नीलमत पुराण -15 Part

नीलमत पुराण -15 Part


नीलमत पुराण (15 Part)

पृथ्वीनाथ भट्ट  

पूर्व से संबंधितः चार युगों तक कश्मीर घाटी में सामान्य रूप से लोग अपनी-अपनी पद्धति एवं कश्यप ऋषि के आदेशों का पालन करते रहे। कोई विचित्र घटना घटी हो ऐसा कोई आभास नहीं मिलता। मनुष्य तथा पिशाच जातियों के लोग क्रम से घाटी में आकर निश्चित समय तक रहते और फिर अपने क्षेत्रों को चले जाते। आपसी वैमनस्य या टकराव का कोई इशारा नहीं मिलता। नागों, मनुष्यों और पिशाचों का मेल जोल बढ़ा ही होगा इसमें कोई संदेह नहीं। कोई कश्यप ऋषि अथवा नील नाग राजा के आदेशों का उल्लंघन कैसे करता। वह दंड का भोगी होता। संभव है आपस में रिश्ते भी हुए होते। एक-दूसरे के तीज-त्यौहारों, शोक-हर्ष में भाग भी लिया करते। यह कोई असंभव बात नहीं। नागराय और हीमाल एक सबूत है।

एक दिन एक घटना घटी जिसने घाटी की जीवन पद्धति तथा मर्यादा को बदल दिया। चंद्रदेव नाम का बूढा ब्राह्मण वृद्धावस्था तथा भाग्य में लिखी होनी के कारण वापस मैदानी क्षेत्र में अपने परिजनों के साथ न जा सका। पिशाचों ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया। उसे बर्फ और सर्दी ने भी व्याकुल कर दिया। अनमना घर से निकलकर घूमने लगा। घूमते-घूमते वह नागराज नील के दरबार में पहुंचा। राजा सिंहासन पर विराजमान था। नौकर नौकरानियां राजा की सेवाशुश्रषा में लगी थी। राजा का ताज सात सौ सर्पों के फनों के समान तेजोमय था। इस में रत्नजड़ित थे। राजा सुरमे के समान काला था, हृष्ट पुष्ट एवं बलवान था। चीनी रेशम का कपड़ा शरीर पर धारण किया था। छोटी-छोटी घंटाओं की मालाएं पहनी थीं।

चन्द्रदेव ने राजा को प्रणाम किया। उसको अपना परिचय दिया। फिर यथायोग्य नागराज नील की भूरि-भूरि

प्रशंसा करने लगा। इसका थोड़ा वर्णन इससे पहले के अंक में आया है शेष वर्णन प्रस्तुत है।

दृष्टो मया हेतुभिरापतन्तं

सर्वस्वजन्तोर्वससे यतोऽद्य।

स्मृतस्ततो मोक्षय मेऽतिदुः खात्

त्रयस्य विप्रस्य नमो नरेन्द्र ।। 356

 

यूं तो आप सब जीवों में रहते हैं पर मेरे विचार में आप किसी विशेष कारण से मेरे सामने प्रत्यक्ष रूप में हैं। मैंने आपको याद किया, कृपया मुझे गहन कष्ट से मुक्ति दिलायें। आपको नमस्कार हो। हे नागराज, मुझ ब्राह्मण की रक्षा करें।

त्वं नील नीरीचचय प्रकाशो

विराजले विष्णुरिवामरेशः ।

विधेर्विधाता रमसे यमेशं

त्वं वासुदेव प्रणतः सदैव 357

हे नील, आप अनन्त जलप्रवाहों के समान प्रकाशमय हैं। तथा देवताओं (अमर) के स्वामी विष्णु की भांति विराजमान हैं। आप विधाता के विधाता हैं, आप यम के स्वामी की संगति में रहते हैं। आप सदा वासुदेव को प्रणाम करते हैं।

नोट: भगवान विष्णु शेषनाग पर वास करते हैं। नागराज भगवान शिव की ग्रीवा के परिधान हैं। जब यमुना में गेंद डूब गई तो वासुदेव (कृष्ण) काली नाग के फन पर चढ़कर गेंद लेके नदी से बाहर आये थे। त्वां नील नीलाम्बर नीलनेत्र,

आकाशवत् सर्वगतम् सुरेशं ।

ध्यात्वा नरो योऽप्यजितेन्द्रियो वा

नागेन्द्र मुच्येत तब प्रसादात् ॥

हे नील, आपके नीले वस्त्र हैं,

नीली आंखें है, आप 358

आकाश के समान सर्वव्यापी हैं। जिस व्यक्ति ने अपनी इन्द्रियों को वश में न किया हो, वह भी यदि आपका ध्यान करेगा तो हे नागराज, आपकी कृपा से अवश्य मुक्ति प्राप्त करेगा।

