वेदांत और विश्वचेतना

वेदांत और विश्वचेतना


वेदांत और विश्वचेतना

Dr Karan Singh डा० कर्ण सिंह

स्वर्गीय डा . राजेन्द्र प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे-एक महान स्वतंत्रता सेनानी, जिन्होंने अपना सारा जीवन देश पर न्यौछावर किया। एक ऐसे व्यक्ति, जो गांधीजी के निकटतम सहयोगी थे। कई बार जेल गए। अनेक आंदोलनों में उन्होंने हिस्सा लिया। अग्रसर रहे। किसान आंदोलन, हिंदी के आंदोलन में उन्होंने बहुत कार्य किया। तीन बार वह कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और 1946 में जब स्वतंत्रता का समय आ गया, उस समय उन्हें संविधान-सभा का अध्यक्ष चुना गया। छियालीस से लेकर पचास तक तीन-चार वर्ष संविधान-सभा ने बहुत ही कठिन परिस्थितियों में कार्य किया। क्योंकि उसी समय जहां हम स्वतंत्र हुए, वहां देश का बंटवारा भी हुआ। जहां प्रसन्नता और उल्लास हुआ कि हम सदियों के बाद विदेशी नियंत्रण से निकलकर एक स्वतंत्र देश बने हैं, वहां लाखों व्यक्ति अपने घरों से उजड़ भी गए, तबाह और बर्बाद हए। खून की नदियां बहीं। ऐसी भयंकर परिस्थिति में संविधान-सभा का कार्य चलाना राजेन्द्र बाबू का ही कार्य था। उनकी विनम्रता, उनकी विद्वत्ता और जिस ढंग से वह प्रत्येक को बहुत ही अच्छे तरीके से संबोधित करते थे, उनके दिल को छूते थे, वह अद्भुत था। मैं समझता हूं कि उनका इस पद के लिए चयन बहुत ही उपयुक्त था और फिर जब संविधान बन गया, तो स्वाभाविक ही था कि हमारे देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में डा. राजेन्द्र प्रसाद को चुना जाता। और डा. राजेन्द्र प्रसाद ही अभी तक एकमात्र ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्हें दूसरी बार राष्ट्रपति चुना गया। आज तक किसी को दो बार नहीं चुना गया है। लेकिन राजेन्द्र बाबू को चुना गया। वह भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक थे। मुझे उनके साथ संबंध का सौभाग्य मिला। उनके साथ बातें हुईं। वह मुझसे बहुत प्रेम से मिलते थे।

मैं छोटी उम्र में रीजेंट बन गया था और 21 वर्ष की उम्र में सदरे-रियासत बन गया था। यहां उन दिनों हर वर्ष गवर्नर्स और राजप्रमुखों की कान्फ्रेंस हुआ करती थी। युवा पीढ़ी ने तो कभी राजप्रमुख का नाम भी नहीं सुना होगा। शायद सदरे-रियासत का नाम सुन भी लिया हो। उन दिनों हर वर्ष जाड़ों में एक सम्मेलन होता था। तो हम यहां आते थे। राष्ट्रपति भवन में ही मैं ठहरता था और राजेन्द्र बाबू बड़े प्रेम से मुझे अलग बुलाकर कश्मीर के बारे में पूछते थे। कश्मीर जहां मुकुट है, वहां कश्मीर चिंता का विषय आज से नहीं, चालीस-पैंतालीस वर्ष से बना हुआ है। उस समय भी मुझे याद है कि डा. राजेन्द्र प्रसाद अलग बुलाकर पूछते थे कि कश्मीर की क्या परिस्थिति है। मैंने उनको कश्मीर में निमंत्रित किया। वह हमारे निमंत्रण पर सपरिवार आए। जो उनसे एक बार मिल जाए वह उन्हें भूल नहीं सकता। वह एक ऐसे व्यक्ति थे जो विनम्र भी थे और विद्वान भी। ऊंचे से ऊंचे पद पर पहुंचने पर भी उन्होंने कभी अपनी विनम्रता नहीं छोड़ी। हमारी संस्कृति में जो कहा गया है कि एक वृक्ष पर जितने अधिक फल लगें, उतना ही उसे झुकना चाहिए। इसका उदाहरण हमने जीते-जागते रूप में राजेन्द्र बाबू में देखा । चूंकि यह व्याख्यानमाला उन्हीं की स्मृति में आकाशवाणी हर साल चलाती है, तो सबसे पहले मैं डा. राजेन्द्र प्रसाद को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं और आशा करता हूं कि उनका आशीर्वाद और उनका जो उदाहरण है वह हमारे सामने बना रहेगा।

जब मुझसे आकाशवाणी ने पूछा कि आप. डा. राजेन्द्र प्रसाद व्याख्यान करेंगे, तो मैंने कहा कि अवश्य करूंगा। फिर विषय का प्रश्न उठा। अनेक विषयों पर विचार हआ। मैंने कहा कि कोई सांस्कृतिक-दार्शनिक विषय होना चाहिए। तो 'वेदांत और विश्वचेतना' का विषय चुना गया।

मैं पिछले दस-पंद्रह वर्षों से देश-विदेश की यात्राएं कर रहा हूं। मैं यह देख रहा हूं कि मानव जाति मानो एक चौराहे पर खड़ी है। प्राचीन मान्यताएं टूट रही हैं, नवीन का जन्म नहीं हो रहा है और हमारी पीढ़ियां त्रिशंकु की तरह अपने आप को कुछ अद्भुत परिस्थिति में पाती हैं। एक विशाल समुद्र-मंथन हो रहा है, चेतना का मंथन हो रहा है और जैसा कि पौराणिक कथा में बताया गया है कि जब समुद्र-मंथन होता है तो रत्न भी बहुत निकलते हैं । ज्ञान और विज्ञान, साइंस और तकनीकी ने बहुत रत्न दिए हैं मानव जाति को। लेकिन गरल की परिस्थिति भी आ गई है। आज जहां जाएं, हिंसा, विद्रोह, परस्पर वैर-बजाय इसके कि हम एक शांतिपूर्ण विश्व की तरफ जाएं ! ऐसा लगता है कि शीतयुद्ध तो समाप्त हो गया लेकिन अभी छोटे-छोटे गर्म युद्ध सारे विश्व में भड़क उठे हैं और शीत युद्ध के समाप्त होने के बाद जितने हजारों-लाखों लोग मरे हैं- युद्ध में तो कोई भूख से तड़प-तड़पकर मरे हैं। आज के विश्व में ऐसी स्थिति है कि कई लाख तो अधिक खाने से मर जाते हैं और कई करोड़ भूखे मर जाते हैं। यह एक अद्भुत परिस्थिति हम विश्व में देखते हैं। तो ऐसी परिस्थिति में, अब भगवान शंकर के तो हम भक्त हैं ही। गरल अपने में समा लें, तभी आगे जाकर अमृत की अभिव्यक्ति होगी। लेकिन हमारी चेतना किस प्रकार की हो ! विश्वचेतना कैसे उभरे! विश्वीयकरण तो हो रहा है। साइंस और तकनीकी ने विश्वीयकरण कर दिया है। आप आज आकाशवाणी लगा दीजिए, दूरदर्शन लगा दीजिए या केबल टी. वी. लगा दीजिए, विश्व में कहीं भी कुछ हो रहा है तो आप उसे देख सकते हैं। लेकिन विश्वीयकरण के साथ एक चेतना नहीं उभर रही है। तो मुझे लगा कि हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर की तरफ देखें कि क्या हमें इस भयंकर परिस्थिति में कोई मार्गदर्शन मिलता है या नहीं मिलता! हमारी सांस्कृतिक धरोहर आज से नहीं, हजारों वर्षों से अटूट चली आ रही है। जैसे देवतात्मा हिमालय से गंगा निकलती है, बहती है और निरंतर बहती चली जाती है, उसी प्रकार से हिमालय से ही हमारे सांस्कृतिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक स्रोत उभरते हैं। महाकवि कालिदास ने हिमालय का वर्णन कुमारसंभव के प्रथम श्लोक में ही किया है :

