प्रभु श्रीनाथ की नगरी से जुड़ी कुछ अविस्मरणीय यादें

प्रभु श्रीनाथ की नगरी से जुड़ी कुछ अविस्मरणीय यादें


प्रभु श्रीनाथ की नगरी से जुड़ी कुछ अविस्मरणीय यादें

 डा शिबन कृष्ण रैणा

 

(कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद 1966 में राजस्थान लोक सेवा आयोग अजमेर द्वारा हिंदी व्याख्याता के पद पर मेरा चयन हुआ पहली पोस्टिंग भीलवाड़ा के राजकीय कॉलेज में हुयी और सालभर बाद प्रभु श्रीनाथजी की नगरी स्थित एस एम बी राजकीय कॉलेज में मेरा स्थानान्तर हुआ। 1966 से लेकर 1977 तक में इस नगर में रहा और नाथद्वारा की पावन भूमि मेरे अकादमिक और पारिवारिक उत्कर्ष की हर दृष्टि से सहचरी सिद्ध हुयी। इस पावन नगर से जुड़ी मेरी बहुमूल्य स्मृतियाँ आज भी मुझे आह्लादित और स्पन्दित करती हैं। यहाँ पर मैं इन कतिपय यादों को सिलसिलेवार तरीके से प्रस्तुत कर रहा हूँ।)

क्रिकेटर लक्ष्मण सिंह

आजकल क्रिकेट की गहमागहमी चहुँ ओर है। एक बात मुझे भी याद आ रही है। किसी जमाने में उदयपुर निवासी लक्ष्मणसिंह राजस्थान की टीम के ओपनर हुआ करते थे। वे अपनी टीम के साथ नाथद्वारा आए मैच खेलने । तब मेरी पोस्टिंग नाथद्वारा कॉलेज में ही थी। नाथद्वारा की टीम में मैं भी शामिल था। पास के कोठियारा ठिकाने के दो नवयुवक हमारी टीम की ओर से खेले थे। इनमें से एक इन्दौर यूनिवर्सिटी की क्रिकेट टीम के कप्तान रहे थे। हमारी टीम हारी जरूर थी मगर टक्कर जोरदार दी। लगभग 50 साल पहले की बात होनी चाहिये। लक्ष्मण सिंह अब इस संसार में नहीं रहे। राजस्थान, सेंट्रल जोन और शेष भारत की टाम की ओर से खेले थे।

माधव नागदा

माधव नागदा हिंदी के सुपरिचित कहानीकार है और बहुत पहले यानी सत्तर के दशक में सेठ मथुरादास बिनानी राजकीय कॉलेज, नाथद्वारा में मेरे विद्यार्थी रहे हैं। पिछले दिनों उनको कहीं से मेरा नंबर मिला और बातचीत हुई। नाथद्वारा की बातें सहपाठियों के हालचाल गुरुजनों की बातें कुल मिलाकर सत्तर के दशक की सारी बातें मेरी आँखों के सामने तैरने लगी। अच्छा लगा उनसे वार्तालाप करके लगभग 50 वर्षों के बाद शिष्य अपने गुरु को याद रखे यह बहुत बड़ी बात है। मैंने भी उन्हें दिल की गहराइयों से आशीर्वाद दिया। बातों ही बातों में उन्होंने यह समाचार भी दिया कि नाथद्वारा कॉलेज में पढ़े छात्रों ने एक एसोसिएशन बनाई है और साल में तीन-चार बार मिलते भी हैं। अभी 24 अप्रैल 22 को ये सारे उत्साही पूर्व विद्यार्थी / महानुभाव कॉलेज परिसर में मिले भी थे। सुना है मेरी चर्चा भी इन मेधावी विद्यार्थियों ने की। जितने ये गौरवान्वित है उतना मैं भी हूँ। इस अवसर पर लिए गए कुछ चित्र नागदा जी और एक अन्य विद्यार्थी ने मुझे भी भेजे हैं। फोटो में ही सही पच्चास वर्षों के बाद अपने उस कॉलेज परिसर को दुबारा देखना बहुत अच्छा लगा। 1967 से लेकर 1977 तक मैंने इस महाविद्यालय में पढ़ाया है। सभी विद्यार्थियों को एक बार पुनः आशीर्वाद ।

पुरानी मशीनरी कदे नी खरीदनी

उस जमाने में साइकिल से ही हम लोग कॉलेज जाया करते थे। स्कूटर आदि किसी विरले प्रोफेसर के पास ही हुआ करता था। याद आ रहा है कि नाथद्वारा नगरी के प्रसिद्ध चौपाटी चौराहे पर कोठारी ब्रदर्स नाम की एक साइकिल की दुकान हुआ करती थी। अपने मकान मालिक का रिफरेन्स लेकर में कोठारीजी के पास उनकी दुकान पर पहुचा। निवेदन किया कोई सैकड हेड अच्छी-सी साइकिल मिल सकती है क्या? मुझे तहसील वाले सोनीजी ने भेजा है। मैं यहाँ कॉलेज में पढाता हूँ। कोठारीजी ने आदरभाव से मुझे निहारा। फिर बोले सैकंड हैंड साइकिलें है तो सही मगर मैं आपको खरीदने की सलाह नहीं दूंगा।

