लावारिस

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 लावारिस

महाराज कृष्ण भरत

कविता

वे बेघर हो रहे थे

वे मारे काटे जा रहे थे

वे तंबू- तंबू हो रहे थे

मंदिरों की नगरी में

अपनी आस्था को बचाए

आंचल में छिपा रहे थे अपनी मिट्टी की गंध।

उन्हें क्या पता था

नगरी में घुस आया है बहरूपिया

जो बाहर से कुछ और अंदर से मटमैला था

उसने घरों की वेदना

अपनों के टूटने का सत्रास

बेचा था।

एक दिन

सदन के पटल पर

विस्थापितों की आवाज बन गया था

लोकतंत्र के फटेहाल कपड़ों में

बाहर आते ही अलग-अलग पोज दे रहा था

राजनीति की कसौटी पर

खरा उतरने के लिए

उसने अपने संन्यास को पूरा कर लिया था।

अब वह एक सदन से दूसरे सदन तक

जाने के लिए उत्सुक था

वे बेघर हो रहे थे

वे मारे काटे जा रहे थे

वे तंबू- तंबू हो रहे थे

उन्हें क्या पता था

एक दिन वह नेता बन जाएगा

माननीय कहलाएगा

फिर सांप-सीढ़ी का खेल खेलेगा!

अस्वीकरण:

उपरोक्त लेख में व्यक्त विचार अभिजीत चक्रवर्ती के व्यक्तिगत विचार हैं और कश्मीरीभट्टा .इन उपरोक्त लेख में व्यक्तविचारों के लिए जिम्मेदार नहीं है।

साभार:- महाराज कृष्ण भरत एंव जून 2023 कॉशुर समाचार