कविता - भैया और बहना

कविता - भैया और बहना


कविता - भैया और बहना

बदरीनाथ भट्ट  

 

फूलों का पर्व, "नवरात्र", आया

बनफूल खिले अब वन महकाया।

साझ पड़ी, बच्चे किलकारे

सभी जा रहे थे, नदी के पारे।

उस पार पहाड़ी प्रफुल्ल खड़ी थी

फूलों से बेलें भी पड़ी थीं।

बच्चों की टोली दौड़ रही थी

आगे भैया, पीछे बहना थी।

देखते तरेरा उसका भैया

पार करोगी कैसे नदिया।

इक न मानी उसकी बहना,

दौड़ पड़ी वह पीछे बहना।

पार कर गए नदी को सभी

रोती-बिलखती रही बहना ही।

दौड़कर आया भैया इस पार

बाहों में ले के गया उस पार ।

पेड़ों पर चढ़ते गए बच्चे.

फूलों को तोड़ते गए बच्चे।

इक डाल टूटी, लटका भैया

बाहें पसारे चिल्लाई बहना।

गिरकर आया उसका भैया

पसी बाहों में आ गिरा।

भैया उठा. पर गिरी बहना

बेसुध देखे रोया भैया।

जागो बहना, जागो, बहना

कितना रोया उसका भैया।

उठा के बाहों में ले आया,

घर के भीतर रो के बुलाया।

धीरे-धीरे आखें खोली

कैसा हो, भैया? वह बोली।

दोनों लिपटे, दोनों रोए

इक-टक देखे, दोनों रोए।

"नवरात्र की सध्या वेला थी,

दोनों ने मिलकर "थाली" सजा दी।।

 

वह भी कूच कर गया

 

आगन में पड़ा था एक अकेला,

सब भागे थे शून्य था मेला।

आवाजें भयावह भयानक नारे.

काप उठे थे 'नाग' बेचारे ।

छाए. घने आतंक के साए,

असहाय पड़े थे सारे-सारे।

डूबा था यादों में एक-अकेला,

इक-टक देखे, घर को निहारता।

पूर्वजों की यह थी थाती,

इसकी यादें, उसके साथी।

मां और बच्चे कूच किए थे,

यह यादों को सजोए थे।

साझ ढली, पड़ोसी आया,

कांगड़ी वह भर के ले आया।

आगन में देखा, घर में निहारा,

पेड़ों के नीचे उसको पुकारा।

जाके देखा, खोया-सा था,

झझोड़ा उसको, वह सोया था।।

अस्वीकरण:

उपरोक्त लेख में व्यक्त विचार अभिजीत चक्रवर्ती के व्यक्तिगत विचार हैं और कश्मीरीभट्टा .इन उपरोक्त लेख में व्यक्तविचारों के लिए जिम्मेदार नहीं है।

साभार:-  बदरीनाथ भट्ट  एंव  2019   मार्च  कॉशुर समाचार