धरोहर - श्री कृष्ण और कश्मीर
कुलदीप दुस्सू "पम्पोश"
कश्मीर सदियों से ही शैवमत का एक प्रमुख केंद्र रहा है। यहां के शैव दर्शन ने विश्व के कोने-कोने से मनीषियों को आकृष्ट किया है। शिव और शक्ति का अद्भुत संगम यहां की पहचान रही है। शिव कश्मीरी पंडित का आराध्य देव है। शिव यहां के कण-कण में बसे हैं। शायद यही कारण है कि कश्मीर में अन्य देवी-देवताओं को, जिनमें श्री राम और भगवान कृष्ण भी शामिल है, वह स्थान नहीं मिला जो उन्हें देश के किसी अन्य क्षेत्र में प्राप्त है। प्राचीन धार्मिक क्षेत्र होने के बावजूद भी कश्मीर में कोई भी पुरातन राम मंदिर या राधा-कृष्ण मंदिर देखने को नहीं मिलता। हालांकि डोगरा शासनकाल में जम्मू-कश्मीर राज्य के कई क्षेत्रों में श्री राम और राधा-कृष्ण मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनमें श्रीनगर और जम्मू में बनाए रघुनाथ मंदिर और पुछ क्षेत्र के कुछ एक राधा-कृष्ण मंदिर प्रमुख हैं लेकिन इन इक्का-दुक्का उदाहरणों को छोड दिया जाए तो पता चलता है कि श्री राम और भगवान कृष्ण के मंदिरों के मामले में कश्मीर अछूता ही रहा है।
हालांकि यदि इतिहास की बात की जाए तो श्री कृष्ण का कश्मीर से बहुत पुराना संबंध है। वह श्री कृष्ण ही थे जिन्होंने विश्व की पहली महिला शासक यशोमती देवी को कश्मीर के सिंहासन पर बिठा दिया। जिसका उल्लेख महान इतिहासकार कल्हण ने अपनी कृति राजतरंगिणी में किया है। बात महाभारत काल की है. जब कश्मीर के महान युवराज बाहुबली गोनंद ने श्री कृष्ण की सेना से लोहा लिया था। दरअसल जरासंध और यादवों के बीच युद्ध छिड़ा हुआ था। गोनंद अपनी विशाल सेना लेकर श्री कृष्ण की नगरी मथुरा पहुंचा और मथुरा को चारों ओर से घेर लिया। गोनंद ने यादव वीरों को नाकों चने चबवाए। यादव वीरों की हताशा देख श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने गोनंद को युद्ध के लिए ललकारा। गोनंद बलराम के समान ही बलशाली था। दोनों वीरों के बीच लंबे समय तक भयंकर युद्ध हुआ और आखिरकार गोनंद वीरगति को प्राप्त हुआ। कुछ समय पश्चात गांधार नरेश ने अपनी से कन्याओं के स्वयंवर में यादव वीरों व को आमंत्रित किया। इसे सुअवसर जान गोनद के पुत्र और कश्मीर के नये नरेश दामोदर ने अपने पिता गोनंद की हत्या का बदला लेने के लिए गांधार पर आक्रमण कर दिया। मगर दामोदर का सामना श्री कृष्ण से हुआ, जिन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से दामोदर का शीश धड़ से अलग कर दिया। श्री कृष्ण ने दामोदर को मारने के बाद कश्मीर राज्य को