कहानी - काँगड़ी वाला

कहानी - काँगड़ी वाला


कहानी - काँगड़ी वाला

बदरीनाथ भट्ट

पूस का महीना था, दिन के चार बज चुके थे। आज बर्फ काफी गिर चुकी थी, और भी जोरों से गिरती जा रही थी। मैं घर की ऊपरी मंजिल की खिड़की पर बैठा था और किताब सामने खुली रह गई थी। मैं बाहर गिरती बर्फ को निहारता जा रहा था। बर्फ तिरती, थिरकती चारों ओर से घिर-घिर कर आ रही थी दूर पेड़ों की डालियां आंगन की घनी झाड़ियां पूरी लदी थीं-बर्फीले फूलों के भार से बाहर सब कुछ बदता जा रहा था, भीतर अपार उल्लास उमड़ रहा था। जी करता था कि सारी बर्फीली बहार लूट लूं इस पर खूब लोटू…..

"कांगडी लोगी, अम्मा?" इस आवाज से मेरी कल्पना टूट गई। आंगन में देखा तो दस-ग्यारह बरस का एक लड़का हाथ में एक कांगडी लिए हुआ था। मां निचली मंजिल की खिड़की पर बैठी उससे दाम पूछने लगी।

"बारह आने में बेच डाली, तुम दस ही आने दो, एक ही बची है।"

"आठ आने देंगे" मैंने ऊपर से आवाज दी। उसने मेरी ओर देखा।

"दोगे?" मैंने पूछा, पर वह मेरी ओर देखता रहा, फिर कांगड़ी मां के हाथों में थमा दी। अठन्नी मैंने उसकी चादर के फैलाये आंचल में डाल दी। उसने अठन्नी उठाई, पर एक बार फिर मेरी ओर देखा और तब बर्फ में लंबे-लंबे पग बढ़ाता चला गया। मैंने उसको जाते देखा-पैरों में "पुलहोर पहना था. मटमैली ऊनी चादर ओढे था और चादर पर काफी बर्फ जम चुकी थी।

मैं फिर गिरती बर्फ को निहारने लगा, पर अब उड़ान लगाए न लगी। आंखों के सामने बर्फ से लिपटा छोटा कांगड़ी वाला हटने न पाया उसने जाते-जाते मेरी ओर देखा । कितना भोला था उसका मुखड़ा। पर उस पर पीलापन छाया था और उसमें एक कंपन सी छाई थी। उसने बेबस आखों से देखा मुझको यही चित्र मन में आया और मन इतना विचलित हुआ जैसे झंझावा आया जिससे झील हिलोर उठी। अब मुझसे रहा न गया। जुराबें और बूट पहन लिए और ऊनी चादर ओढ़ कर घर से निकल पड़ा। छोटे कांगड़ी वाले को जाते देखा था, वही रास्ता लिया। वह एक पगडंडी थी जो गांव को छोड़कर "यारवन" को जाती थी। वहीं कांगड़ी वालों का गांव था ।

बर्फ गिरती जा रही थी। इस पगडंडी पर आज इक्का-दुक्का ही चला था। बर्फ में रास्ता न था, पैर बर्फ में धंस रहे थे। शायद यहीं से वह आया था और चला भी गया था। पर पैरों के क्या निशान थे-छोटे-छोटे गड्ढे जिनको तेज बर्फ भरती जा रही थी।

लंबे-लंबे पग बढ़ाता मैं जा रहा था। कुछ ही क्षणों में मैं हांपने-सा लगा। कुछ दूर तक पैरों के छोटे-छोटे गड्ढे बर्फ में दिखाई दिए। आगे देखा-पगडंडी समतल चादर ओढ़े सोई थी। चारों ओर देखा, दिशायें धुंधली-धुंवली थीं, कोई दिखाई न दिया, जोरों से पुकारा, पर गूंज भी न हुई। बर्फीले तूफान में सब कुछ दबता जा रहा था, सब कुछ सिकुड़ता जा रहा था। कुछ देर रूककर देखता रहा, सोचने लगा-"यहां तक वह आया, फिर कहां गया?" कुछ भी निश्चित न हो पाया।

मैं वहां से लौट आया। मन को रह-रह कर यह ग्लानि बींधती जा रही थी "कांगड़ी वाले ने मेरी ओर बेबस नजरों से देखा, पर मैं रोक न पाया पैसे भी कितने दिए मैंने! वह सर्दी से काप रहा था. इतनी बर्फ में इतना छोटा दूर से अकेले आया। शायद घर में कोई बड़ा न था । "यही सोचते-सोचते मैं घर के भीतर आया, देखा, दीये के धीमे प्रकाश में, निचली मंजिल के कमरे में, कोने में मां चरखा कात रही है। मुझे आते देख वह कुछ रूक गई।

"इतनी देर तक इस शीतकाल में क्यों फिरता रहता है?" मा चिंतित स्वर में कह उठी। "अभी सवेरा है, मा! भारी बर्फबारी के कारण तुम्हें ऐसा लगता है।"

"देखो न, अकेली को सूनापन काटने लगता है।" "तुम तो साल भर अकेली रहती हो, मैं कॉलेज की इन छुट्टियों के सिवा कब यहां आता हू?"

