रिश्ते

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रिश्ते

डॉ० शिबन कृष्ण रैणा 

 

जिस दिन मिस्टर मजूमदार को पता चला कि उनका तबादला अन्यत्र हो गया है, उसी दिन से दोनों पति-पत्नी सामान समेटने और उसके बण्डल बनवाने, बच्चों की टीसी निकलवाने, दूधवाले, अखबार वाले आदि का हिसाब चुकता करने में लग गए थे। पन्द्रह वर्षों के सेवाकाल में यह उनका चौथा तबादला था। सम्भवत अभी तक यही वह स्थान था जहाँ पर मिस्टर मजूमदार दस वर्षों तक जमे रहे. अन्यथा दूसरी जगहों पर वे डेढ़ या दो साल से अधिक कभी नहीं रहे। मि० मजूमदार अपने काम में बड़े ही कार्यकुशल और मेहनती समझे जाते थे किन्तु महकमा उनका कुछ इस तरह का था कि तबादला होना लाजिमी था। वैसे प्रयास तो उन्होंने खूब किया था कि तबादला कुछ समय के लिए टल जाए किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली थी।

ऑफिस से मि० मजूमदार परसों रिलीव हुए थे 'लालबाग' में उनकी विदाई पार्टी हुई और आज वे इस शहर को छोड़ रहे थे। उनके बच्चे सवेरे से ही तैयार बैठे थे। श्रीमती मजूमदार ने उन्हें पन्द्रह दिन पहले ही समझा दिया था कि अब उन्हें दूसरी जगह जाना है, अब वे वहीं पर पढ़ेंगे।

सारा सामान पैक हो चुका था। मि० मजूमदार अपनी श्रीमती जी से यह कहकर बाहर चले गए कि वे रिक्शा लेकर आते हैं, तब तक वे मां-साब, बुआ साब आदि से एक बार और मिल लें।

गर्मी जोर की पड़ रही थी। मि० मजूमदार ने देखा कि 'लालगेट' पर कोई रिक्शेवाला खड़ा नहीं था। एक है जो बस स्टैण्ड तक चलने के बहुत ज्यादा पैसे मांग रहा है। मि० मजूमदार आगे बढ़े। शायद 'सुन्दर-विलास' पर कोई मिल जाए। ऑफिस आते-जाते वक्त उन्हें वहाँ छायादार पेड़ों के नीचे दो-चार रिक्शे वाले अक्सर मिल जाया करते थे। वे 'सुन्दर - विलास की तरफ बढ़े और इसी के साथ उनकी याददाश्त दस वर्ष पीछे चली गई ।

वे नए-नए इस शहर में आए थे और तब उन्हें यह शहर एक छोटा-सा, सुन्दर-सा कस्बा लगा था। देखते-ही-देखते इन दस वर्षों में इस कस्बे ने जैसे एक बड़ी छलांग लगाई हो और चारों तरफ फैलकर अपने आकार को बढा लिया हो। बगल में एक बड़ा शहर स्थित था, शायद इसलिए। वैसे, इस नगर का अपना धार्मिक महत्त्व भी कम नहीं था। जब वे दस वर्ष पूर्व इस शहर में आए थे, तब यहाँ रिक्शे नहीं चलते थे। बस स्टैण्ड से शहर तक यात्रियों को लाने-लेजाने के लिए तांगे चलते थे । बस-स्टैण्ड भी शहर के ही भीतर 'सुन्दर - विलास' के निकट था।

'सुन्दर - विलास' का नाम आते ही मि० मजूमदार को लगा कि शायद उन्होंने 'सुन्दर-विलास' को पीछे छोड़ दिया है। वे पीछे मुड़े। एक रिक्शे वाला उनकी तरफ आया-

'बस स्टैण्ड चलोगे?'

'चलेंगे, बाबूजी ।'

पैसे बोलो?"

"कितनी सवारियाँ हैं, बाबूजी ?'

