अब पृथ्वीनाथ मधुप
अब
वहां/पूर्वजों के पूर्वजों ... के पूर्वज की
सफल हुई साधना
ठौर दे बह चला
नीर/सतीसर का
हो गई पार्वती वितस्ता
कण-कण तपस्या
पावन धरा
वह स्वर्ग था!
वह स्वर्ग थाः
श्वेत चकाचौंध शिखरों बीच
जगमग हुआ/अमरेश्वर का
वसु-अभिनव बन त्रिकू फूटा
देह-देह गेह हुआ/शिव का
वह स्वर्ग था:
घाटी-दर-घाटी मिट्टी
फूल इन्द्रधनुषी
महक जिसकी/हवा बांटती
ऋचापाठरत झरने
लुटाता खुले हाथ/उजास
सूरज/मुक्त आकाश पर का...
वह स्वर्ग था
स्वर्ग अब भी?
नहीं?/ क्यों नहीं?
बेआंख-कान के बन्दों से अब ऊब
तुम्हारी/हां, तुम्हारी ओर ही
सरका रहे/प्रश्न ये धधकते! .
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साभार: पृथ्वीनाथ मधुप एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य