कश्मीर के इतिहास की कथा - 66वीं किस्त
पृथ्वीनाथ भट्ट
द्यदी अपने कमरे में बैठी थीं और उनके पास उनका ज्येष्ठ पुत्र वासुदेव । बच्चे समय पर आए और दोनों के चरण छूकर कमरे में बिछाए गब्बे पर बैठ गए। द्यदी ने आशीर्वाद दिया और बताया कि बुढापे के कारण अब मैं इतिहास की कथा सुनाने में असमर्थ हू इसलिए वासुदेव अब यह कर्तव्य निभाएगा। बच्चो, यह मुझसे भी अधिक जानकार है।
वासुदेव जी ने बच्चों से ध्यान से कहानी सुनने का आग्रह किया। उनसे प्रश्न पूछा कि द्यदी ने किस राजा तक की कथा सुनाई है? सारे बच्चों ने एक स्वर से उत्तर दिया राजा कलश तक जो 1063 ई में मृत्यु को प्राप्त हुआ। शाबाश बच्चो। अब उसके बड़े पुत्र की कथा सुनो।
राजा उत्कर्ष (1690 ई) सारे मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों ने उत्कर्ष का कश्मीर के सिहासन की अतिम क्रिया करने में जुट गया। एक तरफ उत्कर्ष के सिंहासन पर बिठाने का जश्न मनाया जा रहा था तो दूसरी ओर राजा कलश के अंतिम संस्कार पर मात्मी ढोल आदि बज रहे थे।
राजा कलश की एक री पद्मश्री का पुत्र विजयमल्ला अपने भाई उत्कर्ष के सामने बैठ गया। उसने अपने खर्च के लिए राजा उत्कर्ष से उतना ही धन मांगा जो उसका पिता कलश हर्षदेव को दिया करता था। राजा ने कय्या पुत्र जयराज को खर्चा देने की घोषणा की।
तब राजा उत्कर्ष को सारे नगर में घुमाया गया परंतु लोगों ने उसका आदर सत्कार नहीं किया क्योंकि उसकी चरित्रहीनता के कारण वे उससे घृणा करते थे।
उधर हर्षवर्धन को उत्कर्ष आदि लोगों ने कारागार में डाला था। वह पिता कलश के करने पर अतीव दुखी था अतः उस दिन कुछ नहीं खाया। अगले दिन ठक्करों ने उसे भोजन करवाया। उन्होंने उसे राजा बनाने का वचन भी दिया।
बच्चो। हर्ष ने पिता के मरने पर अनशन किया। राजा हर्ष के मनवाने पर भी उसने अनशन नहीं तोड़ा। हर्ष ने अपनी अगूठी प्रयागक द्वारा पद्मश्री रानी के पुत्र विजयामल्ला को भेज दी। वह बात को समझ गया और संदेश भेजा कि मैं तुम्हें जेल से छुडवाने का पूरा प्रयास करूगा।
उधर राजा उत्कर्ष शासन के कार्य में लगा। उसने कणदर्द और अन्य मत्रियों से देश की दशा के बारे में कुछ भी पूछताछ न की।
प्यारे लाडलो! उत्कर्ष धन का लोभी था। वह रोज राजकोष में भरे रुपयों को अपने सामने तुलवाता और प्रसन्न होकर कोष को बद करवाता । जनता जनार्दन राजा के ऐसे कार्य पर असंतुष्ट थी क्योंकि वह उनकी दशा की और जरा भी ध्यान नहीं देता था। वह अपने साथ उन सैनिकों को ले गया जिन पर उसको विश्वास था । रात लवणोत्सव पर गुजारी।।
सिपाहियों में विजयमल्ला को समझाया कि से उसे पहले हर्ष को जेल से छुड़वाना चाहिए क्योंकि राजा भी यही चाहता है। विजयमल्ला शहर लौटा। डामर भी उसके साथ मिल गए राजकुमार जयराज ने भी राजा को छोड़ दिया और विजयमल्ला से मिल गया। दोनों की सेना ने नगर में आकर आतंक मचाया। विजय मल्ला की सेना ने राजा के इसतवल (हाथी घोड़ा आदि रखने का स्थान) को आग लगा दी।