नील त्वामेव वेदार्थे जगुर्वेदाः सनातनम्।

ध्येयं वह्नौ मुमुक्षणां कामिनां यार्थसाधनम्।। 359

हे नील, वेदों ने आपको सनातन कहा है। अग्नि में पूजा करने से मुक्ति चाहने वालों को मुक्ति तथा कामना की सिद्धि चाहने वालों को सिद्धि प्राप्त होती है।

त्वत्प्रकाश यतो ब्रह्म निष्कलं निर्मल परम।

सूक्ष्मतो व्योमनिर्दिष्टं सर्वगात्रैरकृत्रिमम्।। 360

आपके प्रकाश से ब्रह्म अविभाज्य, शुद्ध तथा महानतम है। सूक्ष्मता के कारण यह व्योम कहलाता है। इसके शरीर के सारे अंग नैसर्गिक हैं।

नोट: ईश्वर शेष नाग पर विराजमान रहते हैं। इसके हजारों फन ईश्वर के सिर के ऊपर दैदीप्यमान होते हैं। इसी कारण बह्य अविभाज्य, निर्मल एवं स्वाभाविक हैं।

अकिञ्चन्यावदस्तत्वमतिसूक्ष्मस्य नोपृषो

अर्थाश्रयान् महार्थत्वं तव तस्याक्षरस्य च।। 361

हे अकिञ्चन, आप भी उस अत्यंत सूक्ष्म ब्रह्म की व्याख्या नहीं कर पाए हैं। आप सभी तत्वों के आसरे हैं। आप उस ईश्वर तथा अपने शरीर के महान तत्व कहे गए है।

कडू पुत्रसहस्त्रेण नागराजेन्द्र शोभिता

त्वया तु राजतेऽत्यर्थं विष्णुनैवादितिर्यथा ।। 362

नागों के राजा नील, कद्रू अपने हजार बेटों के कारण आपके पास उसी भांति शोभायमान है जिस प्रकार अदिति विष्णु के सान्निध्य में बैठकर अत्यंत शोभायमान लग रही थी।

त्वमेव तपसात्यर्थं तथा विद्योतसे प्रभो।

तोयं हिमं शीकरं च तथा मुञ्चति धार्मिक।। 363

हे स्वामी, आप ही तपस्या के प्रभाव से इतने जगमगाते हैं। धर्मात्मा शरीर, बर्फ तथा सर्दी से मुक्ति पाने के लिए कटिबद्ध है।

प्रजापतिः कश्यपो हि सर्वभूतपिता प्रभो।

त्वया तु शोभतेऽत्यर्थ पुत्रेणात्यन्तधार्मिक। 364

चंद्रदेव ब्राह्मण नागराज नील की प्रशंसा करते हुए कहते हैं: हे अत्यंत धर्मात्मा राजा, प्रजापति कश्यप जो सब जीवों के स्वामी हैं, आप जैसे पुत्र से बहुत शोभनीय है अर्थात भाग्यशाली है।

365 त्वयि धर्मश्च सत्यं च क्षमा च सततं प्रभो।

देवासुरविमर्देषु शतशोऽथ सहस्रशः ।। 365

 

हे स्वामी, आप में धर्म, सत्य तथा क्षमा सदा सर्वदा विद्यमान है। आपने देवताओं और असुरों के युद्धों में सैकड़ों तथा हजारों असुरों का वध किया है।

 

त्वया विनिहता दैत्या देवब्राह्मणकण्टकाः

वरदस्त्वं वरेण्यश्च सुरारिबलहा प्रभो।। 366

हे स्वामी, आपने उन दैत्यों का वध किया है जो देवताओं और ब्राह्मणों के लिए काटे बने थे। आप वरदाता हैं, पूजनीय हैं, देवताओ की शत्रुसेना के मारने वाले हैं।

भक्तानुकम्पी भवतश्च देवदेने जनार्दवे ।

तस्यातिदयितश्चासि यथा नागः स वासुकिः ।। 367

 

आप अपने भक्तों पर दया करने वाले हैं, आप देवों के देव जनार्दन के भक्त है। जिस तरह वासुकि नाग उनके प्रिय हैं उसी तरह आप भी उनके अति प्रिय हैं।

धनदस्ते सखा नाग यथा शर्वस्य नित्यदा।

धनदश्चासि भक्तानां धनेश इति विश्रुतः ।। 368

 

हे नाग, धनद (धन देने वाला) पर्वत आपका सर्वदा वैसा ही मित्र है जैसा शिव का धन का स्वामी होने से आप भक्तों को धन देते हैं।

नोट: नागराज नील की जहां राजधानी थी उसके समीप का पर्वत धनद कहलाता था। यह वही पर्वत है।

जिसके दामन में बेरीनाग है, यह पीरपंचाल पर्वतमाला का एक भाग है और जवाहर टनल के दायें तीन

किलोमीटर पूर्व की ओर है।

नागानां त्वं गति नित्यं देवानामिव वासवः

भक्तिमानस्मि ते नित्यं तच्च जानासि धार्मिक ।। 369

 