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।

पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ।।

अगर हम अपने वेदों को एक हिमालय की तरह समझें तो उपनिषद हिमालय की उन चोटियों की तरह हैं जो हमेशा ज्ञान के सूर्य से प्रकाशमान रहती हैं। मैं समझता हूं कि सारे विश्व के दर्शन में उपनिषद् एक प्रकार से हमारी विचाराधारा की चरमसीमा है। उपनिषद् से ही जितने और हमारे शास्त्र निकले हैं-पुराण इत्यादि, उसके पश्चात जो भी हैं, सब उपनिषद् में जो सत्य हैं उन्हीं की अलग-अलग भाषाओं में अभिव्यक्ति है। चाहे वह पुराणों में हो, चाहे वह बड़े-बड़े आचार्यों ने कही हो । चाहे फिर भक्तिकालीन समय में हुई हो, चाहे आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद और श्री अरविंद ने कही हो। लेकिन जो स्रोत है, मूल विचारधारा है वह हमें उपनिषद् में मिलती है और आश्चर्य की बात यह है कि जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति कर रहा है, वेदांत के विचार अधिक सार्थक सिद्ध हो रहे हैं। कई विचारधाराएं ऐसी हैं कि जब साइंस और तकनीकी बढ़ती है तो वह विचारधारा लुढ़क जाती है। उसमें वह शक्ति नहीं है कि उसका सामना कर सके । या जो प्रश्न उठते हैं उनका उत्तर दे सके। लेकिन वेदांत में मैंने यह देखा और देश-विदेश में मैंने बडे-बडे दार्शनिकों के साथ यह बात की कि जैसे-जैसे विज्ञान बढ़ रहा है, ज्ञान बढ़ रहा है, जैसे-जैसे एक विश्वचेतना उभर रही है, वैसे ही वेदांत के जो सत्य हैं वे अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। उपनिषद् के विषय में तो बहुत कुछ कहा जा सकता है। उपनिषद् एक सौ आठ माने गए हैं, आप जानते हैं। इनमें तेरह-चौदह प्रमुख हैं। उनके ऊपर बड़े-बड़े भाष्य लिखे गए हैं। एक-एक मंत्र को लेकर हमारे आचार्यों ने और विद्वानों ने परिभाषाएं की हैं। 'उपनिषद्' का अर्थ तो यही है, आप जानते हैं कि, जो समीप बैठें। हमारी एक पद्धति, आश्रम पद्धति थी जहां गुरु बैठते थे और शिष्य बैठते थे और ज्ञान की बातें होती थीं। यह उनका एक बहुत ही निकटतम संबंध था और वातावरण भी बड़ा प्रशांत था। किसी हिमालय के, झील या गंगा के किनारे या किसी पहाड़ में बैठकर या अरण्य में बैठकर उपनिषद् का ज्ञान दिया जाता था। अब यह विस्तृत विषय है लेकिन मैं आपके सामने पांच प्रमुख विचार रखना चाहता हूं जो मैं समझता हूं कि आज की और कल की और आने वाले कल की परिस्थिति में महत्वपूर्ण हैं और जो विशेषकर विश्वचेतना का आधार बन सकते हैं। सर्वप्रथम उपनिषद् का यह विचार है -

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।

यह ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मंत्र की पंक्ति है जिसमें कहा गया है कि समस्त ब्रह्मांड एक ही शक्ति से ओत-प्रोत है, इसमें अंततोगत्वा द्वैत नहीं है और केवल यह छोटी-सी हमारी पृथ्वी नहीं है। हमारे शास्त्रों में अनंत कोटि ब्रह्मांड का उल्लेख हुआ है। अगर ब्रह्मांड को एक गैलेक्सी मानें तो अनंत कोटि ब्रह्मांड में जहां भी कहीं वह हो, ये सारे एक ही शक्ति से प्रकाशमान हैं। मुझसे कई बार पूछा जाता है कि आप किस प्रकार से अपने शास्त्रों में उनकी परिभाषा करते हैं। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है :

तमेव भान्तमनुभाति सर्वम्

तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।

जिससे यह समस्त ब्रह्मांड प्रकाशित है, उसी को हम 'परब्रह्म कहते हैं। यह परब्रह्म सर्वव्यापक है। सबसे पहला सत्य हमें समझना है. उपनिषद् में :

ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म पश्चाद् ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण।

अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्।।

यह वरिष्ठ विश्व जो है, ये अनंतकोटि ब्रह्मांड जो हैं, ये सारे के सारे एक ही दिव्य शक्ति से ओत-प्रोत हैं और उन्हीं से प्रकाशमान हैं। यह समझना बड़ा आवश्यक है और आप देखेंगे कि जो साइसदान इस समय हैं, जो वैज्ञानिक हैं, वे यनिफाइड फील्ड थ्योरी की खोज में हैं। वे एक ऐसे विचार की खोज में हैं कि जितनी अलग-अलग शक्तियां विज्ञान आज जानता है, उनके पीछे क्या एक शक्ति है या नहीं ! तो उस एक शक्ति का प्रतिबिंब, उस एक शक्ति की परिभाषा वेदांत में हमें मिलती है और मुझे लगता है कि जब वह एक शक्ति पाई जाएगी, वैज्ञानिक जब उसको पाएंगे, तब वे भी इस सत्य को समझेंगे कि यह शक्ति जो समस्त ब्रह्मांड में है, वही प्रत्येक मानव के अंदर भी है। वेदांत ने कभी यह नहीं कहा कि यह शक्ति केवल किसी एक वर्ग या एक वर्ण या एक धर्म में है। ईश्वरः सर्वभूतानाम् हृदये तिष्ठति यह हर एक के हृदय के अंदर बैठा हुआ है-अंगुष्ठमात्र । वह हृदय क्योंकि ध्यान करने का स्थान है इसलिए 'अंगुष्ठमात्र पुरुष' कहा गया है। हृदय के अंदर उसका साक्षात्कार हो सकता है योग के द्वारा -

उर्ध्वं प्राणम् उन्नयति अपानं प्रत्यगस्यति।

मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते ।।

हमारे मध्य में, हृदय में वह विराजमान है -

हिरण्मये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् ।

तच्छुभं ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः ।।

जो आत्मा को जानता है वह वहां दर्शन करता है उस परब्रह्म के स्वरूप का। देखिए, हम मानव-जाति के हैं। लगता है कि मानव एक बहत दुखी और छोटा-सा व्यक्ति है लेकिन वेदांत कहता है कि 'अहं अमृतस्य पुत्रः । अमृतत्व हम सबकी विरासत है। इसलिए हम व्यक्ति को कहें कि ये तो बड़े पापी हैं, दुष्ट हैं-यह गलत है। बुरे कर्म का बुरा असर पड़ेगा, अच्छे कर्म का अच्छा असर पड़ेगा। लेकिन अंततोगत्वा हरेक के हृदय में वह शक्ति विराजमान है। यह वेदांत का बड़ा महत्वपूर्ण विचार है और इस विचार को जब हम लेते हैं तो संकीर्णता का कोई स्थान नहीं रहता। जब प्रत्येक व्यक्ति में हम परब्रह्म का प्रतिबिंब देखें, तो किसी के साथ हम घृणा कैसे कर सकते हैं!

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति।

सर्वभूतेषु च आत्मानं ततो न विजुगुप्सते ।।

यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूत् विजानतः ।

तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।।

ईशावास्योपनिषद में कहा गया है कि जो हर एक को अपने में पाता है और अपने को हर एक के अंदर देखता है वहां शोक और मोह का सवाल कहां उठता है ? 'एकत्वं अनुपश्यतः-यह एकत्व जो है बाहर के परब्रह्म का और भीतर के आत्मन् का एकत्व, यह वेदांत का सार है और इसे समझना बड़ा आवश्यक है क्योंकि इसे समझने से ही आज यह जो प्रजातंत्र की बात होती है क्यों प्रजातंत्र हो, इसलिए कि प्रत्येक व्यक्ति का एक अपना अधिकार है। व्यक्ति मात्र यह नहीं है कि इस्तेमाल करके उनको फेंक दिया जाए। जैसे कि एक गिलास को फेंक दिया जाता है। इसलिए कि हरेक व्यक्ति अद्भुत है और हरेक व्यक्ति के अंदर भगवान का निवास है। इसलिए हमारा कर्तव्य बन जाता है कि हरेक व्यक्ति के प्रति हम श्रद्धा से और अच्छे ढंग से व्यवहार करें। तो वेदांत का यह दूसरा विचार मैं मानता हूं। आज के युग में जहां कि प्रजातंत्र की कल्पना हो रही है और इतने अलग-अलग विचार प्रकट किए जा रहे हैं-आध्यात्मिकता प्रजातंत्र का आधार है, वह यह विचार है।

फिर हम उससे आगे चलें। यदि प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का निवास है तो समस्त मानव जाति फिर एक परिवार है। परिवार क्या होता है? माता-पिता इत्यादि, उनके जो बच्चे हैं, वह परिवार है। लेकिन हम हरेक व्यक्ति में परब्रह्म का निवास देखते हैं और उस दिव्य शक्ति का निवास मानते हैं। हमारे संसद भवन में-राजेन्द्र प्रसाद जी संसद में ही बहत वर्ष रहे-प्रथम द्वार में आप गए होंगे। वहां लिखा है :

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्

उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

यह मेरा है, यह तुम्हारा है, यह तो 'लघुचेतसाम्' है-जिनकी छोटी समझ है, जिनकी संकीर्ण विचारधारा है, वे समझते हैं: 'उदारचरितानाम्-जिनकी उदार विचारधारा है, उनके लिए तो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' है। मैं समझता हूं कि विश्व में जो एक नई चेतना उभर रही है, जो एक विश्वसमाज उभर रहा है उसका मूलमंत्र हम दो शब्दों में रखना चाहें, तो वह है-'वसुधैव कुटुम्बकम्'। इसके बिना आप कभी एकता की ओर नहीं जा सकते। आज आप देख रहे हैं कि देश में भी विदेश में भी, कोई वर्ग के नाम पर, कोई वर्ण के नाम पर, कोई धर्म के नाम पर, कोई राष्ट्रीयता के नाम पर-दीवारें बन रही हैं। मैं तो यह समझता हूं कि राष्ट्रीयता का अपना बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन अब संयुक्त राष्ट्र में एक सौ बानवै राष्ट्र हैं तो एक सौ बानवै राष्ट्रीयताएं भी हैं। अंततोगत्वा आप मानव जाति के एक सौ बानवै हिस्से कैसे कर सकते हैं ?