अपने अधीन नहीं किया, बल्कि दामोदर की गर्भवती पत्नी यशोमती देवी को कश्मीर के सिंहासन पर आसीन कर दिया। लेकिन इस बात से श्री कृष्ण के कुछ मंत्रीगण नाराज हो गए। तब श्री कृष्ण ने कुछ पौराणिक श्लोकों का प्रमाण देते हुए अपने मंत्रियों को इस प्रकार समझाया कश्मीर देश पार्वती का स्वरूप है और वहां के राजा साक्षात शिव हैं. अतएव दुष्ट होने पर भी वह कल्याणेछुक विद्वानों के लिए पूजनीय है । (राजतरंगिणी श्लोक 57 से 71 तक)
कश्मीर का उल्लेख महाभारत ग्रंथ में भी है। महाभारत में पांचाल नरेश का जिक्र है, जोकि पाचाली या द्रोपदी के पिता थे। कई इतिहासकारों का मानना है कि पांचाल नरेश पीर पंचाल श्रृंखला के पहले शासक थे। पीर पंचाल श्रृंखला किश्तवाड़ से पाकिस्तान अधिकृत मुज्जफराबाद तक फैली हुई है। ऐसा भी माना जाता है कि पांडवों ने इंद्रप्रस्त मिलने के बाद जो अश्वमेध यज्ञ किया था, उस यज्ञ को कराने के लिए विद्वान ब्राह्मणों को कश्मीर से ही बुलाया गया था।
इस बात के कई प्रमाण मिलते हैं जहां श्री कृष्ण का कश्मीर से सीधा जुड़ाव नजर आता है लेकिन फिर भी कश्मीर में हमेशा से शैवमत ही हावी रहा। शिव भक्ति के अपने पारंपरिक स्वरूप को कश्मीर ने हमेशा बरकरार रखा। लेकिन इस बात का यह मतलब नहीं कि कश्मीरी पंडितों ने कभी कृष्ण भक्ति को स्थान नहीं दिया। शैवदर्शन के महान विद्वान श्री अभिनव गुप्त ने श्रीमद्भगवत गीता का आलौकिक वर्णन किया है। अभिनव गुप्त के बाद कश्मीर के एक और संस्कृत विद्वान, क्षेमेन्द्र ने भी श्री कृष्ण के चरित्र को अपनी कृति, दशावतार चरित्र, में बखूबी प्रस्तुत किया। वीं शताब्दी के महान कश्मीरी शासक अवतीवर्मन के बारे में भी कहा जाता है कि उन्होंने श्रीमदभगवत गीता का श्रवण करने के बाद निर्वाण प्राप्त किया था। आधुनिक काल की बात की जाए तो कश्मीर के कई भक्ति कवियों ने श्री कृष्ण को अपना आराध्य बनाया। इनमें श्री परमानद जी, श्री कृष्णजू राजान, वनपुह के राधास्वामी संत श्री गोविंद जी और हरिहर कल्याण के रचयता श्री हरिहर कौल, श्री महादेव भान जी और श्री मोहनलाल ठुस्सू (कोपूर) प्रमुख है।
कश्मीरी पंडितों की संस्कृति में कुछेक त्यौहार जो प्रमुखता से मनाए जाते हैं. उनमें एक प्रमुख त्यौहार जन्माष्टमी का भी है। जन्माष्टमी को कश्मीरी पंडित जर्मसतम के नाम से जानते हैं और भाद्रपद कृष्णपक्ष की सप्तमी को ही श्री कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है। सप्तमी के दिन ही श्री कृष्ण का जन्मोत्सव मनाने की रीति है जिसका एक कारण इस प्रकार से है..