अब जनता ने भी उत्कर्ष के विरुद्ध विद्रोह किया। उनहोंने सेना की सहायता से हर्षदेव को जेल में फूल चढ़ाए। राजा उत्कर्ष के भेजे हुए सैनिकों ने जेल का द्वार तोड़ दिया और हर्षवर्धन को मारने दौड़ पड़े। ।
हर्ष ने उन्हें ढक्करों को छोड़ने का आग्रह किया और दो अंगूठियों में से एक देने का वचन दिया। हर्ष ने राजा के सैनिकों को अपने पास आदर से बिठाया, उन्हें खाने का पान दिए। उन्होंने अस्त्र-शस्त्र नीचे रखे और हर्ष के व्यवहार से बहुत प्रसन्न हुए।
उत्कर्ष ने हर्ष को जेल में मारने के कई उपाय किए। सैनिक भी मारने को भेजे किंतु उसके सदव्यवहार से वे उससे प्रभावित होकर उसी का साथ देने के लिए वहीं जेल में डटे रहे।
धर विजयमल्ला अपनी सेना लेकर उत्कर्ष की सेना को हराते राजभवन पहुंचे उसका घेराव किया। बाहर के सारे द्वार बंद किए और घोषणा की कि वह राजा समेत राजभवन को अग्नि देकर सबको भस्म कर देगा। राजा सपरिवार अदर बैठा था। उसने संधि का वचन दिया और अपने दो मंत्रियों और हर्ष की पत्नीसुमला को उसे जेल से रिहा कर लाने के लिए भेजा। वहां उन्होंने हर्ष की हथकड़ियां खुलवाई और साथ लेकर राजमहल पहुचे। हर्ष अब उत्कर्ष से संधि करने ही वाला था कि विजयमल्ला ने उसे कान में कहा कि उत्कर्ष धोखेबाज है। इसका बातों में न आओ। तुम जाकर राजदरबार में खाली पड़े सिहासन पर बैठ जाओ। उसकी बात मानकर हर्ष सिंहासन पर बैठा उसकी पत्नी भी उसके बायें बैठ गई बाहर से घोषणा की राई कि आज से कश्मीर का राजा हर्ष है और उत्कर्ष को इस पद से हटाया गया। सारी जनता
खुशी से नाचने लगी और राजदरबार पहुची। प्यारे लाडलो! उधर मक्कार विजय सिह उत्कर्ष को घसीटते हुए दूसरे भवन में ले गया और आकर राजा हर्ष को उसे मारने की झूठी बात बताई। राजा हर्ष (1089-1101 ई) राजा हर्ष के राजा बनने के पश्चात उसने विजयमल्ला पर भी विश्वास नहीं किया अपितु उसे दूसरे भवन में आदर से बिठाया। उधर विजयमल्ला के सैनिक राजा के पास आए। राजा ने बुद्धि से काम लिया और विजयमल्ला को अपने पास बुलाकर उसका आदर सत्कार किया
शफ शांती जा उत्कर्ष के मंत्रियों ने जाकर उसे हर्ष को जेल से छुड़ाने पर पछतावा किया। उसको अब जीने की कोई आशा नहीं रखनी चाहिए। रात को अपनी पत्नी को लेकर वह कमरे में गया। वहा परदे के पीछे कैंची से अपना सिर काट डाला | उसकी पत्नी रक्त देखकर घबराई और आकर पति का सिर कटा देखकर बहुत रोई राजा उत्कर्ष ने केवल बाईस दिन कश्मीर पर शासन चलाया और चौबीस वर्ष का आयु में मृत्यु को प्राप्त हुआ। अगले दिन उसका दाह संस्कार किया गया।
राजा हर्षदेव ने अपने पिता कलश के उन सारे मत्रियों और अधिकारियों को सम्मानित किया और उन्हें अपने अपने पुराने पदों पर बिठा दिया।
उसने अपने बंधुओं को जिन्हें राजा उत्कर्ष ने देश से निकाला था वापस बुलाया। राजा ह दय ने उनको अपने परिवार के मानकर उनका आदर सत्कार किया। समय के बीतने के साथ बुरे पुरुषों ने विजयमल्ला को राजा के विरुद्ध कान भर दिए। यद्यपि राजा हर्षदेव ने उन्हें हर राज्यकार्य में बराबर का शरीक माना था।