मुझे लगता है कि राष्ट्रीयता, राष्ट्र का अपना एक महत्व है। लेकिन अब जो आने वाला युग है उसमें धीरे-धीरे राष्ट्रीयता से भी बढ़कर विश्वीयता की ओर जाना है। सौ वर्ष पहले महर्षि अरविंद ने भवानी भारती का उद्घोष किया था। मैं समझता हूं कि अब सौ वर्षों के बाद जहां भवानी भारती की उपासना तो हमें करनी ही चाहिए वहां भवानी वसुंधरा की भी उपासना करनी चाहिए। यह समस्त वसुंधरा ही हमारी माता है, जिसने हजारों-लाखों वर्ष से मानवीय चेतना को उभारा है, यहां तक पहुंचाया है। अब मैं कहूं कि मेरा ही देश पवित्र है और हमारी सीमा के बाहर जो पृथ्वी है वह पवित्र नहीं है, यह अब नहीं चलेगा। विचारधारा में यह एक क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहा है। चाहे हम इसे समझें चाहे न समझें । हो सकता है कि इस विचाराधारा को प्रकट होने में और पचास-सौ वर्ष लग जाएं। लेकिन जो काल की गति चल रही है, जिस प्रकार से मानव जाति का विकास हो रहा है, यदि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की वह विचारधारा हमने नहीं अपनाई तो फिर हम परस्पर विरोध में समस्त मानव जाति को नष्ट कर सकते हैं।

याद रखिए, शीत युद्ध समाप्त हो गया है। लेकिन अभी भी इस पृथ्वी पर पचास हजार अणु शस्त्र हैं और एक-एक अस्त्र ऐसा है जो एक हजार हिरोशिमा बम से अधिक सशक्त है। आप में से कुछ हिरोशिमा गए होंगे। मैं कुछ वर्ष पहले हिरोशिमा गया था। एक बम ने क्या तबाही हिरोशिमा में की ! पांच लाख व्यक्ति उसी समय भस्म हो गए थे और लाखों तड़प-तड़पकर बाद में मर गए। अभी तक लोग मर रहे हैं। उस हिरोशिमा बम से हजार गुना सशक्त आज एक-एक हाइड्रोजन बम है

और पचास हजार ऐसे बम आज भी हैं पृथ्वी के ऊपर। यह अद्भुत संस्कृति है। लोग भूख से मर रहे हैं और करोड़ों-अरबों इन बमों को बनाने में लगे हुए हैं जो कभी प्रयोग नहीं हो सकते। क्योंकि एक अगर बम चल जाए तो हमारी पृथ्वी सारी नष्ट हो जाएगी। ड चेतना को हमें स्पष्ट करना है। अब हम समझें कि नहीं भाई अब ही ठीक हैं और दूसरा गलत है और वह हमारी बात नहीं मानता तो उसके ऊपर बम फेंको। इससे सारे का सारा विश्व ध्वस्त हो सकता है। यदि मानव जाति को बचना है यदि मानव जाति को आगे भी एक हजार वर्ष बढ़ना है, तब मुझे लगता है कि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का विचार जो हमारे वेदांत में निहित है, समस्त मानव को अपने लपेट में ले लेता है, इसे प्रस्तुत करना बड़ा आवश्यक है। _फिर आप आगे चलिए। पहला, मैंने ईशावास्योपनिषद् का मंत्र बताया कि समस्त ब्रह्मांड में फैली हुई एक ही शक्ति है। दूसरा, हमारे हृदय में हरेक व्यक्ति के हृदय के अंदर ईश्वर का निवास है। तीसरा, समस्त मानव जाति एक परिवार है। चौथा विचार यह है-अलग-अलग धर्म उस समय भी थे-सब सनातन धर्म ही, लेकिन अलग-अलग विचार थे। उपनिषद् में भी हमें अनेक प्रकार के योग मिलते हैं, अनेक विचारधाराएं मिलती हैं। लेकिन वेदांत का यह कहना है कि-एक सत विप्राः बहुधा वदन्ति-सच्चाई एक है, सत्य एक है, उसे प्रकट करने के, उसे देखने, उसका दर्शन करने के अलग-अलग मार्ग हो सकते हैं। मुण्डकोपनिषद् का एक बड़ा सुंदर मंत्र है :

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपं विहाय।

तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।

जिस प्रकार से नदियां और नाले अलग-अलग स्थान से उत्पन्न होते हैं लेकिन अंततोगत्वा एक ही महासागर में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही जितने धर्म हैं और मत हैं उनके उत्पन्न होने के स्थान अलग हो सकते हैं, लेकिन वास्तव में यदि इनमें दिव्य शक्ति है तो इनका लक्ष्य अलग नहीं हो सकता है।

मैं अभी शिकागो से आ रहा हूं। आपको स्मरण होगा, शिकागो में 1893 में प्रथम विश्वधर्म सम्मेलन हुआ था। बड़ा महत्वपूर्ण सम्मेलन था और हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण था कि स्वामी विवेकानंद-एक अज्ञात और अनजाने साधु-वहां पहुंच गए और वहां उन्होंने वेदांत की जो परिभाषा की, उसका प्रचार, उसकी प्रतिध्वनि आज तक वहां चली आ रही है। सौ वर्षों के बाद शिकागो में फिर द्वितीय विश्वधर्म सम्मेलन हआ। वहां अनेक धर्म के लोग मिले थे और हमने यही बात कही कि यह ठीक है कि जैसे हमें अपने-अपने राष्ट्र से प्रेम है और रहेगा, अपने-अपने धर्म से भी प्रेम रहना चाहिए। लेकिन जैसे हम यह बात मानने को विवश हैं कि अपने राष्ट्र से अधिक एक विश्वचेतना भी है, उसी प्रकार से अब जहां हम अपने धर्म का प्रचार करें वहां दूसरे धर्म का विरोध करना उचित नहीं। क्योंकि हमारे वेदांत में ही स्पष्ट लिखा है कि भगवान को पाने के अलग मार्ग हो सकते हैं | मैं श्रीनगर में रहता हूं | वहां भगवान शंकर का मंदिर है। बहुत सारे लोगों ने देखा होगा। उस तक जाने के अनेक रास्ते हैं, हमारे घर से भी जाता है-कोई गगरीबल से जाता है, कोई दुर्गानाग से जाता है। पांच-छह रास्ते हैं। जब आप अपनी यात्रा आरंभ करें, उस समय तो दिखता नहीं कि दूसरा व्यक्ति कहां से चढ़ रहा है। लेकिन जब आप ऊपर शिखर तक पहुंचें तो अंततोगत्वा एक ही स्थान पर पहुंचेंगे। मैं समझता हूं , आजकल इस विचार को दोहराना बड़ा आवश्यक है। क्योंकि धर्म से लाभ भी बहुत हुआ है। अलग-अलग धर्म हैं, मजहब हैं सारी दुनिया में। लेकिन धर्म विरोध का, संघर्ष का विषय भी बना है और मुझे लगता है कि धर्म या मजहब के नाम पर जितने लोग मारे गए होंगे पिछले चार-पांच हजार वर्ष में, और किसी के नाम पर नहीं मारे गए। आश्चर्य की बात है। भगवान को हम करुणा का अवतार मानते हैं :

कर्पूर गौर करुणावतारम् ।

भगवान शंकर की उपासना हम रोज करते हैं। मुसलमान आरंभ करते हैं: 'बिस्मिल्ला रहमान-ओ-रहीम'......रहमान वही कि जो करुणामय हो। ईसाई कहते हैं कि ईसा मसीह तो मानव जाति को बचाने के लिए क्रास के ऊपर चढ़ गए थे। तो हरेक धर्म अपनी जगह तो भगवान को बहुत करुणामय मानता है। लेकिन उसी भगवान के नाम पर किस प्रकार से दूसरों के ऊपर अत्याचार होते हैं-यह आश्चर्य की बात है। इसलिए आज अगर हम विश्वचेतना की बात करते हैं तो विश्वचेतना का एक आवश्यक अंग यह है कि हम अपने धर्म में स्थिर रहें लेकिन दूसरे धर्मों का भी आदर करें। यह विचार बहुत कम धर्मों में मिलता है। मैंने देखा है कि बहुत सारे ऐसे भी शास्त्र हैं जो कहते हैं कि हमारा ही रास्ता ठीक है और दूसरा रास्ता ठीक नहीं है। लेकिन वेदांत यह नहीं कहता। भगवान न जाने किस रूप में उत्पन्न हों, प्रकट हों-हम कौन हैं कहने वाले ! भगवान अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक हैं। वह उसी ढंग से प्रस्तुत हो सकते हैं। अहंकार की भी कोई सीमा होनी चाहिए। यह हक हमें किसने दिया कि हम कहें कि नहीं, भगवान एक ही ढंग से आ सकता है और आप कहें कि भगवान की ओर जाना हो तो यही रास्ता है, दूसरा रास्ता नहीं है ! यह कहने का किसी को अधिकार नहीं है। यह बात वेदांत में स्पष्ट रूप से बताई गई है कि, 'एक सत विप्राः बहुधा वदन्ति' । उस समय अलग-अलग धर्म नहीं थे। अतः हम सब धर्मों का सम्मान करें।

