। दीये के सच की अनुभूति को पाए बिना जीवन के अवसाद और अँधेरे को सदा-सर्वदा के लिए दूर कर पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन भी है।

दीये का सच उसके स्वरूप में है। दीया भले ही मरणशील मिट्टी का हो, परंतु ज्योति तो अमृतमय आकाश की है। जो धरती का है, वह धरती पर ठहरा है, लेकिन ज्योति तो निरंतर आकाश की ओर भागी जा रही है। ठीक दीये की ही भाँति मनुष्य की देह भी मिट्टी ही है, किंतु उसकी आत्मा मिट्टी की नहीं है। वह तो इस मिट्टी के दीये में जलने वाली अमृत ज्योति है। हालाँकि अहंकार के कारण वह इस मिट्टी की देह से ऊपर नहीं उठ पाती है।

मिट्टी के दीये में मनुष्य की जिंदगी का बुनियादी सच समाया है। 'अप्प दीपो भव' कहकर भगवान बुद्ध ने इसी को उजागर किया है। दीये की माटी अस्तित्व की प्रतीक है, तो ज्योति चेतना की। परम चेतना रूप में परमात्मा की करुणा ही स्नेह बनकर बाती को सिक्त किए रहती है। चैतन्य ही प्रकाश है, जो समूचे अस्तित्व को प्रभु की करुणा के सहारे सार्थक बनाता है।

मिट्टी सब जगह सहज, सुलभ और सबकी है, किंतु ज्योति हर एक की अपनी और निजी है। केवल मिट्टी भर होने से कुछ नहीं होता। इसे कुंभकाररूपी गुरु के चाक पर घूमना पड़ता है। उसके अनुशासनरूपी आँवें में तपना पड़ता है। तब जाकर कहीं वह सद्गुरु की कृपा से परमात्मा की स्नेहरूपी करुणा का पात्र बनकर दीये का रूप लेती है- ऐसा दीया, जिसमें आत्मज्योति प्रकाशित होती है। दीपावली पर दीये तो हजारों-लाखों जलाए जाते हैं, पर इस एक दीये के बिना अँधेरा हटता तो है, पर मिटता नहीं। अच्छा हो कि इस दीपावली में दीये के सच की इस अनुभूति के साथ यह एक दीया और जलाएँ, ताकि इस मिट्टी की देह में आत्मा की ज्योति मुस्करा सके।

साभारः- नवंबर, 2002, अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या - 03