कुबुद्धि वालों के कुचक्र में पड़कर विजयमल्ला ने राजा को मारने की योजना बनाई। उसने अपने अकेले महल में यज्ञ करने की घोषणा की और राजा को उसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण भेजा। राजा हर्षदेव को इस षडयंत्र की सूचना मिली। उसने अपनी सेना को सर्तक रहने का आदेश दिया। जब राजा के सैनिक तैयार हुए तो विजयमल्ला भी तुरंत आकर राजा के घोड़ों को उसके अश्वशाला ले गया।
प्यारे बच्यो| उसने राजा की सेना से युद्ध किया और नगर से भागने लगा उसने अपनी पत्नी का भी अपने साथ घोड़ों पर बिठाया और गोली की तरह भाग गया।
अचानक जोरदार वर्षा हुई। विजयमल्ला भागते हुए वितस्ता सिंधु संगम पर पहुंच गया। वहां पुल टूट चुका था। अतः वह घोड़े से उतरकर पत्नी समेत तैर कर नदी पार की। घोड़े भी नदी को पार कर उसके पास पहुंचे। वह घोड़ों पर चढ़कर दर्द देश को भाग गया। यद्यपि द्वार रक्षक ने सारे दरवाजे बंद किए थे, वह पर्वत को पार कर दरतपुरी (दर्द) देश पहुंचा। वहां दर्द के राजा विद्याधर साही ने उसका स्वागत कर उसे अपने महल में रखा। समय के बीतने पर उसके कुछ साथी वहां पहुंचे।
राजा हर्षदेव ने जब सुना कि डामर और अन्य शत्रु इकट्ठे हो रहे हैं तो उसने उनका विरोध करने के लिए बुद्धिमानों को बुलाया ।
प्यारे लाडलो! दैवी आपदा विजयमल्ला की प्रतीक्षा में थी। यह दर्द देश से चला और रास्ते में हिमखंड के नीचे दबकर मृत्युलोक को प्राप्त हुआ। उसके मरने का समाचार सुनकर राजा हर्षदेव भय छोड़कर राज्य के कार्यों में लग गया उत्कर्ष के काल में जनता ने बाल खुले छोड़े थे, सिर पर पगड़ी भी नहीं बांधते थे और कानों में बालियां पहनते थे।
राजा हर्षदेव ने जनता को नए ढंग के वस्त्र आभूषण आदि पहनने का आदेश दिया। जब उसके मंत्रियों, अधिकारियों ने ऐसा ही पहनावा अपनाया तो उनकी आरती उतरवाई गई।
उसके दरबार में सुंदर पहनावा पहनकर और तलवार लेकर आते थे जिससे दरबार सजता था। वह गायकों, संगीतकारों, नटों आदि को भी सम्मान देता था और उन्हें रुपयों से मालामाल कर देता था।
उसके दरबार में कवि, लेखक, आचार्य, विद्वान, दार्शनिक, इतिहासकार आदि इकट्झे हुए जिससे कश्मीर का नाम उज्जवल हो गया। बिल्हण जो राजा कलश के काल में कश्मीर छोड़ गया था, उसने भी राजा हर्ष की कलाकारों को सम्मान देने की बात सुनी। वह कर्णाटक के राजा का दरबारी कवि था। उसने पम्पा नाम का सर बनवाया जिसमें तरह तरह के जानवर, पशु आदि आकर रहने लगे। इसमें भांति भांति के फूल लगवाकर इसे अतीव सुंदर बनाया।
राज हर्षदेव स्वयं एक महान कवि था। उसका गीत सुनकर शत्रुओं की आंखों से भी आंसू निकलते थे। राजा दिन को कुछ समय सोता था। रात का दरबार लगता था जिसमें कवि, विद्वान, कलाकार,गीतकार संगीतकार आदि अपनी रचनाएं सुनाकर सबका हृदय प्रफुल्लित करते थे। केवल सुन्न नामक व्यक्ति जिसको राजा ने दंडनायक भी बनाया था, राजा से ईर्ष्या करता था।