वेदांत का जो पांचवां और अंतिम विचार मैं आपके सामने रखना चाहता हूं वह है-मानव जाति और समस्त विश्व कल्याण की कल्पना-'बहुजनसुखाय बहुजनहिताय' । कुछ लोग यह समझते हैं कि वेदांत मात्र अपने ही मोक्ष की तरफ हमें ले जाता है और विश्व की

ओर, समाज की ओर हमारा जो दायित्व है उसकी ओर ध्यान नहीं देता। ऐसी बात नहीं है। हमारी प्रार्थनाएं क्या हैं ? हमारी प्रार्थना कभी अपने ही कल्याण के लिए नहीं होती :

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।

आप समाजवाद की बात करते हैं। इससे बढ़कर और क्या आध्यात्मिक समाजवाद होगा ? 'सर्वे सुखिनः सन्तु'-जितने विश्व के लोग हैं वे सब सुखी हों । मानव जाति ही नहीं, समस्त जीव-जंतु। आप आजकल पर्यावरण की बहुत बातें सुन रहे हैं। रियो में पिछले वर्ष एक बहत बड़ा सम्मेलन हुआ था पर्यावरण के बारे में। लेकिन अगर आप अपने वेद पढ़ें, वेदांत पढ़ें तो उनमें यह बात स्पष्ट है कि यदि हम पर्यावरण को नष्ट करेंगे तो मानव जाति को भी हम नष्ट करेंगे। इसलिए हमारी चेतना इतनी विशाल होनी चाहिए कि हमें जहां अपने मोक्ष की ओर ध्यान देना है वहां समाज की ओर भी ध्यान देना है। ऋग्वेद कहता है कि हमारे जीवन के दो लक्ष्य हैं-आत्मनः मोक्षार्थम्, जगत् हिताय आत्मा का मोक्ष हो लेकिन जगत का भी हित हो और मुझे लगता है कि कई कारणवश हमारे लोग-इस देश के लोग अधिकतर 'आत्म-मोक्ष' के पीछे भागते ही रहते हैं और 'जगत् हिताय' की तरफ ध्यान नहीं देते। इसलिए आप देखेंगे कि आज भी सबसे अधिक निरक्षर लोग यदि हैं तो हमारे देश में हैं। सबसे अधिक गरीब लोग हैं तो हमारे देश में हैं। आप देखेंगे कि बड़े-बड़े मंदिर बने हैं, बड़े-बड़े घर बने हैं, सब कछ बना है। लेकिन समाज की ओर जो अपना दायित्व है, जो हमारी जिम्मेदारी है, उसे हम भूल रहे हैं। यही कारण है कि बहुत सारे देश आगे बढ़ गए हैं लेकिन हमारा देश इतना आगे नहीं बढ़ा। वेदांत का यह विचार कि सब जीव-जंतु , सब प्राणी सुखी हों, बहुत उत्तम विचार है और इस विचार को भी हमें अपनाना है।

तो मैंने आपको वेदांत के ये जो पांच विचार बताए, अगर सामूहिक रूप से इस विचारधारा को हम अपनाएं और अपने जीवन का आधार बनाएं तो वास्तव में विश्वचेतना उभर सकती है। केवल इसे आदर्श  नहीं मानें, इसको यथासंभव जीवन में ढालने का प्रयत्न करें। हमारे देश में बहुत उत्तम दर्शन रहे हैं। लेकिन व्यवहार हमारा उत्तम नहीं रहा। दुख से कहना पड़ता है कि कथनी और करनी में जितना अंतर हमारे देश में है, संभवतः किसी और देश में नहीं होगा। हमारी विचारधारा तो बड़ी विस्तृत है, बड़ी विशाल है। लेकिन वास्तविकता क्या है? यह क्या कारण है ? मैं प्रश्न पूछ रहा हूं , उत्तर नहीं दे रहा हूं। मैं आपसे प्रश्न पूछ रहा हूं। अपने हृदय को टटोलकर देखें कि क्या कारण है। क्यों हम देख रहे हैं कि जो देश हमारे बहुत पीछे थे, वे आगे बढ़ रहे हैं ? आप जापान देश का उदाहरण ले लीजिए। जापान पिछले महायुद्ध के पश्चात बिलकुल तबाह और बर्बाद हो गया था। जर्मनी में, बर्लिन में एक घर नहीं खड़ा था युद्ध के अंत में । सारे का सारा शहर अस्त-व्यस्त और नष्ट हो गया था। लेकिन आज आप देखिए, किस प्रकार से जापान और जर्मनी में लोगों ने कर्मठ होकर कर्मयोग को अपनाकर अपने देश की पुनर्स्थापना की है। मैं तो यही कहना चाहता हूं कि हमारे ये जो विचार हैं-इतने विशाल, इतने उत्तम-इन विचारों को सब तक पहुंचाना चाहिए। बड़ा आवश्यक है कि हमारी शिक्षा पद्धति में उपनिषद की विचारधारा आए । यह कोई धर्म की बात नहीं है, किसी विशेष धर्म का प्रचार करना नहीं है। यह विचारधारा एक प्रकार से धर्मातीत है। एक प्रकार से यह सर्वव्यापी है। यह विचार किसी विशेष धर्म का प्रचार नहीं है। ये आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य जब तक हम फिर से इस देश में स्थापित नहीं करेंगे, तब तक बाबू राजेन्द्र प्रसाद जैसे व्यक्ति इस देश में कैसे उभरेंगे? कैसे यह देश वास्तव में उस चोटी तक पहुंचेगा जिसका दृश्य स्वामी विवेकानंद ने देखा, श्री अरविंद ने देखा, महात्मा गांधी ने देखा, डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने देखा ! एक ऐसा देश जो विश्व का गुरु होगा। विवेकानंद ने एक स्थान पर कहा है कि भारतवर्ष एक न एक दिन विश्व का गुरु होगा। लेकिन आप मुझे क्षमा करेंगे कि आज के भारत में मुझे गुरु के लक्षण नहीं दिखाई दे रहे। वे गुरु के लक्षण  कैसे होंगे ! वे तब होंगे जब हम उपनिषद् की इस विचारधारा को अपनाएंगे और इसको लेकर कुछ कर्म करेंगे। यह विचारधारा मात्र मनन का विषय नहीं होना चाहिए। यह कर्म का विषय होना चाहिए और इसलिए मैं मुण्डकोपनिषद् के उन दो मंत्रों को उद्धृत करता हूं जो हमें प्रोत्साहित करते हैं कि हम उपनिषद् रूपी धनुष को उठाकर उसमें आत्मा रूपी तीर को लगाएं, जो सतत मनन से तेज हुआ हो और अप्रमत्त हो। फिर हम एकाग्रचित होकर लक्ष्य के साथ एक हो जाएं, जैसे तीर लक्ष्य के साथ एक होता है। यह कार्य हमें करना है। यह महास्त्र हमारे पास है। यह केवल हमारी निधि नहीं है, समस्त मानव जाति की निधि है। इसका प्रयोग करना है। एक धनुष पड़ा है, तो उसका कोई लाभ नहीं। लेकिन उसका प्रयोग करके अपने जीवन में, अपने समाज में, अपने देश में और अपने विश्व में इसका प्रचार करें तभी वास्तव में यह जो प्राचीन सत्य है, शाश्वत सत्य है, जो हजारों वर्षों तक इस देश को, देश की विचारधारा को प्रकाशमान किए हुए है, उसका प्रतिबिंब हमारे दैनिक जीवन में होगा :

धनुर्गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं शरं ह्युपासानिशितं संधयीत।

आयम्य तद् भावगतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ।।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।

अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।।

मैंने वेदों की उपमा हिमालय से की थी और उपनिषदों की उन महान पर्वतों से, जो हमेशा ज्ञान के सूर्य से प्रकाशमान रहते हैं। अब मैं दृष्टांत को बदलना चाहता हूं और नक्षत्र की उपमा देना चाहता हूं। हमारी सांस्कतिक, धार्मिक और दार्शनिक धरोहर में अनेक प्रकाशमान नक्षत हैं । वेद हैं, उपनिषद् हैं, ब्रह्मसूत्र हैं, 18 पुराण हैं, रामायण और महाभारत हैं, योगसूत्र है, अष्टाध्यायी है, कामसूत्र है, नाट्यशास्त्र है, अनेकानेक ग्रंथ हैं। कोई ऐसा विषय नहीं है, जिसके ऊपर हमारे पूर्वजों ने महान ग्रंथ न लिखे हों। विद्या का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है कि जिसको हमारे ऋषियों ने प्रकाशमान न किया हो। लेकिन इन सब नक्षत्रों में एक सितारा विशेष प्रकाशमान है। वह सबसे बड़ा नहीं है, सबसे महत्वपर्ण भी नहीं है। उपनिषद् श्रुति है, लेकिन भगवद्गीता स्मृति होते हए भी एक विशेष स्थान रखती है हमारे आध्यात्मिक जीवन में और हमारे दार्शनिक वाङमय में । हजारों वर्षों से करोड़ों व्यक्तियों को भगवदगीता ने प्रोत्साहित किया है। उनके जीवन के ऊपर प्रभाव पड़ा है। प्रस्थानत्रयी, जो वेदांत के तीन आधार हैं, वे हैं- उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र