क्यों भला? मैंने पूछा।

मेरी जिज्ञासा को उन बुजुर्गवार ने अपनी स्वभाषा मेवाड़ी में जिस तरीके से शांत किया उसे मैं आज तक भूला नहीं हूँ पुरानी मशीनरी कदे नहीं खरीदनी। पेंचकस पानो लारे राखणो पड़ेगा।

शॉर्ट वेब मीडियम वेव

मेरे सहयोगी अंग्रेजी के प्रोफेसर चाँदनारायण श्रीवास्तव साहब को विशेष अवसरों पर माँग सेवन का शौक था। ( श्रीवास्तव साहब अब इस संसार में नहीं रहे। कई बार मुझसे भी लेने का अनुरोध किया मगर मैं हमेशा टालता रहा। आखिर होली के दिन वे मुझे अपने साथ चौपाटी ले गए। वहा ये अपने पूर्व परिचित की ठडाई की दुकान के अंदर चले गए। मैं भी साथ में हो लिया। दुकानदर को इशारा करते हुए श्रीवास्तव साहब ने कहा दो गिलास। दुकानदार समझ गया कि आज एक और कस्टमर बढ़ गया। बोला दोनों पॉजिटिव ?" हॉ श्रीवास्तव साहब ने जवाब दिया। ठण्डाई वाला पुन बोला शार्ट वेव या मीडियम वेव? एक मीडियम और दूसरा शार्ट वेव श्रीवास्तव साहब ने समझाया। दोनों के बीच हुई सांकेतिक भाषा को मैं कुछ-कुछ समझ गया। घर पहुंचते-पहुंचते मैं सचमुच सातवें आसमान पर तैर रहा था। खूब तो मिठाई खाई और खूब नाच-गाना किया। उस दिन के बाद नाथद्वारा छूटने तक मैं जब भी चौपाटी की तरफ जाता तो यदाकदा पॉजिटिव शॉर्ट देव का आस्वादन अवश्य करता। वे भी क्या दिन थे!

माँ-साब

नाथद्वारा में मैं जिस मकान में रहा उसे सोनी बंगला कहा जाता था। बगले के मालिक सोनीजी अपना मकान किसी को भी किराये पर नहीं देते थे। साधन-सम्पन्न थे शायद इसलिए उन्हें किराये आदि की जरूरत नहीं थी। एक दिन मुझसे बोले थे 'अपना मकान मैंने आज तक किसी को किराए पर नहीं दिया पर आपको दिया। इसलिए दिया क्योंकि आपके अनुरोध में एक तड़प थी एक कशिश थी जिसने मुझे अभिभूत किया। बाबू साहब परिचय करने से होता है. पहले से कौन किसका परिचित होता है?

बा साब अब इस संसार में नहीं रहे थे। गत वर्ष दमे के जानलेवा दौरे में उनकी हृदय गति अचानक बन्द हो गई थी। मेरी ही बाहों में उन्होंने दम तोड़ा था। दस वर्षों तक इस बंगले में रहने के बाद आखिर मेरा तबादला अलवर हो गया। छोटा-मोटा सामान पैक हो गया था और बड़ा बड़ा सामान पहले ही ट्रेन से बुक कर लिया था। विदाई के क्षण बड़े ही भावपूर्ण होते हैं। मैं बस स्टैंड से रिक्शा लेकर आया। बंगले के गेट पर मेरी श्रीमतीजी दोनों बच्चे मा-साब और बुआ-साब खड़े थे। पड़ोस के मेनारिया साहब बैंक मैनेजर श्रीमाली जी तथा शर्मा दम्पति भी उनमें शामिल थे। वातावरण भावपूर्ण था। विदाई के समय प्रायः ऐसा हो ही जाता है। बच्चों को छोड़ सबकी आँखें गीली थीं। मैं जबरदस्ती अपने आँसुओं को रोके हुए था। मुझे लगा कि मा साब मुझसे कुछ कहना चाहती है। वे मेरे निकट आ गयीं और फफक कर रो दी मने भूल मती जाज्यो याद है नी बा-सा आपरी बावा में शान्त विया हा।

मा-साब को दिलासा देकर तथा सभी से आज्ञा लेकर हम रिक्शे में बैठ गए। मानवीय रिश्ते भी कितने व्यापक और कालातीत होते हैं मैं रास्ते भर सोचता रहा।

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साभार:- डॉ शिवन कृष्ण रैणा एंव जून 2023 कॉशुर समाचार