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कश्मीर का दर्पण है नीलमत पुराण

कश्मीर का दर्पण है नीलमत पुराण


कश्मीर का दर्पण है - नीलमत पुराण

भारत के सुदूर उत्तर में बसा प्रदेश-जम्मू व कश्मीर अपने इतिहास, संस्कृति, भूगोल और सौंदर्य के लिए विश्व प्रसिद्ध है। कश्मीर के इतिहास का अध्ययन तब तक अधूरा है जब तक पुराणों में प्रसिद्ध नीलमतपुराण का अध्ययन न किया जाए। पुराण कई हैं जिनमें अठारह महापुराण और अठारह ही पुराण हैं। पुराण का अर्थ है पुराना। इसमें कोई पुरानी कथा या उपदेश वर्णित होता है।

स्टाइन ने नीलमत पुराण का प्राचीनतम शारदा लिपि में लिखा हस्तलेख संवत् ८१ को प्राप्त किया था। इसके कुछ हस्तलेख शारदा और देवनागरी लिपियों में भी श्रीनगर की प्रताप लाइब्रेरी, जम्मू की रघुनाथ लाइब्रेरी, तथा इन्डिया ऑफिस लाइब्रेरी लन्दन में सुरक्षित हैं।

नीलमतपुराण आख्याणक शैली में १४५३ श्लोकों में लिखा संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो छठी और सातवीं शताब्दी में लिखा माना जाता है। इस पुराण में कश्मीर के नागों के राजा नील और बूढ़े ब्राह्मण चन्द्रदेव के बीच हुए वार्तालाप द्वारा वर्णित कश्मीर के जन्म से लेकर इसमें रहने वाली भिन्न-भिन्न जातियों का वर्णन, उनके धर्म रीति-रिवाज नदी-नालों के नाम, खानपान आदि का उल्लेख है। कश्मीर के प्रथम चार राजाओं-गोनन्द, दामोदर, दामोदरकी रानी यशोमती और उनके पुत्र गोनन्द द्वितीय का उल्लेख राजतरंगिणीकार कल्हण को इसी स्रोत से प्राप्त हुआ था। कल्हण पंडित को इन चार राजाओं के बाद के ३५ राजाओं की कोई सूची प्राप्त नहीं हुई जिससे 'राजतरंगिणी' में वंशावली टूट जाती हैं।

इस पुराण में वर्णित कथा को संक्षेप में दिया जा रहा है। नील पाण्डुकुल के राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय व्यास के शिष्य वैशम्पायन से पूछते हैं कि महाभारत युद्ध में कश्मीर का राजा शामिल क्यों नहीं हुआ, जबकि कश्मीर प्रदेश को न केवल भारत में अपितु सारे संसार में बड़ी प्रतिष्ठा मिली थी। वैशम्पायन उत्तर देते हैं कि कश्मीर के राजा दामोदर को कृष्ण ने गान्धार में स्वयंवर के अवसर पर युद्ध में मारा था। कश्मीर को उमा का रूप मानते हुए कृष्ण ने दामोदर की रानी यशोवती को सिंहासन पर बिठाया। वह पहले ही गर्भवती थी। उसका एक पुत्र हुआ जिसका नाम गोनन्द द्वितीय रखा गया। महाभारत युद्ध के समय गोनन्द बालक था अत: कश्मीर की ओर से युद्ध में शामिल नहीं हुआ।

कश्मीर के आदिकाल का नाम सतीसर था क्योंकि यह एक बड़ा 'सर' (झील) था। यह छठे मन्वन्तर के अन्त तक सर के रूप में ही रहा। बाद में इसके किनारों पर कश्यप ऋषि की सन्तान रहने लगी जो नाग कहलाते थे। नाग का अर्थ है-सांप, हाथी, केसर आदि। सम्भवत: नागजाति के लोग सर्पों को पूजते थे अथवा नागों के फन के समान ताज पहनते थे। कश्मीरी हिन्दू महिलाओं का 'तरंग' सर्प फन का प्रतीक है। 'तरंगी' सर का परिधान है। जिसका कलपुश और पांव तक पीछे लटकती 'पूच' सर्प का निशान है।

'सतीसर' में एक राक्षस रहता था जिसका नाम जलोदभव (जल में उत्पन्न हुआ) पड़ा। यह मनुष्य जाति का भक्षक था। लोग इससे तंग आ गये। नागों के राजा नील ने अपने पिता कश्यप के पास कनखल जाकर जलोदभव के अत्याचार की खबर सुनाई तथा इससे बचने की प्रार्थना की। कश्यप ऋषि ने सतीदेश को खबर सुनाई तथा इससे बचने की प्रार्थना की। कश्यप ऋषि सतीदेश आये तथा विष्णु की घोर तपस्या की। विष्णु ने वर मांगने को कहा। कश्यप ने अपनी सन्तानों की व्यथा सुनाई । विष्णु ने बलराम से खादनयार के स्थान पर पहाड़ काटने को कहा। बलराम ने हल जोता। पहाड़ कट गया। सतीसर का सारा पानी बह निकला। सतीसर की तलछटी जब दिखाई दी तो जलोद्भव पकड़ा गया, जिसे विष्णु ने चक्र से मार दिया।

कश्यप ऋषि ब्राह्मण आदि जातियों को भारत के मैदानी क्षेत्र से कश्मीर में बसाने के लिए लाए। कहते हैं सरस्वती नदी पर बसने वाली ब्राह्मण जाति ज्यादा संख्या में कश्मीर बसने आई और यही बाद में सारस्वत ब्राह्मण कहलाये।।

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साभार:   पृथ्वी नाथ भट्ट एवं 10 अप्रैल 1994 पाञ्चजन्य