राजा ने जयवन, सूर्यमुलक और विजयेश्वर को फिर से सुंदर रूप दिया और उन्हें अग्रहार (जागीर) दे दिए। भूखों, रोगियों अनाथों आदि को मुफ्त खाना मिलता था।
उसकी पत्नी बसंतलेखा ने जो साही परिवार की उसने कई मठ, अग्रहार नगर में बनवाए। पवित्र त्रिपुरेश्वर को भी सुंदर बनवाया। राजा हर्षदेव कान का कच्चा था इसलिए मंत्रियों की बातों पर बिना खोजबीन किए विश्वास करता था। राजा ने द्वारपाल कणदर्प को राजपुरा जीतने के लिए भेजा। कंदर्प ने दो आक्रमणों के पश्चात राजपुरा (राजौरी) को जीता।
बाद में कणदर्प को लोहर जीतने के लिए भेजा। राजा कणदर्प और उसके परिवार को मारना चाहता था क्योंकि उसको मंत्रियों ने कहा था कि कणदर्प कणदर्प कश्मीर का राजा बनना चाहता है। इधर कणदर्प ने लोहर को भी जीता। उसने राजा को संदेश भेजा कि वह उसके परिवार लोहर भेजे और वह परिवार लेकर बनारस जाएगा। राजा हर्षदेव ने ऐसा ही किया। कणदर्प सपरिवार बनारस गया। वहा कश्मीरियों से श्राद्ध के लिए कर लिया जाता था। उसने वहां के मुखिया को मार डाला और दूसरा नियुक्त किया। तब से कश्मीरी श्राद्ध का कर देने से बच गए। कणदर्प ने डाकुओं के सरदार को मारकर उसने पूर्वी क्षेत्र के यात्रियों को डाकुओं से बचाया। प्यारे बच्चो। राजा अपने मलिन परामर्शदाताओं द्वारा बहकाने पर अच्छे पुरुषों को शत्रु बनाता रहा।
तनवंग का पुत्र धम्मट राजा को मारकर स्वयं राजा बनना चाहता था। उसने जयराज को राजा को मारने के लिए उकसाया। जयराज ने बिलव गांव के राजा से नाराज लोगों को अपने साथ मिलाया और राजा के तीन बंदियों को भी षड़यंत्र में मिलाया। जब वह षड़यंत्र पक रहा था तो राजा ने अचानक धम्मट को राजपुरी भेजा। वह सहस्र मंगल नामक व्यक्ति से शुभ मुहूर्त देखने गया। जयराज उसे मिलने नहीं पहुंच गया। जब धम्मट और जयराज एक कमरे में राजा हर्षदेव को मारने के षड़यंत्र की बात कर रहे थे तो सहस्र मंगल का एक सेवक दीवार के पीछे छिपकर उनकी बातें सुन रहा था। उसने यह बात प्रयाग को सुनाई। वह तुरंत राजा के पास गया और सारी बात सुनाई। राजा ने धम्मट को राजपुरी जाने से रोका। राजा ने डर के मारे अपनी सुरक्षा बढ़ाई। जयराज ने अपनी असफलता से डरकर दो डामरों बाग और पाजा को बुलाया। जयराज के सेवकों ने राजा को मारे जाने से सतर्क किया। अतः उसने राज को सुरक्षाकर्मी भवन के चारों ओर लगाए । धम्मट ने जयराज को कहा कि वह राजपुरी जाने वाला है। उधर राजा अपने आपको बचाने के लिए कमरे से बाहर नहीं आया। धम्मट और जयराज दरबार में पहुंचे। प्रयाग ने राजा के आदेश अनुसार चारों ओर सुरक्षाकर्मी लगाए और धम्मट को जयराज को पकड़ने का आदेश दिया। राजा ने जयराज को मार डाला। उसने अपने कुल के सारे लोगों को भी मार डाला। प्यारे बच्चो। हर्षदेव का समय षड़यंत्रों से भरा है, यद्यपि वह अपनी ओर से गलतियां नहीं करता।
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साभार:- पृथ्वीनाथ भट्ट, एंव मार्च 2019, कॉशुर समाचार