"भई, मैं, मेरी श्रीमतीजी और दो छोटे बच्चे और

थोड़ा-सा सामान ।'

'दस का नोट लगेगा।"

'अरे, दस तो बहुत ज्यादा है। पाच ठीक हैं। नहीं बाबूजी, दस में एक पैसा भी कम न होगा। देख नहीं रहे, क्या गर्मी पड़ रही है।'

गर्मी वास्तव में बहुत जोर से पड़ रही थी। मि० मजूमदार ने अब रिक्शा ढूंढने के लिए और आगे बढना उचित नहीं समझा। उन्हें चार बजे की बस पकडनी थी। इस वक्त दो बज रहे थे। बडा बडा सामान सवेरे ही उन्होंने रेल से बुक करा दिया था। केवल एक अटैची और थोड़ा-सा बिस्तर उनके साथ था। रिक्शे में बैठकर उन्होंने रिक्शेवाले से कहा-

'ठीक है भाई, दे देंगे दस का नोट थोडा सामान रखवाने में मदद करना हमारी।"

रिक्शा चल दिया। चलते-चलते रिक्शे वाला बोला- 'बाबूजी, और सवारियाँ कहा से लेनी हैं ?" 'भई दूसरे मोड पर तहसील के पास 'सोनी-बंगले' से।'

'सोनी-बंगला कहते ही मि० मजूमदार फिर अतीत में खो गए।

प्रारम्भ में मकान न मिलने तक चार-पाँच दिन के लिए उन्हें एक धर्मशाला में रुकना पड़ा था। आफिस के सहयोगियों ने ज्वाइन करते ही कहा था-

'भई मजूमदार? यहाँ इस कस्बे में अच्छे मकान हैं ही नहीं। हमें देखो, बडे ही रद्दी किस्म के मकानों में रहना पड़ रहा है। दो-पांच अच्छे मकान हैं भी, तो उन्हें अफसरों ने घेर रखा है। हाँ, तहसील के पास सोनी जी का बंगला है। चाहो तो उसमें कोशिश कर लो। सुना है बंगले का मालिक अपना मकान किसी को भी किराए पर नहीं देता है। मिस्टर मजूमदार उसी दिन ऑफिस से छूटकर सीधे 'सोनी बंगले' पर गए थे। बंगले पर उनकी भेंट एक बुजुर्ग से व्यक्ति से हुई थी जिन्हें बाद में पूरे दस वर्षों तक वे 'बा- साहब' के नाम से पुकारते रहे। बा साहब ने छूटते ही पहला प्रश्न किया था-

'आप इधर के नहीं लगते हैं?"

जी हा, मैं बाहर का हूँ। रोजगार के सिलसिले में इस तरफ आ गया हूँ।' 'आपका परिवार, बाल-बच्चे?"

मकान मिल जाए तो उन्हें भी ले आऊँगा विवाह इसी वर्ष हुआ है।'

'खाते-पीते तो नहीं है?

मि० मजूमदार समझ गए थे कि उनका इशारा मास-मदिरा के सेवन से है। तुरन्त जवाब दिया-

'नहीं जी. बिल्कुल नहीं।'

'ठीक है, आप कल शाम को आ जाना, मैं सोचकर बताऊँगा।'

और अगले दिन जब शाम को मजूमदार उनसे मिलने गए तो पता चला कि 'बा-साब' ने निर्णय उनके पक्ष में दिया है। फिलहाल एक कमरा और रसोई और बाद में दो कमरे। यह समाचार 'बा-साब'' की पत्नी 'मा- साब' ने पर्दा करते हुए उन्हें दिया था।