"तब भी तुम्हारे बिना वह घर सूना-सूना सा लगता है.

तू तो शिशिर काल के इन बर्फीले तूफानों में वीरानों में घूमता फिरता रहता है।"

मा ने ठीक ही कहा। सचमुच मैं हर मौसम में बसत में, बरसात की बौछारों में या शीतकाल के तूफानों में प्रकृति की विभिन्न मुद्राओं को निहारता फिरता रहता था और एक अपार आनंद पाता था, पर आज वह बात न थी, आज जैसे जीवन की सारी संवेदना दूर से पुकार रही थी। सुनकर ढूंढने निकला था, पर पा न सका था। हृदय में एक अथाह हूक समा गई थी। पर मैं मा की शका को ताड गया उसकी आशा का एकमात्र दीप किसी झोंके से बुझ न पाए, आंचल में छिपाये-छिपाये जलाये रखने की साध थी उसमें वह चरखा छोड़कर उठी। गरम कांगड़ी लाकर मुझे दे दी और सामने बैठ गई। तब मैंने मां से पूछा, मां, तुमने उस छोटे कागडी वाले को फिर तो नहीं देखा?"

"नहीं रे, बेटा, क्यों, क्या बात है?"

"मा, जब वह यहां आया, वह सर्दी से काप रहा था।

मैंने उसको खूब दूढा? पर वह कहीं न मिला। मैंने तभी रोक लिया होता।"

"रोक लेना था" मां ने सहमति के स्वर में कहा। फिर वह उठकर चौके के भीतर गई और गरम-गरम चावल परोस कर लाई। खाना खाकर में कागड़ी पर हाथ सेंकता गया और कांगड़ी वाले का कंपन-भरा चेहरा आंखों के सामने फिर थिरकने लगा। तभी मेरा ध्यान उचट गया, किसी ने दरवाजा खटखटाया। मां उठी उसने दरवाजा खोला, यह पड़ोस का रहीम चाचा था और छोटा कांगड़ी वाला उसके साथ था। देखकर मैं भौंचक्का रह गया, मैं कुछ क्षण दोनों को देखता रहा । तभी मां ने उनको भीतर बुलाया। मैंने रहीम चाचा से पूछा: "चाचा, तुम इसको कहां से ले आए?"

"मैं सांझ की नमाज पढ़ने मस्जिद गया था, वहीं इसको देखा। यह सर्दी और बुखार से कांप रहा था। मैं इसको अपने साथ ले आया। यहां से जाते-जाते सोचा कि तुम्हारे पास बुखार की कोई टिकिया होगी, इसीलिए। दरवाजा खटखटाया।"

"चाचा, टिकिया मैं दूंगा, पर यह यहीं रहेगा। हम इसे तभी से ढूंढ रहे थे जबसे हमने इसको देखा। यह आज ही हमें एक कागडी दे गया।"

मां भी कह उठी "मुन्ने ने इसे खूब ढूंढा, पर यह कहीं न मिला। तुमने अच्छा किया कि इसे अपने साथ ले आए, बेचारा मस्जिद में सर्दी से सुन्न पड़ जाता, उस पर इसे बुखार भी है।"

तब रहीम चाचा जाने लगे और कांगड़ी वाले को अपने साथ ले जाने का आग्रह किया, पर मां ने एक न मानी। फिर कागड़ी वाला हमारे ही यहां ठहरा।

मां ने छोटे कागडी वाले को गरम कांगड़ी दी और झट समावार में कहवा बना लिया। गरम कहवे की दो प्यालिया दवाई के साथ उसे पिला दीं। वह आश्वस्त होकर बिस्तरे में लेटा ।

मैं उससे घर की बहुत सारी बातें पूछता गया और वह अपनी कहानी सुनाता गया। सुनाते-सुनाते उसकी आख लग गई और मैं छोटे कागड़ी वाले के विचारों में खो गया. बर्फ गिर रही थी, घुप्प अंधेरा छाया था, वन के बीहड़ मार्ग पर छोटा कांगड़ी वाला जा रहा था, गिरने लगता था, पर आने को सभालता जा रहा था-किसी के मिलन की आस लड़खड़ाती टागों को संभालती जा रही थी सन्नाटा छाया था, दूर गीदड़ों की चीत्कारें सुनाई दे रही थीं, पर वह आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था।.

छोटे कागड़ी वाले की मां टिमटिमाते दीये तले बैठी बड़ी चिंतामग्न थी, उठकर आहट लेती थी... किसी पेड़ की डाल बर्फ के बोझ तले टूटकर सन्नाटे में तहलका मचा देती थी और मा सिहर उठती थी। वह दीये को दोनों हाथों में छिपाकर बाहर आती थी। बाहर तेज बर्फ गिरती जा रही थी। तभी एक तेज चीख सुनाई दी। वह दीया लिए बर्फ में दौड़ पड़ी, वहीं बर्फ में छोटा कांगडी वाला पड़ा था, वह चीख उठी और मैं चौंक उठा देखा तो कमरे में सन्नाटा था, दीया बुझ चुका था और छोटा कांगड़ी वाला मेरे पास मस्त सो रहा था।

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साभार:- बदरीनाथ भट्ट एंव कौशुर समाचार, जनवरी, 2009