पहेली

पहेली


कविता - पहेली

सुमित रैना  

यह कविता उस स्थिति पर आधारित है जब एक व्यक्ति (आदमी) को यह समझ नहीं आता कि वो कौन-सा कदम उठाए! कौन-सा सही है और कौन-सा गलत। इसी असमंजस की स्थिति को मैंने अंधेरे के रूप में व्यक्त किया है।

इन अधेरी गलियों में मुझे क्यों लगता है डर                                                                  इन राहों पर चलकर क्यों जिंदगी भूल जाती है डगर ।                                                      ना जाने कहा ले जाएगा मुझे जिंदगी का यह सफर,                                                     भटक कर रह जाऊंगा मैं इन गलियों में एक सवाल बनकर ।

 

खोजता हूँ अपनों को इन राहों में इधर-उधर,                                                              नहीं मिला मुझे कोई अपना अब जाऊ तो जाऊ किधर                                                      रुक जाऊ या चलते जाऊ रह गया हू इसी बात में फसकर                                                मेरी जिदगी हो जाएगी इन्हीं गलियों में दफन डरता हू यही सोचकर ।

 

दम घुटता है मेरा इस अंधेरे में अब क्या करना जिंदगी में जीकर,                                      जी चाहता है यहीं गिर जाऊ दो बोतल शराब पीकर ।                                                       फिर चल पड़ा हू अपने सफर पर मगर लडखड़ाकर,                                                 अब एहसास हुआ गलती की मैंने शराब के नशे में डूबकर |

 

ऐसी जिंदगी लगने लगी है मुझे अनचाहा जहर,

जिंदगी पड़ी है अभी बहुत सारी इसीलिए क्या करू अभी मरकर

जिंदगी जीनी है मुझे तो क्या मिलेगा मुझे जिंदगी से रूठकर,

आगे बढ़ते जाना है मुझे हर जंजीर को तोडकर |

 

इन राहों पर चलकर मुझे कहीं न कहीं लगेगी जरूर ठोकर,

लग जाएगी मुझे एक नई चोट पर उस दर्द को सहना होगा मुझे हंसकर ।

पूछना चाहता हूं उस ईश्वर से क्या मिला आपको मेरा चैन छीनकर,

रास्ता फिर भी नहीं मिलेगा मुझे इन सभी मुश्किलों को सहकर ।

 

मुश्किलें आती नहीं किसी को पहले ही बताकर,

सर रखने के लिए जब कंधा न मिले तो क्या फायदा ऐसे में आंसू बहाकर ।

रास्ता न मिलने के गम में दिल बिखर जाएगा शीशे की तरह टूटकर,

आगे बढ़ते रहना है मुझे हर जंजीर को तोड़कर ।

 

अंधेरी गलियों में नहीं पता लगता यह कौन-सा है पहर,

निकल जाऊं मैं यहां से जल्द से जल्द अगर रब की हो जाए मुझ पर मेहर।

अब तो यही चाहता हूं मिल जाए मुझे मेरी हमसफ़र कहीं पर,

ताकि निकाल सकें हम इस भूल-भुलैया का रास्ता साथ मिलकर ।।

 

अस्वीकरण:

उपरोक्त लेख में व्यक्त विचार अभिजीत चक्रवर्ती के व्यक्तिगत विचार हैं और कश्मीरीभट्टा .इन उपरोक्त लेख में व्यक्तविचारों के लिए जिम्मेदार नहीं है।

साभार:- सुमित रैना एंव कौशुर समाचार, जनवरी, 2009