'बा साब जवानी के दिनों में काफी मेहनती, लगनशील और जिन्दादिल स्वभाव के रहे होंगे, यह उनकी बातों से पता चलता था। चांदी के जेवर, खासकर मीनाकारी का उनका पुश्तैनी काम था । काम वे घर पर ही करते थे और इसके लिए उन्होंने पांच-छ: कारीगर भी रख छोड़े थे। यो बा- साब' के कोई कमी नहीं थी। तीन-चार मकान थे, खेत थे, समाज में प्रतिष्ठा थी। थोड़ा-बहुत लेन-देन का काम भी करते थे। बस, अगर कमी थी तो वह थी सन्तान का अभाव। इस अभाव को 'बा-साब' भीतर-ही-भीतर एक तरह से पी-से गए थे। चाहते तो वे खूब थे कि उनका यह अभाव प्रकट न हो, किन्तु उनकी आँखों में उनके मन की यह पीड़ा जब-तक झलक ही पड़ती थी। एक दिन मि० मजूमदार जब ऑफिस से घर लौटे तो क्या देखते हैं कि घर के प्रांगण में बा-साब बॉलिंग कर रहे हैं। और आशु मिया बल्ला पकडे हुए हैं। बिटिया को फील्डिंग पर लगा रखा है। एक हाथ में धोती को थामे 'बा- साब' खिलाडियों के अंदाज में बॉल फेंक रहे थे।

समय गुजरता गया और इसी के साथ मकान मालिक व किराएदार का रिश्ता सिमटता गया और उसका स्थान एक माननीय रिश्ता लेता गया। एक ऐसा रिश्ता जिसमें आर्थिक दृष्टिकोण गौण और मानवीय दृष्टिकोण प्रबल हो जाता है। वैसे, इस रिश्ते को बनाने में मजूमदार दम्पति की भी खासी भूमिका थी क्योंकि सुदृढ रिश्ते एकपक्षीय नहीं होते। उनकी नींव आपसी विश्वास और त्याग की भावनाओं पर आश्रित रहती है। पिछले आठ-दस वर्षों में यह रिश्ता नितान्त सहज और आत्मीय बन गया था।

एक दिन 'बा- साब' मूड में थे। मि० मजूमदार पूछ ही लिया था- ने

'बा-साब, उस दिन पहली बार जब मकान के सिलसिले में मैं आपके पास आया था, तो आपने बिना किसी परिचय या जान-पहचान के मुझे यह मकान कैसे किराए पर दे दिया?"

बात को याद करते हुए बा-साब बोले थे-

'आप यहाँ के नहीं थे, तभी तो मैंने आपको मकान दिया। आपको वास्तव में मकान की आवश्यकता थी, यह मैं भाँप गया था। अपना मकान मैंने आज तक किसी को किराए पर नहीं दिया, पर आपको दिया। इसलिए दिया, क्योंकि आपके अनुरोध में एक तडप थी, एक कशिश थी जिसने मुझे अभिभूत किया। बाबू साहब, परिचय करने से होता है, पहले से कौन किसका परिचित होता है?"

बा-साब अब इस संसार में नहीं रहे थे। गत वर्ष दमे के जानलेवा दौरे में उनकी हृदय गति अचानक बन्द हो गई थी। मजूमदार की बाहों में उन्होंने दम तोड़ा था।

"सोनी- बंगला आ गया साहब, रिक्शेवाले की इस बात ने मि० मजूमदार को जैसे नींद से जगा दिया। उन्होंने नजर उठाकर देखा। बंगले के गेट पर उनकी श्रीमतीजी, दोनों बच्चे, मां-साब और बुआ-साब खड़े थे। पडोस के मेनारिया साहब, बैंक मैनेजर श्रीमाली जी तथा शर्मा दम्पति भी उनमें शामिल थे। वातावरण भावपूर्ण था। विदाई के समय प्रायः ऐसा हो ही जाता है। बच्चों को छोड़ सबकी आँखें गीली थीं। मजूमदार जबरदस्ती अपने आँसुओं को रोके हुए थे। उन्हें लगा कि मां-साब उनसे कुछ कहना चाहती है। वे उनके निकट गए।

मा-साब फफककर रो दी- मने भूल मत जाज्यो। याद है नी, बा सा आपरी बावा में शान्त विया हा।'

मा-साब को दिलासा देकर तथा सभी से आज्ञा लेकर मि० मजूमदार रिक्शे में बैठ गए। | मानवीय रिश्ते भी कितने व्यापक और कालातीत होते हैं, मि० मजूमदार सोचने लगे।

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साभार:- डॉ० शिवन कृष्ण रैणा एंव दिसम्बर 2022 कॉशुर समाचार