और भगवद्गीता। भगवद्गीता मात्र सात सौ श्लोकों का एक ग्रंथ नहीं है, इसका एक बड़ा विशेष महत्व है। आदि शंकराचार्य ने एक स्थान पर लिखा है :

भगवद्गीता किंचिद् अधीता गंगाजललवकणिका पीता।

सकृदपि येन मुरारी समर्चा क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ।।

कि भगवद्गीता का थोड़ा-सा भी ज्ञान पाया हो और गंगाजल थोडा-सा भी पिया हो और श्रीकृष्ण को थोड़ा-सा भी स्मरण किया हो, तो यम से कोई भय नहीं रहता और वह श्लोक भी प्रसिद्ध है

सर्वो उपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनंदनः ।

पार्थो वत्स सुधी भोक्ता दुग्धं गीतामृतम् महत् ।।

यदि सब उपनिषदों को हम गाय का स्वरूप मानें और दोग्धा-दूध निकालने वाले गोपाल हैं। वह तो हैं ही ग्वाले। दूध पीने वाला जो वत्स है, जो बछड़ा है-वह अर्जुन है, तो सब गायों का जो दूध रूपी अमृत है उसे भगवद्गीता के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया गया है।

आश्चर्य की बात है कि आदिशंकराचार्य से लेकर आज तक जितने बडे-बड़े दार्शनिक और विचारक रहे हैं, सबने भगवद्गीता के ऊपर अपना विचार अवश्य दिया है, अपनी भूमिका लिखी है। शंकराचार्य, माघवाचार्य, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य-बड़े-बड़े आचार्यों ने अपने भाष्य लिखे हैं और संत ज्ञानेश्वर जैसे महान संत ने मराठी में जो ज्ञानेश्वरी लिखी है, वह भगवद्गीता के ऊपर ही भाष्य है। हमारी ही शताब्दी में लोकमान्य तिलक ने, महर्षि अरविंद ने भाष्य लिखे हैं। मैं तो समझता हं कि आदि शंकराचार्य का भाष्य, ज्ञानेश्वरी और श्री अरविंद का आधनिक भाष्य-ये तीन ऐसे प्रमुख भाष्य हैं जो वास्तव में अद्भुत हैं। गांधीजी ने गीता पर लिखा, विनोबाजी ने लिखा । हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में जो नेता थे, उनमें से बहुत सारे गीता से प्रभावित हुए थे। अब यह क्या कारण है कि गीता का इतना महत्व हमारे दार्शनिक इतिहास में रहा है और आज भी है ! मैं इसके चार कारण मानता हूं । पहला कारण यह है कि भगवद्गीता एक संघर्ष का शास्त्र है। उपनिषद् का वातावरण, मैंने आपको बताया, बड़ा शांत वातावरण होता है। गुरु बैठते हैं, शिष्य बैठते हैं और परब्रह्म की बातें होती हैं-बड़े शांत वातावरण में। कहीं हिमालय की चोटी पर अथवा गंगा के किनारे आश्रम में। लेकिन भगवदगीता का परिप्रेक्ष्य बिल्कुल भिन्न है। भगवद्गीता तो युद्ध में बन गई है। शंख की ध्वनि से सारा वातावरण गूंज रहा है। शस्त्र संपात आरंभ होने जा रहा है। और उस समय युद्ध के मैदान में भगवद्गीता का उपदेश आता है। तो आज का जो मानव है वह किसी एकांत आश्रम में नहीं बैठा हुआ है। आज का मानव त्रस्त है, ग्रस्त है, युद्धभमि में है। और स्मरण रहे कि यह युद्धभूमि मात्र हरियाणा में कुरुक्षेत्र का एक मैदान नहीं है। यह कुरुक्षेत्र हम-आप सबके बीच में है, हमारी चेतना में है। हमारे भीतर ही आसुरी और दैवी शक्तियों का परस्पर सतत संघर्ष चलता रहता है। इसलिए आज का मानव जो एक संघर्षमय परिस्थिति में है, उसके लिए गीता का एक विशेष महत्व है। गीता में जब भगवान कहते हैं:

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।

हे अर्जुन, उठो ! युद्ध के लिए तैयार होकर-तस्मात् सर्वेषु कालेष माम् अनुस्मर युद्ध च । अर्जुन, हमेशा मुझे याद करते हुए युद्ध करो। यहां युद्ध का आह्वान है। लेकिन कौन-सा युद्ध है ? यह हमें समझना चाहिए। यह युद्ध कोई मात्र अहंकार के लिए नहीं हैं। यह किसी पक्ष या दल की विजय के लिए नहीं है। यह तो देवासुर युद्ध है और यह तो दैविक संपत्ति, दैविक विचारधारा की विजय के लिए युद्ध है । इसलिए यह युद्ध बड़ा महत्वपूर्ण है। आज हम अपने आप को एक युद्ध की परिस्थिति में पाते हैं। इसलिए गीता का संदेश हमारे लिए विशेष महत्व रखता है।

दूसरा कारण है-गीता के आचार्य का विलक्षण स्वरूप। हरेक शास्त्र में अपना-अपना आचार्य है। उपनिषद् में अनेक आचार्य मिलते हैं-याज्ञवल्क्य हैं, अंगीरस हैं, यम हैं, जनक हैं-बहुत सारे बडे-बडे आचार्य हैं। लेकिन गीता के आचार्य की अद्भुत परिस्थिति है क्योंकि वह तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं जिनको अनेक दृष्टि से देखा जा सकता है ।

एक रूप से देखा जाए तो परब्रह्म स्वरूप हैं। जैसे मैंने बताया :

तमेव भान्तमनुभाति मनभाति सर्वम्, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।

जैसे हजार सूर्य कही बार उदय हो रहे हो, ऐसा उसका प्रकाश है। महत्वपूर्ण बात

है कि इतने प्रकाशमान पुरुष गीता में सारथी के रूप में हमारे सामने आते हैं। इसलिए वे जो कहते हैं, उसका इतना महत्व है, इतना अधिकार है जो और किसी शास्त्र में कठिनाई से मिलता है। जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं यह कह रहे हैं तो उसका महत्व अधिक है और कृष्ण इसमें वही उपनिषद् वाली बात कहते हैं | उपनिषद् कहता है : सर्व खलु इदं ब्रह्म। और कृष्ण कहते हैं : वासुदेवः सर्वम् इति । यानी उपनिषद् के विचारों को ही एक प्रकार से गीता में व्यक्तिगत रूप से भगवान श्रीकृष्ण अभिव्यक्त करते हैं । यह दूसरा कारण है कि गीता के आचार्य का ऐसा विलक्षण स्वरूप है जो किसी दूसरे शास्त्र में आसानी से मिलता नहीं है। इसलिए यह हमारे हृदय को स्पर्श करता है।

तीसरा कारण, गीता के महत्व का, मैं यह मानता हूं कि यहां गुरु और शिष्य का अद्भुत संबंध है। वैसे गुरु को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है :

अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया।

चक्षुरुन्मिलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

जो अज्ञान रूपी संसार में ज्ञान का सुरमा लगाते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं:

अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

'ईशावास्यं इदं सर्वम्' का जिक्र मैंने किया था जो उसका दर्शन करवाता है उसे हम गुरु मानते हैं। और गुरु-शिष्य का बड़ा निकटतम संबंध रहा है। 'सौम्य' शब्द का उपनिषद् में कई बार प्रयोग किया जाता है-गुरु की ओर से शिष्य के लिए। लेकिन जितना घनिष्ठ और समीप का संबंध कृष्ण-अर्जुन का गीता में पाया जाता है, ऐसा मुझे किसी और शास्त्र में आज तक नहीं मिला और इसके विषय में आपको मैं गीता का एक श्लोक बताना चाहता हूं जो बड़ा मार्मिक श्लोक है। मुझ पर तो हमेशा उस श्लोक का बड़ा प्रभाव पड़ता है। जब एकादश अध्याय में विश्व रूप का दर्शन हो जाता है, अर्जुन कहते हैं:

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीडयम।

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढ़म।।

देखिए, यह कैसा अद्भुत श्लोक है। अर्जुन कहते हैं- आपने मुझे विश्व दर्शन दिखाया। मैं साष्टांग प्रणाम करता हूं और आपसे कृपा मांगता हूं-किस प्रकार की : 'पितेव पुत्रस्य'-जैसे पिता का पुत्र के साथ स्नेह होता है। पुत्र संसार में सबसे प्रिय होता है। लेकिन पिता-पुत्र का संबंध भी परिवार के परिप्रेक्ष्य के अंदर बंधा हुआ है। यह वह संबंध नहीं है : “सखेव सख्युः-मित्रता के संबंध की कोई सीमा नहीं है। राजा-रंक की मित्रता हो सकती है। उसमें कोई वर्ण नहीं, कोई वर्ग नहीं, कोई देश नहीं। कृष्ण-सुदामा की मित्रता हो सकती है। वह भी पारिवारिक प्रतिबंधों से परे है। लेकिन अर्जुन का संबंध वहां तक सीमित नहीं है:

