आरे की धार
शंभुनाथ भट्ट 'हलीम' Shambu Nath Halim
लूटा, हा-हां लूटा
और किया अपमानित
मुझको, मेरे इष्ट देव को
मेरी मां को, जगदम्बा को!
जिसकी छाया में पलता है,
वह भी
उसका अभिभावक भी!!
शुरुआत की उसने ऐसे
इस निर्मम अपराध कार्य की
तेज धार का आरा लेकर
जोर-जोर से चीख पड़ा वह
बिस्मिल्लाह बिस्मिल्लाह करता
झपटा और पकड़ ली छाती
इक अबला की
पंख फड़कती गौरैया की!
धार उतारी बीच बदन में
दूध उफनता था जिस थन में।
फूटा रक्त-सना फव्वारा
एकाकार हुई जिससे वह
खेत दूध की कंपती धारा
बिलख -बिलख कर यों दम तोड़ा
मानवता ने!
झण्डा गाड़ा दानवता ने
उग्रवाद के नग्न नृत्य की यह इक झांकी
किसने अब तक जांची-झांकी?
कहां रहे मानव अधिकारों की रक्षा वाले
किधर गए,
गमख्वारों का दम भरने वाले
यह अन्याय नहीं तो क्या है!
इससे बढ़करक्या हो सकती है निर्दयता?
यही अगर वह आजादी है
जुल्म-जब की, बर्बरता की
उग्रवाद की कायरता की!
तौबा! ऐसी आजादी से
बर्बादी से
मानवता की शादी से!!
1 नाशादी-बदनसीबी
अस्वीकरण :
उपरोक्त लेख में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं और kashmiribhatta.in उपरोक्त लेख में व्यक्त विचारों के लिए किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। लेख इसके संबंधित स्वामी या स्वामियों का है और यह साइट इस पर किसी अधिकार का दावा नहीं करती है। कॉपीराइट अधिनियम 1976 की धारा 107 के तहत कॉपीराइट अस्वीकरण, आलोचना, टिप्पणी, समाचार रिपोर्टिंग, शिक्षण, छात्रवृत्ति, शिक्षा और अनुसंधान जैसे उद्देश्यों के लिए "उचित उपयोग" किया जा सकता है। उचित उपयोग कॉपीराइट क़ानून द्वारा अनुमत उपयोग है जो अन्यथा उल्लंघनकारी हो सकता है।"
साभार: शंभुनाथ भट्ट 'हलीम' एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य