श्री राम के विपरीत श्री कृष्ण का अवतार ऋषियों मुनियों और योगीजनों के अथक प्रयासों, व्रतों और तपस्याओं के बाद हुआ। श्री कृष्ण के अवतार के लिए लोगों ने बहुत इजतान किया। मान्यताओं के अनुसार सभी ऋषि-मुनि और ज्ञानी जन जानते थे कि श्री कृष्ण का अवतार कब होगा। भाद्रपद कृष्ण पक्ष सप्तमी की अर्धरात्री में जब श्री कृष्ण का अवतार हुआ, तब उनके पिता, वासुदेव जी, श्री कृष्ण को नन्दलाल जी के घर ले गए। जहा योगवश उसी समय नन्दलाल जी की पुत्री का भी जन्म हुआ था। वासुदेव जी ने श्री कृष्ण को नन्दलाल जी को सौंप उनकी पुत्री माया को अपने साथ ले आए। अब नन्दलाल जी के घर पुत्र हुआ है, ये खबर लोगों को अगले दिन सुबह पता चली। यानि लोगों को नन्दलाल जी के घर पुत्र होने की खबर भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को हुई। पूरे नन्दगांव में उत्सव मनाया गया और इस प्रकार श्री कृष्ण का जन्मोत्सव अष्टमी को मनाया जाने लगा। यहां इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि धर्मशास्त्र के अनुसार नये दिन की शुरूआत मध्यरात्री को नहीं, बल्कि सूर्य उदय के साथ होती है। पूरा एक दिन सूर्य उदय से लेकर दूसरे सूर्य उदय तक माना जाता है। इस प्रकार मध्य रात्री में हुए श्री कृष्ण के अवतार का पर्व सप्तमी को ही मनाए जाने का विधान है जिसे कश्मीरी पंडित आज भी जर्म सत्म के रूप में पूरी श्रद्धा और भक्मि के साथ मनाते हैं। श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का उल्लेख नीलगत पुराण में भी मिलता है। नीलमत पुराण के 716वें श्लोक से लेकर 722वें श्लोक तक इसका वर्णन मिलता है कि कश्मीरी पंडित इस पर्व को कैसे मनाया करते थे। ऐसा उल्लेख है कि लोग श्री कृष्ण, राध देवकी तथा यशोदा की प्रतिमाओं की पूजा किया करते थे और अगले दिन प्रातः नदी में इन प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता था। घर से नदी तक ले जाते समय स्त्री-पुरुष नाचते हुए भजन कीर्तन करते थे। इस दिन पूर्ण व्रत रखा जाता था और केवल जौ, गन्ने, काली मिर्च और घी का सेवन किया जाता था। पलायन से पहले कश्मीर में श्री कृष्ण जन्मोत्सव बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता था। जर्मसत्म से लगभग पंद्रह दिन पहले से ही प्रभात फेरी निकानी जाती थी जिसमें कुछ लोग मंदिर में इकट्ठा होकर संकीर्तन करते हुए निकल पड़ते। यह प्रभात फेरी हर पंडित के घर के सामने रुकती और ही घर में से एक या दो लोग इस दल में शामिल हो जाता। इस प्रकार ये प्रभात फेरी श्री कृष्ण भक्तों के बड़े टोले में बदल जाती। नाम कीर्तन कर यह प्रभात फेरी दो-तीन घंटों के बाद फिर उसी मंदिर में पहुंचकर विराम ले लेती। जन्मोत्सव के उपलक्ष्य पर भगवान श्री कृष्ण के जीवन संबधी कथाओं का नाटक के रूप में मंचन किया जाता और भगवान की विशाल झांकियां निकाली जातीं। भगवान श्री कृष्ण की इन झांकियों को वीदभगवान कहा जाता था। इस अवसर पर लोग श्रीनगर में इश्वर के समीप गुप्तगंगा में स्नान किया करते थे और फिर ऊची पहाड़ों में स्थित सुरेश्वरी में जाकर पूजा करते थे। डोगरा शासन के दौरान हारीपर्वत के किल्ले से हवा में गोली या छोटी तोप चलाकर जन्माष्टमी के व्रत के शुरू होने का संदेश दिया जाता था। गोया कि शिव के अनुयायी होने के बाद भी कश्मीरी पंडितों ने श्री कृष्ण को बराबरी का स्थान दिया। पलायन के बाद कश्मीरी पंडित देश के विभिन्न कोनों में जा बसे लेकिन जर्मसत्म की परंपरा को वे आज भी उसी श्रद्धा और भक्ति से निर्वाह करते आ रहे हैं।
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साभार:- कुलदीप दुस्सू "पम्पोश एंव कौशुर समाचार, जनवरी, 2009