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियाया।

जैसे प्रिय को प्रियतमा के साथ प्रेम है। देखिए, ये तीन संबंध-पिता और पुत्र का प्रेम, मित्र और सखा का प्रेम तथा प्रिय और प्रियतमा का प्रेम-ये तीनों संबंध जुड़कर कृष्ण और अर्जुन के संबंध के रूप में हमारे सामने आते हैं और इसलिए कृष्ण गीता में जो कहते हैं वह हमारे हृदय को स्पर्श करता है, विशेषकर युवा पीढ़ी को। यदि डरा-धमकाकर हम कहें कि भाई, यह करो, नहीं तो यह होगा, यह करो, यह होगा, उससे हृदय को स्पर्श नहीं होता। उससे भयभीत होकर व्यक्ति चाहे कुछ करले  लेकिन हृदय का परिवर्तन नहीं होता है। वह तो प्रेम से सामीप्य से निकटतम संबंध से ही हो सकता है। यह एक विशेष चीज गीता में में समझता हूं। किसी और शास्त्र में मैंने इतना घनिष्ठ संबंध नहीं देखा। गीता के महत्व के चार कारण मैं आपको बता रहा हूं। पहला यह है कि यह संषर्ष का शास्त्र है। दूसरा यह कि गीता के आचार्य लक्षण स्वरूप है। तीसरा-गीता में गरु और शिष्य का अद्भुत संबंध है और चौथा गीता की सार्वजनिक व्यावहारिकता।

गीता किसी धर्म-विशेष, किसी वर्ण-विशेष, किसी देश-विशेष का शास्त्र नहीं है। गीता के जो उपदेश हैं और गीता का जो दर्शन है वह तो समस्त मानव जाति के लिए है और यही कारण है कि मैं जब देश-विदेश में जाता हूं तो देखता हूं कि गीता का प्रभाव मात्र हिंदुओं के ऊपर नहीं. अन्य धर्म के अनुयायियों के ऊपर भी पडता जा रहा है। गीता में एक स्थान पर श्रीकृष्ण कहते हैं :

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

जो भी जिस प्रकार से मेरी ओर आएगा, उसकी श्रद्धा को मैं मजबूत करूंगा। देखिए, यह कितनी बड़ी बात है ! कई धर्म कहते हैं कि हमारे ही रास्ते पर चलोगे तो तुम्हारा कल्याण होगा, नहीं तो नष्ट हो जाओगे। लेकिन यह क्या कहते हैं:

यो यो यां यां तनु भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदध्याम्यहम् ।।

जो भी श्रद्धा के साथ देवत्व की ओर जाएगा, उसकी श्रद्धा को मैं सुदृढ़ करूंगा। पहले जो हमने एक सत् विप्राः बहुधा वदन्ति की बात की, वह ही एक दूसरे रूप में गीता हमारे सामने रखती है। भगवान कहते हैं कि जिस प्रकार से आप देवत्व की ओर जाओ, श्रद्धा होनी चाहिए। बिना श्रद्धा के कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। लेकिन यदि श्रदा होगी, उस श्रद्धा को मैं सुदृढ़ करूंगा। ऐसा श्रीकृष्ण कहते हैं गीता में और यही कारण है कि गीता का संदेश इतना महत्वपूर्ण और इतना प्रभावशाली है। अब प्रश्न यह है कि गीता का संदेश है क्या ! जैसा मैंने कहा, एक-एक मंत्र, एक-एक श्लोक को लेकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने भाष्य लिखे हैं। लेकिन मैं संक्षेप में आपके सामने चार मुद्दे रखना चाहता हूं, जो मेरे विचार में गीता के संदेश का सार है और विशेषकर जो हमारे दैनिक जीवन में और जिस विश्वचेतना की आवश्यकता आज मानव जाति को है, उसके लिए महत्वपूर्ण है। पहला तो है-कर्म की व्याख्या। हमें क्या करना चाहिए ? हरेक मानव के सामने यह प्रश्न उठता है। चाहे हम किसी भी क्षेत्र में हों, चाहे राजनीति में हों, चाहे सरकारी नौकरी में हों, चाहे हम अपना निजी कारोबार कर रहे हों, चाहे हम छात्र हो, चाहे हम घर में कार्य कर रहे हों-हरेक मनुष्य, हरेक स्त्री के सामने यह प्रश्न सदा उठता रहता है कि अब क्या करना चाहिए? अब कर्म की व्याख्या-श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि 'गहना कर्मणो गतिः'-कर्म की गति बड़ी कठिन है। इसको समझना कि अब हमें क्या करना चाहिए ! हम आज कुछ करें, उसकी पृष्ठभूमि क्या है? आगे क्या होगा? उसका उपाय उन्होंने गीता में रखा है। यह बड़ा महत्वपूर्ण है जिसे हम एक श्लोक में पाते हैं। कृष्ण कहते हैं :

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ।।

जो यह सारे ब्रह्मांड में छाई हुई शक्ति है और हरेक जगह जो फैली हुई शक्ति है, 'स्वकर्मणा तम् अभ्यर्च्य'-अपने कर्म से हम उसकी अर्चना करें, पूजा करें, तब 'सिद्धि विन्दति मानवः'-मानव सिद्धि की ओर जाता है। अब देखिए, कैसा उन्होंने हमें मंत्र दे दिया है कि जो भी हम कर्म करें एक यज्ञ के रूप में करें। मैं भगवान शंकर का भक्त हूं :

यत यत् कर्म करोमि, तद् तद् अखिलं शंभो तव आराधनम् ।

जो भी मैं कर्म करूंगा, मैं भगवान शंकर के चरणों में उसको रखूगा। तो अगर यह हम समझ रहे हैं, जो भी हमारा इष्ट हो, जिस प्रकार से भी हम भगवान की कल्पना करते हैं, यदि हम अपना कर्म एक यज्ञ के रूप में समझें और वह कर्म उनके चरणों में रखें, तो हमारे पास एक ऐसा मंत्र आ जाता है कि हम कोई गलत काम आसानी से नहीं कर सकते। क्योंकि आप अपने लिए तो गलत काम कर लेंगे लेकिन अगर आप कार्य भगवान शंकर के लिए कर रहे हों या श्रीकृष्ण के लिए कर रहे हों, या ईसा मसीह के लिए कर रहे हों या किसी भी धर्म के अवतार के लिए कर रहे हों, तब आप गलत काम आसानी से नहीं कर सकते । आपको सोचना पड़ेगा कि मैं यह कर्म कर रहा हूं यह ठीक है कि नहीं। तो यही मंत्र उन्होंने दिया है और क्योंकि कर्म की तो अलग-अलग करोड़ों व्याख्याएं होती हैं, उन्होंने यह गीता में कर्म की व्याख्या की है और मैं समझता हूं कि अगर इस चीज को लेकर हम चलें तो नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की पुनर्स्थापना हो सकती है। 

प्रारंभ में यह जिक्र आया था कि हमारी शिक्षा पद्धति मूल्यविहीन होती चली जा रही है, नैतिक मूल्यों का हास होता जा रहा है तो यह इसलिए है कि हमारा कर्म बिगड़ता जा रहा है। लोग तो वही करेंगे जो नेतागण कहते हैं और नेतागण- राजनीतिक नेता नहीं, हरेक क्षेत्र में जो नेता अगर गलत काम करेंगे तो साधारण जन भी गलत काम करेंगे और अगर ठीक काम करेंगे तो साधारण जन भी ठीक काम करेंगेः

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।

गीता में यही लिखा है कि जो श्रेष्ठ हैं, वे जिस प्रकार से का करेंगे उसी प्रकार से अन्य लोग भी करेंगे। तो यह कर्म की व्यारया और सही कर्म का मूल मंत्र गीता में हम पाते हैं। और मुझे लगता है यह बहुत महत्वपूर्ण और उपयोगी बात है। हम दैनिक जीवन में इसका बहुत प्रयोग कर सकते हैं।

गीता का जो दूसरा पक्ष मैं आपके सामने रखना चाहता हूं वह यह है कि गीता हमारे सामने एक 'संपूर्ण योग' रखती है। हमारी पद्धति में चार प्रकार के योग माने गए हैं :

(1) ज्ञानयोग,

(2) कर्मयोग,

(3) भक्तियोग,

(4) राजयोग।

ये चार प्रमुख योग के मार्ग दिखाए गए हैं। योग आत्मा और परब्रह्म को मिलाने का साधन है। तो गीता एक छोटे-से ग्रंथ में चारों योगों की परिभाषा देती है और चारों योगों का मिश्रण महर्षि अरविंद ने 'एसेज ऑन द गीता', जो उनका महान लेख है, उसमें बताया है। गीता में ज्ञानयोग तो है ही :