जिस प्रकार देवता नित्य ही देवताओं के आश्रयदाता है उसी प्रकार आप भी नित्य नागों के आश्रयदाता हैं। हे, धमशील, मैं सदा आपका भक्त रहा हूं ऐसा जान लीजिए।

नील उवाच:

स्वागतं ते द्विजश्रेष्ठ दिष्थ्यासि मेऽन्तिकम्।

अर्चनीयोऽसि विप्रेंद्र ह्यतिथिस्त्वं मतो मम ।। 370

 

नील बोले: हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, आपका स्वागत है, यह सौभाग्य की बात है जो आप मेरे पास आए। हे ब्राह्मणों मेंद्र समान, आप पूजा के योग्य मेरे अतिथि हैं, ऐसा मेरा मत है। वरं वरय भद्रं ते यथेष्टं मनसि प्रियम् ।

गृहं च मे तथा पश्य तता आसस्व च यथासुखम् ।। 371

हे भद्र, जो वर आपको अच्छा लगे, माग लें। आप मेरे घर को अपना ही घर समझें और यहां सुख से रहें ।

चंद्रदेव:

अवश्यम् मे बरो देयस्त्वया नागेन्द्रसतम।

वरयामि वरं देव तं मे त्वं दातुर्महसि ।। 372

चंद्रदेव बोलेः नागप्रमुखों में श्रेष्ठ, आप मुझे अवश्य ही वर दें। हे देव, मैं आपसे वह वर मांगूंगा जो आप देने योग्य हैं।

कश्मीरायां जनो नित्यं वसतां भीम विक्रम

क्लिश्यते हि सदा लोकी निष्क्रमन् प्रविशन् पुनः। 373

हे भीष्ण विक्रमी राजा, कश्मीर में मनुष्य सदा के लिए बसें। लोगों को यहां से निकलने तथा वापिस आने से कष्ट उठाना पड़ता है।

गृहाणीह नरास्त्यक्त्वा पुराणि विविधानिच।

बसंतु त्वत्प्रसादेन वरमेतद्वृतं मया ।। 374

लोग भिन्न-भिन्न घरों तथा नगरों को छोड़कर सर्दियां जाते ही यहां से चले जाते हैं। आपकी कृपा से वे यहां सदा के लिए रहें, यह दर मैं आपसे मांगता हूं।

नील:

एवमस्तु द्विजश्रेष्ठ वसन्त्विह नराः सदा

पालयन्तस्तु मदवाक्यं केशवात्यन्मया श्रुतम।।

राजा नील चंद्रदेव से बोले:

हे ब्राह्मणों मे श्रेष्ठ, ऐसा ही हो। आज से यहां सदा के लिए मनुष्य वास करें। वे उन आदेशों का भी पालन करें जो मैंने केशव से सुने हैं।

बृहदश्व:

एवमुक्त्वा तदा नीले ब्राह्मणं त्वं निवेशनम्।

नीत्वा सम्पूज्य सम्भोज्य ब्राह्मणस्य यथाविधि ।। 376

 

कश्मीरायां वसत्यर्थः माचाराणि जगाद वै।

द्विजश्वोवास षण्मासान् सुखं नीलनिवेशने। 377

 

बृहदश्व राजा गोनंद से बोले:

यह कहकर राजा नील ने ब्राह्मण चंद्रदेव को अपने घर में लिया। वहां उसे यथायोग्य आदर सत्कार किया और खिलाया पिलाया। वहां उसे कश्मीर में रहने के लिए आचरण भी समझा दिए। तत्पश्चात ब्राह्मण चंद्रदेव छः मासों तक नील के घर में सुख से रहने लगे।

चैत्र्यां ततो व्यतीतायां प्राविशत्सर्वतो जनः।

राजा वीरोदयारण्यश्च हस्त्यश्वैर्बहुभिर्वृतः ।। 378

 

चैत्र मास के बीतने पर चारों ओर से कश्मीर में मनुष्य जाति के लोग, प्रविष्ट हुए। वहां बहुत से हाथियों और घोड़ों समेत राजा वीरोदय भी कश्मीर में प्रविष्ट हुए। वहां बहुत से हाथियों और घोड़ों समेत राजा वीरोदय भी

कश्मीर मे प्रविष्ट हुआ।

प्रविष्टे तु जने तस्मिन् द्विजो नीलेनयोजितः ।

यूषा धनीधसहितो ययौ वीरोदयं नृपम् ॥1379

तस्य सर्व यथा वृत्तं कथयामास स द्विज।

राजापि सर्वलोकेषु कथयामास पार्थिव ।। 380

लोगों के कश्मीर घाटी में दाखिल होने के बाद राजा नील द्वारा नियुक्त ब्राह्मण धन-दौलत लेकर राजा वीरोदय के पास गया। उस ब्राह्मण (चंद्रदेव) ने सारा वृतांत राजा को सुनाया। हे राजा गोनंद, वीरोदय ने यही वृतांत ब लोगों को सुनाया।

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साभार:- पृथ्वीनाथ भट्ट एंव अप्रैल-मई 1995 कोशुर समाचार