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।

यह ज्ञान की व्याख्या है। उन्होंने कर्म की व्याख्या गीता में की है। भक्तियोग ! जहां भगवान श्रीकृष्ण होंगे वहां भक्ति तो होगी ही, उनका तो जन्म भक्तों के लिए हुआ था। अंधेरी काल कोठरी में अष्टमी के दिन उन्होंने जन्म लिया। एक भयंकर परिस्थिति में जन्म लेते ही वह कोठरी प्रकाशमान हो गई। बड़ी-बड़ी बेड़ियां जो वसुदेव जी के पड़ी हुई थीं, खुल गईं। बड़े-बड़े द्वार जिनको खोलने में सौ-सौ सैनिक लगते थे, एकदम खुल गए। भगवान श्रीकृष्ण गोकुल गए, वहां भक्ति से वातावरण ओत-प्रोत रहा। वृंदावन में गए तो वृंदावन में उनकी अद्भुत लीलाएं हुईं। लेकिन अगर आप गीता के पांचवें और छठे अध्याय को पढ़ें तो आपको पर्याप्त सामग्री मिलेगी-राजयोग के लिए भी। किस प्रकार से बैठना चाहिए, किस प्रकार से सांस लेनी चाहिए, किस प्रकार से ध्यान लगाना चाहिए। ये सब बातें सूत्र रूप में भगवद्गीता में मिलती हैं। तो ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग और राजयोग-चारों योगों का सम्मिश्रण गीता में अद्भुत ढंग से किया गया है। और यह याद रहे कि आज के मानव के लिए चारों योग आवश्यक हैं। पिछले युग में तो एक योग लेकर व्यक्ति बैठ जाता था। कहीं हिमालय में चला गया, तो ज्ञानयोग की ओर चला गया, कहीं तपस्या में डूब गया। आज के घोर कलियुग में यह नहीं चलेगा। आज तो प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञानी भी होना है, भक्त भी होना है, कर्मयोगी भी होना है और राजयोगी भी होना है। इसलिए गीता का एक संपूर्ण, सम्मिश्रित और सामूहिक योग बहुत ही महत्वपूर्ण है और हमारे लिए बहुत ही फलदायक है।

गीता में तीसरा पक्ष संपूर्ण आश्वासन है। भगवान गीता में अर्जुन को अनेक आश्वासन देते हैं। स्वयं अर्जुन को भी देते हैं और मानव जाति को भी देते हैं :

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्।।

परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

उन्होंने कहा है कि जब भी धर्म की ग्लानि होगी, हानि होगी और जब ऐसा लगेगा कि अधर्म छा रहा है, उस समय मैं स्वयं प्रकट हो जाऊंगा।

उन्होंने विशेषकर उन्हें जो उनके भक्त हैं, उन्हें आश्वासन दिए हैं: कौन्तेय प्रति जानीहि न ये भक्तः प्रणश्यति। लेकिन आश्वासन मात्र पर्याप्त नहीं है। हमें उनको आश्वासन के ऊपर बाध्य मानना चाहिए।

मैं कई वर्ष संसद में रहा हूं। संसद में कोई मंत्री उठकर कोई आश्वासन दे देता है, तो सब कहते हैं कि देखिए, आपने आश्वासन दिया है, इसको पूरा कीजिए। एक कमेटी भी बनी हुई है, आश्वासना की-लोकसभा में और अन्य विधानसभाओं में भी। मंत्रियों के विषय में मैं कुछ नहीं कहूंगा। लेकिन मैं पूछना चाहता हूं कि अगर एक मंत्री आश्वासन देते हैं और उसके ऊपर हमने एक कमेटी बना रखी है, पर भगवान श्रीकृष्ण ने इतने आश्वासन दिए हैं, उनका हम क्या करेंगे । क्या मात्र इनको हम एक शायरी मान जाएंगे। कब आएंगे वे, उन्होंने आश्वासन दिया है। मुझे यहां गालिब का शेर याद आता है कि:

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन,

खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक।

जब तक आपको पता चलेगा, हमारी क्या परिस्थिति होगी, हम तो खाक हो जाएंगे। तो ऐसे आश्वासन का क्या लाभ है? एक नई बात-नई तो नहीं है, लेकिन आपके लिए शायद नई हो-मैं यह कहना चाहता है कि यदि मनुष्य को भगवान की आवश्यकता है तो भगवान को भी किसी न किसी रूप में मनुष्य की आवश्यकता है। नहीं होती तो चक्र चला देते। क्यों उन्होंने 18 अध्याय लगाकर अर्जन से कहा- 'भाई, निमित्त मात्र खडे हो जाओ। मैंने पहले ही सारे मार रखे हैं लेकिन तुम खड़े हो जाओ।'-क्यों कह रहे थे ? आपने कभी सोचा ? अपना ही चक्र चलाकर खत्म कर देते। बैठते आराम से । उनके पास इतनी शक्ति थी। लेकिन मानवीय चेतना का विकास, मानवीय इतिहास की प्रगति और काल की गति इन सब चीजों को देखते हुए मानवीय चेतना मात्र एक निमित्त ही नहीं है, मानवीय चेतना भी इस सारे परिप्रेक्ष्य में एक महत्व रखती है। यह याद रखा जाए। और इसलिए यदि भगवान श्रीकृष्ण ने हमें अनेक आश्वासन दिए हैं, और आप तो जानते हैं भगवान तो बड़े टेढ़े हैं क्योंकि वे खड़े भी टेढे होते हैं; आपने उनकी बांसुरी का स्वरूप देखा है-वह त्रिभंग है, तो इसलिए भगवान कृष्ण के मुख से सिर्फ ऐसी बात निकलेगी नहीं। हमें उनको बाध्य मानना है और हमें अपनी साधना से उनको अपने आश्वासन के ऊपर पूरा उतारना है।

जहां संपूर्ण आश्वासन की बात आती है वहां हमारे योगदान की भी आवश्यकता है। मानव के योगदान की आवश्यकता है। तभी मानवीय चेतना उभर सकती है। तभी हम मानस से अतिमानस की ओर जा सकते हैं। जैसे महर्षि अरविंद ने कल्पना की है और तभी हृदय की ग्रंथियां सुलझ सकती हैं। उपनिषद् में लिखा है, क्या होता है जब ज्ञान हो :

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।

हृदय की ग्रंथियां तब तक नहीं खुलती हैं, जब तक इस सारे दैवी परिप्रेक्ष्य में जो एक दैविक षडयंत्र है सारे ब्रह्मांड का, उसके अंदर, हमारा भी योगदान हम नहीं मानते। अगर हम यह नहीं मानते तब तो हम मात्र एक कठपुतली की तरह हो गए। तब क्या फर्क पड़ता है ! हम क्या करें ? सत्य करें, धर्म करें या अधर्म करें-कोई अर्थ नहीं रहता जीवन का । जीवन का अर्थ तब रहता है जब हमें इस बात का विश्वास हो कि मानवीय चेतना में, मानवीय विकास में, हमारा योगदान भी है। इसलिए जहां संपूर्ण आश्वासन की बात होती है वहां यह बात भी हमें समझनी बड़ी आवश्यक है । गीता के महत्व की तीन बातें आपको बताईं। एक तो कर्म की व्याख्या। एक संपूर्ण योग-चारों योगों को मिलाकर एक संपूर्ण सम्मिश्रित योग। एक संपूर्ण आश्वासन, जिसमें हमारा भी योगदान है और अंत में संपूर्ण समर्पण । गीता में प्रश्नोत्तरी है। उपनिषद् में भी है। आरंभ से ही अर्जुन एक प्रश्न पूछते हैं :

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढ़ चेताः ।

यच्छेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे, शिष्यस्तेहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।

मैं घबरा गया हूं। मुझे पता नहीं चल रहा है कि क्या करना चाहिए? आप मुझे मार्ग बताइए और अनेक प्रश्नोत्तरी चलती रहती हैं अठारहवें अध्याय में। लेकिन यदि आपने गीता का अध्ययन किया हो तो आपने यह बात देखी होगी कि अंत में जब अर्जुन के आखिरी प्रश्न का उत्तर भगवान देते हैं, उसके पश्चात वे स्वयं बिना प्रश्न के कुछ कहते हैं। अंत में कहते हैं :

सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

देखिए, यह उन्होंने प्रश्न के उत्तर में नहीं कहा, यह उन्होंने स्वयं अपनी तरफ से कहा। "सर्वधर्मान् परित्यज्य'-सब धर्मों को छोड़कर, धर्म क्या होता है-'धारयति इति धर्मः । जो धारण करता है, उसे हम धर्म कहते हैं। तो क्या धारण करता है, मानवीय चेतना को ! कुछ लोग समझते हैं कि उन्होंने बहुत पढा है, लिखा है, बडे योग्य हैं। वह धारण करेगा। कुछ लोगों को अहंकार है, हमारे पास बहत पैसा है, हमने बनाया हुआ है। कब, किस ढंग से बनाया- भगवान जाने, पर बनाया है। हमारे पास बहुत पैसा पडा है, सोना है, जवाहरात पडे हैं। वह हमें धारण करेगा! इनमें से कोई चीज धारण करने वाली नहीं है। अंततोगत्वा क्या धारण करेगी? हमारी आध्यात्मिक चेतना हमें धारण करेगी और आध्यात्मिक चेतना उस दैवी शक्ति के ऊपर आधारित है। इसलिए जब भगवान कहते हैं : 'सर्वधर्मान् परित्यज्य'-यह जो तुम समझते हो कि तुम्हें धारण करने वाली अन्य वस्तुएं हैं, इन सबको छोड़ दो : 'माम् एकं शरणं व्रज'। मेरी ही शरण में आ जाओ। जब वे 'मेरी कहते हैं, तो मात्र वसुदेव और देवकी के लड़के रूप में नहीं कहते हैं। वे परब्रह्म स्वरूप हैं, उसका प्रतिबिंब यहां आता है। वे कहते हैं : 'माम् एकं शरणं व्रज' | दिव्य शक्ति दैविक शक्ति की शरण में जाओ : 'अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि'-मैं तुम्हें सब पापों से विमुक्त करता हूं। ‘मा शुचः'-दो शब्द जो अंत के हैं, कितने सुंदर शब्द हैं ! -अगर गीता का सार समझना हो दो शब्दों में, तो वे दो शब्द यही हैं। जैसे मैंने उपनिषद् का सार बताया । ये दो शब्द हैं : ‘मा शुचः-डरो नहीं ! जैसे कोई अंधेरी कोठरी  में बच्चा चल रहा हो और मां पीछे से कहती है कि 'बेटा, डरो नहीं, मैं यहां हूं, तुम चलो आगे।' तो भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं और अर्जुन के माध्यम से समस्त मानव जाति से कह रहे हैं कि डरो नहीं। यदि वास्तव में तुम्हारी श्रद्धा है, यदि वास्तव में तुमने दैविक शक्ति की शरण ली है, यदि वास्तव में अपने जीवन को विश्वचेतना और विश्वकल्याण के लिए समर्पित करना चाहते हो तो डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हारे पीछे हूं और मैं तुम्हारा कल्याण करूंगा। तो हमारी भगवद्गीता में ऐसे अद्भुत अनेक विचार हैं और मैं समझता हूं , यह एक ऐसा ग्रंथ है कि इसको आप जितनी बार पढ़ेंगे, उतनी बार नई चीजें मिलेंगी।

मैं दो-तीन वर्ष पहले फिर से गीता को पढ़ रहा था, तो एक बात मुझे उसमें लगी। जब महाभारत में विश्व रूप दर्शन होता है, तो आप जानते हैं, अर्जुन और कर्ण का युद्ध था। अब क्योंकि मेरा नाम कर्ण है, इसलिए मेरी सहानुभूति स्पष्ट है कि किस ओर है और अन्याय भी अगर किसी के साथ हुआ तो या तो एकलव्य के साथ हुआ है या कर्ण के साथ हुआ है। अगर अन्याय नहीं होता तो युद्ध नहीं होता। सबसे बड़े भाई वही थे। उनको राज्य मिल जाता और सारा झगड़ा खत्म हो जाता। तो मैं यह कह रहा हूं कि विश्व दर्शन में जब इतने दर्शन के बाद अर्जुन कहते हैं, तब भी अर्जुन के मुंह से ‘कर्ण' का नाम नहीं निकलता। वह फिर भी 'सूतपुत्र' कहते हैं। यानी भगवान की उनके ऊपर इतनी कृपा है। कृपा नहीं होती तो कर्ण ने उनको कब का उड़ा दिया होता, वे तो भगवान स्वयं बैठ थे। लेकिन फिर भी जब इतना दर्शन हुआ तब भी वह 'कर्ण' शब्द उनके मुंह से नहीं निकलता है तब भी वे उसे 'सूतपुत्र' कहते हैं। आप देख लीजिए एकादश अध्याय में। लेकिन श्रीकृष्ण जब इसका उत्तर देते हैं, तो वे 'कर्ण' कहते हैं। देखिए, छोटी-सी बात है यह। लेकिन इसका भी अपना महत्व है। तो गीता एक ऐसा शास्त्र है जिसे पढ़ने से इसमें से हमें अनेक उपलब्धियां मिल सकती हैं। भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी आज भी बज रही है। भगवान श्रीकृष्ण सारथी के रूप में आज भी हमारे भीतर बैठे हए हैं। लेकिन हम सुनें तो ! काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के हाहाकार से हमारे कान तो सब गूंज रहे हैं। किसको समय है भीतर देखने का । जीवन की दैनंदिनी ऐसी भयंकर हो गई है। कौन बैठता है दस मिनट या पंद्रह मिनट रोज एकांत में ! अपने भीतर क्या शक्ति है, किसी ने देखने का कष्ट किया है क्या ? पूजा भी हम करते हैं तो बाहर करते हैं लेकिन अपने अंदर जो है:

हिरण्मये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् ।

तच्छद्म ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः।।

उसकी ओर ध्यान देते हैं हम? तो यह ऐसा अद्भुत ग्रंथ है। कठिन मार्ग जरूर है । मार्ग सरल नहीं है। कोई सरल मार्ग न व्यक्तिगत कल्याण के लिए रहा है और न सामाजिक और सामूहिक कल्याण के लिए रहा। कलियुग की परिभाषा ही यही है कि जो भी मार्ग है वह कठिन मार्ग है लेकिन उसी कठिन, भयंकर और खतरनाक मार्ग के ऊपर चलकर हमें अपने लक्ष्य की ओर जाना है। हमने बताया कि उपनिषद् कैसे एक धनुष के रूप में हमें उदाहरण देते हैं कि धुनष को लेकर हम लक्ष्य की ओर जाएं। तो भगवद्गीता भी हमें लक्ष्य की ओर प्रोत्साहित कर रही है।

यह व्याख्यानमाला डा. राजेन्द्र प्रसाद जी की स्मृति में है। वह बहत भले व्यक्ति थे। बड़े कर्मठ और धार्मिक व्यक्ति थे और धर्म की असली परिभाषा, जिसमें दूसरे का विरोध नहीं, लेकिन अपने आत्म की खोज है, वह धर्म की परिभाषा मैं मानता हूं | तो मैं आज एक श्लोक से इस भाषण को समाप्त करूंगा जो एक प्रार्थना है और प्रार्थना श्रीकृष्ण की है क्योंकि हम भगवद्गीता का जिक्र कर रहे हैं-वह प्रार्थना यह है कि आप कृपा करके आज ही हमारी चेतना को अपनी चेतना में मिला लीजिए। क्योंकि जब अंत समय आएगा तब न जाने हम बोल पाएंगे कि नहीं बोल पाएंगे। कई लोगों को यह गलतफहमी है कि धर्म-वर्म की जो बातें हैं, हम बुढ़ापे में जाकर करेंगे। अब तो जवानी है। वह एक शेर भी है कि:

इबादत तो है पीरी में भी मुमकिन,

जवानी बार-बार आए न आए।

तो लोग समझते हैं कि भई, वह तो बाद में देख लेंगे, जब वक्त होगा। इस वक्त तो हम रंगरेलियां करें। इस वक्त तो जो भ्रष्टाचार करना हो, जो भाई-भतीजावाद करना हो, जो भी कुकर्म करने हो, कर लो। बाद में जाकर हम अपने पाप धो लेंगे। ऐसा नहीं होता। एक तो कोई पता नहीं होता -

कबिरा गर्व न कीजिए काल खड़ा कर केश।

ना जाने कित मारही क्या घर क्या परदेश।।

किसको पता है कि जीवन का अंत कब होगा ! इसलिए हमें यह याद रखना है और मैं यह बात बताना चाहता हूं कि समय की गति बड़ी बलवान होती है।

कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ।

काल की गति जो है वह चलती है इसलिए हमें देर नहीं करनी चाहिए। अभी हमें उपासना करनी है-श्रीकृष्ण की करनी है, भगवान शंकर की करनी है, जिस भी स्वरूप की करनी है, गुरु नानक देव की करनी है, ओंकार की करनी है, निराकार की करनी है, साकार की करनी है-हमें वह उपासना आरंभ कर देनी चाहिए। अपने दैनिक जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों को ढालना चाहिए। अपने जीवन के एक-एक कर्म को हम देवत्व के प्रति एक आहुति के रूप में देखें और इसलिए भगवान के आगे यह प्रार्थना है कि हमारी चेतना को आप अपने भीतर ले लें। अंतिम समय न जाने बोल पाएंगे कि नहीं? क्या परिस्थिति  होगी? समय बीतता जा रहा है और एक-एक क्षण सिमरन कर तू मेरे मना, तेरी बीती उमर हरि दरस बिना- सारी उम्र चली जाती है देखते-देखते और अंततोगत्वा एक ऐसा दिन आ जाता है-खाली हाथ इस संसार में आते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं और उपलब्धि जो होती है, कुछ नहीं रहती। इसलिए यह प्रार्थना है जिसके साथ मैं अपने भाषण को समाप्त करता हूं :

कृष्णस्त्वदीयपदपंकजपजरान्ते

अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः ।

प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः

कंठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।

 

अस्वीकरण :

उपरोक्त लेख में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं और kashmiribhatta.in उपरोक्त लेख में व्यक्त विचारों के लिए किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। लेख इसके संबंधित स्वामी या स्वामियों का है और यह साइट इस पर किसी अधिकार का दावा नहीं करती है। कॉपीराइट अधिनियम 1976 की धारा 107 के तहत कॉपीराइट अस्वीकरण, आलोचना, टिप्पणी, समाचार रिपोर्टिंग, शिक्षण, छात्रवृत्ति, शिक्षा और अनुसंधान जैसे उद्देश्यों के लिए "उचित उपयोग" किया जा सकता है। उचित उपयोग कॉपीराइट क़ानून द्वारा अनुमत उपयोग है जो अन्यथा उल्लंघनकारी हो सकता है।"

साभार:   डा० कर्ण सिंह एवम् प्रकाशन विभागः सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार